इकॉनोलॉजी

अच्छे रेस्टोरेंट और GDP ग्रोथ

लेखक की थ्योरी कहती है कि GDP जितनी तेज़ी से बढ़ता है उससे तीन-चार गुना तेज़ी से रेस्टोरेंट की संख्या बढ़ती है। इन दोनों अलग दिखने वाली बातों का कोई लिंक होना दिलचस्प है। लेखक की ये थ्योरी कितनी सही इसका फ़ैसला आप ख़ुद कीजिए।

अच्छे रेस्टोरेंट और GDP ग्रोथ

क्या बाहर जा कर रेस्टोरेंट में खाने और अर्थव्यवस्था में बेहतर ग्रोथ के बीच कोई सीधा रिश्ता है? ऐसा क्यों है कि जब भी GDP (सकल घरेलू उत्पाद) बढ़ता है, तो अच्छे रेस्टोरेंट भी ज़्यादा हो जाते हैं, और जब GDP नीचे आता है तो रेस्टोरेंट भी ग़ायब होने लगते हैं?

30 साल पहले जब मैंने दिल्ली में अपनी कॉलोनी में रहना शुरु किया, तब वहां एक भी ऐसा रेस्टोरेंट नहीं था जिसे अच्छा कहा जा सके। हालांकि ये जगह प्रधान मंत्री निवास से क़रीब दो मील ही दूर थी। ये दौर, हिंदू रेट ऑफ़ ग्रोथ का दौर कहलाता था और बहुत कम ही लोग बाहर रेस्टोरेंट में खाने जाते, या खा सकते थे।

आज उसी इलाक़े में कम-से-कम दर्जन भर रेस्टोरेंट हैं, एक से बढ़ कर एक, शानदार। हालांकि उनमें से किसी में मुझे प्रधान मंत्री कभी दिखाई नहीं दिए, मगर कुछ मिनिस्टरों को मैंने सूशी और फ़्राइड ऑक्टोपस का स्वाद लेते ज़रूर देखा है। 30 साल पहले के मुक़ाबले अब हमारी GDP की ग्रोथ रेट दो-गुनी है, और ज़्यादातर शहरों में रेस्टोरेंट अब 10 गुने हैं।

लंदन इसका अच्छा उदाहरण है कि रेस्टोरेंट्स पर GDP कैसे असर करता है। जब मैं पहली बार आया, तो पहली जंग बस ख़त्म ही हुई थी, तब यहां कोई भारतीय रेस्टोरेंट नहीं था जिसका नाम लिया जाए - यहां तक कि भारतीय हाई कमिश्नर के ऑफ़िस में एक अच्छी कैंटीन भी नहीं थी। सच तो ये है, आप कहीं भी जाएं खाने की जगहें बहुत ही कम थीं, केवल कुछ ढ़ाबे-नुमा स्टॉल थे जहां ऐसा खाना मिलता था जिसे आप खाना कहते भी तो खाने लायक नहीं कहा जा सकता था। हालांकि ये जगह काफ़ी सस्ता थी और आपको ठीक-ठाक सी एक कप कॉफ़ी दो पेंस में मिल जाती थी, यानि हर एक पाउंड स्टर्लिंग में पचास कॉफ़ी के कप के आसपास लिए जा सकते थे।

ब्रिटेन में मारर्गेट थैचर और टोनी ब्लेयर के दौर में बूम आया और इसका असर लोगों की खाने की आदतों पर क्या हुआ, इसे देखने के लिए आपको इकॉनोमिस्ट न्यूज़पेपर पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। अब पिकैडली के एक मील के दायरे में, क़रीब एक हज़ार रेस्टोरेंट होंगे, उनमें से शायद आधे में मसाला चिकन टिक्का मिलता होगा - इस डिश का मतलब चाहे जो भी हो - और ब्रिटेन के लोग वहां से बकिंघम पैलेस तक उसे चटखारे ले-ले कर खाते हुए मिल जाएंगे। पिछली बार जब हम वहां थे, तो मुझे आधा घंटा लग गया, फ़्राइड-फ़िश-और-चिप्स वाली जगह तलाशने में, जो हमें अंधेरे से लेसेस्टर स्क्वायर के, और भी ज़्यादा अंधेरे से कोने में जा कर मिली।

सिंगापुर, जहां जीवन-स्तर, या प्रति व्यक्ति GDP, अब न्यू यॉर्क के स्तर पर पहुंच गया है, वहां कितने सारे रेस्टोरेंट हैं और उन सभी में शानदार चाइनीज़ खाना सर्व किया जाता है जिसकी उम्मीद आप एक चीनी शहर में करेंगे ही। सिंगापुर में बहुत कम ही लोग घर पर खाना बनाते और खाते हैं। आपको बनाने की ज़रूरत ही नहीं है क्योंकि जैसे ही आप अपने घर से बाहर क़दम रखते हैं, आप खुद को सीधे लज़ीज़ अमेरिकन चॉप-स्वे और चिकन फ़्राइड-राइस की कतार के सामने खड़ा पाएंगे। सिंगापुर के लिए तो कहते हैं, वहां हर मील के दायरे में जितने रेस्टोरेंट हैं, उतने लुधियाना में ढाबे भी नहीं हैं। हालांकि मैं समझता हूं, दिन-रात एक ही तरह का खाना खा-खा कर नीरसता आ जाती होगी।

मेरी थ्योरी के मुताबिक़, जो ज़्यादातर जगहों पर सही साबित होती है, रेस्टोरेंट का नंबर, GDP के बढ़ने के साथ उसके मुक़ाबले तीन या चार गुना बढ़ जाता है। इस बात को सही से समझने के लिए इसे ऐसे समझिए, अगर GDP दो गुना होता है, रेस्टोरेंट का नंबर आठ गुना ऊपर चला जाता है। अगर GDP तीन गुना बढ़ता है, तो खाने वाले जगहें 30 गुना के क़रीब बढ़ जाती हैं।

आज ब्रिटेन में 20,000 भारतीय रेस्टोरेंट हैं और शायद एक हज़ार चीनी रेस्टोरेंट होंगे। ये उतने सस्ते नहीं हैं - मैंने विक्टोरिया स्टेशन पर एक समोसे के लिए पूरा एक पाउंड दिया है, जिसका मतलब है क़रीब 80 रुपए और रीजंट स्ट्रीट पर एक साधारण कढ़ी-चावल के लिए 1,600 रुपए। मगर ब्रिटेन के लोगों को इससे कोई समस्या नहीं हैं। लंदन में औसत आमदनी 2 लाख रुपए महीने की है, जिसका मतलब है, युवा टाइपिस्ट भी हर रोज़ बाहर खाने का ख़र्च उठा सकते हैं। और आज लंदन जो करता है, कल दिल्ली वो करेगी या फिर इसका उलटा होता है?


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