Anand Kumar
पिछले कुछ दिनों में, इन्वेस्टमेंट मीडिया और सोशल मीडिया में ब्राइटकॉम (Brightcom) नाम की एक कंपनी पर सेबी के अंतरिम ऑर्डर को लेकर काफ़ी गहमा-गहमी है. अगर इक्विटी मार्केट में आपकी ज़रा सी भी दिलचस्पी है, तो आपने भी इसके बारे में सुना होगा. ब्राइटकॉम के प्रमोटर और CFO को डायरेक्टर के पद से प्रतिबंधित कर दिया गया है और उसके साथ, 21 दूसरे लोगों के सिक्योरिटी मार्केट में भाग लेने पर रोक लगा दी है. इनमें एक जाना-माना स्टॉक-ब्रोकर भी है, जो फ़ाइनेंस मीडिया में काफ़ी नज़र आता है, कंपनी की होल्डिंग बेचने को लेकर उस पर प्रतिबंध लगा दिया है.
एक स्तर पर, इस कंपनी की कोई ख़बर पढ़ना मुझे बेकार, थकाऊ और समय की बर्बादी लगता है, इसके स्कैम पर लिखने की बात तो छोड़ ही दीजिए. सोशल मीडिया पर, इस ख़बर पर दो तरह की प्रतिक्रिया आती हैं. एक सदमे और डर वाली, जो कहती है, "हे भगवान, कितनी भयावह बात है, हम निवेशकों को लूटा जा रहा है" और दूसरी, "तो आपको इस कंपनी से और क्या उम्मीद थी?" निजी तौर पर, मैं पूरी तरह से दूसरे कैंप में हूं. अगर आप ब्राइटकॉम (Brightcom), वाईब्रैंट (Ybrant) और लेकोस (Lycos) गूगल करते हैं, तो आपको कम से कम नौ साल पुरानी ख़बरें मिल जाएंगी, जो साफ़ बता रही होंगी कि ये किस तरह की संस्था है. आपको एक भी ऐसी ख़बर नहीं मिलेगी जो संदेह न पैदा करे. असल में, 'संदेह' इसके लिए बड़ा विनम्र शब्द है, असल में तो इसकी सड़न की दुर्गंध इतनी है कि इसकी ख़बर पढ़ने के लिए भी आपको अपनी नाक बंद करनी पड़े.
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मगर फिर भी, ऐसे निवेशक मौजूद हैं जो इस स्टॉक के साफ़-साफ़ नज़र आने वाले पंप-और-डंप स्कैम के झांसे में आ जाते हैं. आप समझ सकते हैं कि इन लोगों ने इस कंपनी के बारे में एक बार भी गूगल सर्च नहीं किया होगा, असली रिसर्च की तो बात ही छोड़ दें. 'इनके साथ यही होना चाहिए' ये शब्द कड़वे ज़रूर लगेंगे मगर जब ट्विटर/X पर कोई इस स्टॉक की सिफ़ारिश करता है, तो सिफ़ारिश करने वाले कितने भी हाई प्रोफ़ाइल क्यों न हों, इन निवेशकों के लिए ये कड़वी बात सही लगती है. एक चीज़ है, विटिगिन्श्टाइन का शासक (Wittgenstein's Ruler), जो ऑस्ट्रियाई दार्शनिक लुडविग विटिगिन्श्टाइन (Ludwig Wittgenstein) के नाम पर है. इसके मुताबिक़, "जब एक शासक एक मेज़ को नापता है, तो मेज़ भी शासक को नापती है." अगर कोई व्यक्ति किसी बिज़नस चैनल पर आता है और ब्राइटकॉम की सिफ़ारिश करता है, तो ये आपको उस स्टॉक के बारे में नहीं, बल्कि उस व्यक्ति और उस न्यूज़ चैनल के बारे में कुछ बताता है.
हालांकि, ये ब्राइटकॉम, उसके प्रमोटर, उसके चीयरलीडर, और पंटर जो उसमें भरोसा करते हैं उनसे कहीं बड़ा मसला है. इतने सालों के बाद भी ब्राइटकॉम एक लिस्टिड कंपनी क्यों है जो एक ऑडिट और रेग्युलेटेड कंपनी होने का जामा पहने हुए है और जिसके स्टॉक पब्लिक एक्सचेंज पर ख़रीदे और बेचे जा सकते हैं?
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ब्राइटकॉम के फ़ाइनेंशियल स्टेटमेंट के अनालेसिस जो अब सामने आ रहे हैं वो चकरा देने वाले हैं. मिसाल के तौर पर, एक अनालेसिस में बताया गया कि पिछले फ़ाइनेंशियल में ऑडिटरों ने, 16 में से 14 सब्सीडरी का ऑडिट नहीं किया. ये रहस्यमयी सब्सीडरी इसके कंसॉलिडेटेड एसेट्स का 94 प्रतिशत है, कंसॉलिडेटेड रेवेन्यू का 82 प्रतिशत है, और कुल मुनाफ़े का 100+ प्रतिशत है. इसके बावजूद, इन ऑडिटरों ने इस तथ्य को बस नोटिस किया और अकाउंट साइन कर दिया. जब मैंने इसके बारे में पढ़ा, तो मुझे 2017 के, ICAI के 'CA Day' के फ़ंक्शन पर प्रधानमंत्री का दिया भाषण याद आ गया. मैं समझता हूं कि हर ऑडिटर समझ रहा होगा कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूं.
साफ़ है, इस तरह के रैकेट का चलते रहना फ़ाइनेंशिल रेग्युलेशन के पूरे तंत्र का फ़ेलियर है, जो शुरू तो होता है ऑडिटरों से, मगर जिसमें सेबी भी है, और स्टॉक एक्सचेंज भी, और हां, फ़ाइनेंशियल मीडिया भी है, जो बिना सोचे-समझे अपना प्लेटफ़ॉर्म ऐसी संस्थाओं को देता है. मुश्किल ये है कि रसोई में सिर्फ़ एक ही कॉक्रोच हो ऐसा कभी नहीं होता. अगर एक ब्राइटकॉम मौजूद है, तो ये इस बात का सुबूत है कि ऐसे और भी कई छोटे-छोटे रैकेट होंगे जिनकी ऐसी ही थीम होगी. हर समझदार निवेशक थोड़ा सी रिसर्च करके इनसे बच सकता है, लेकिन ये कोई सिस्टम पर आधारित समाधान नहीं होगा. जब घोड़े अस्तबल से निकल भागें, तो दरवाज़े बंद करना, सिस्टम पर आधारित समाधान नहीं कहा जाएगा. ये तो साफ़ है कि इस समस्या का समाधान क्या होगा--सवाल ये है कि क्या ऐसा किया जाएगा?
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