Anand Kumar
मूर्खों की रैली. ये वाक्य भारतीय निवेश की दुनिया में शायद ही सुनने को मिले, पर इसकी मिसाल आसानी से देखने को मिल जाएगी. आइए पहले इसकी परिभाषा पर ग़ौर कर लेते हैं, ताकि ये पक्का हो जाए कि हमारे लिए इसके मायने और संदर्भ एक ही हैं. मूर्खों की रैली से मेरा मतलब है किसी एक स्टॉक की वैल्यू में या फिर पूरे मार्केट में आने वाला छोटा और बिना वजह का उछाल. यानी ऐसी रैली जो तर्कहीन हो. थोड़े समय का ये उछाल, अक्सर ऐसे निवेशकों को आकर्षित करता है जो निवेश की कला से अंजान होते हैं. यही वो निवेशक हैं जो नुक़सान झेलने के बाद ही अपने पाले हुए तमाम भ्रमों से बाहर निकल पाते हैं.
हाल के महीनों में, दुनिया भर में डिजिटल बिज़नस को लेकर एक क़िस्म की उम्मीद बंध रही है, कि जो बिज़नस हमेशा नुक़सान में चलने वाले लगते थे, वो भी कभी-न-कभी मुनाफ़ा कमाने ही लगेंगे. इस उम्मीद के बंधने की बड़ी वजह उबर (Uber) के पहले क्वार्टर का मुनाफ़ा है. इसके अलावा, कुछ और डिजिटल बिज़नस भी बेहतर हुए हैं, और यही वजह है कि इनके स्टॉक्स में तेज़ी आ गई है.
वैसे ये काफ़ी अजीब है कि एक ग्लोबल कैब-सर्विस के कथित तौर पर बेहतर होते हालात ने, निवेशकों के मन में ये उम्मीद जगा दी है कि एक दूसरी पेमेंट कंपनी या फिर एक खाना डिलिवर करने वाली कंपनी, उनके लिए अच्छा निवेश होंगी. लेकिन यही सच है कि मार्केट के बड़े हिस्से में इस तरह की उम्मीदें तैरने लगी हैं.
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और, 'डिजिटल' बिज़नस अपने-आप में एक कैटेगरी होनी ही नहीं चाहिए. क्योंकि आजकल क़रीब-क़रीब हर बिज़नस एक डिजिटल बिज़नस है. तो फिर ये कैटेगरी है क्या? इन सभी बिज़नस में क्या समानता है? मेरे जैसे इन्वेस्टमेंट एनेलिस्ट के लिए, सबसे अचरज बात है मुनाफ़े का न होना. मुनाफ़ा किसी भी बिज़नस के केंद्र में होता है; बिना मुनाफ़े के, उसका बचा रहना संभव ही नहीं है. मैं 1991 से स्टॉक अनालेसिस कर रहा हूं, और मुझे यक़ीन नहीं होता कि 2023 में मुझे ये कहने की ज़रूरत पड़ रही है. जब से लोगों ने उद्योग-धंधे शुरू किए और उनमें निवेश की शुरुआत की, तब से हम जानते हैं कि मुनाफ़ा बिज़नस का अस्तित्व बनाए रखने के लिए ज़रूरी है. और एक बिज़नस जितनी जल्दी मुनाफ़े में आ जाए उतना अच्छा है. इससे भी बड़ी और अहम बात है कि कोई बिज़नस जो कैपिटल लगाता है, उसके अनुपात में वो कितना मुनाफ़ा कमाता है. इस संदर्भ में, दिलचस्प बात ये है कि उबर ने अपने पहले क्वार्टली मुनाफ़े के लिए 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर इस्तेमाल किए हैं.
कुछ साल से, मुनाफ़े के सर्वोपरि होने का विचार कम अहमियत रखने लगा था. कई लोग, ख़ासतौर पर मीडिया और सोशल मीडिया में शोर मचाते रहे हैं कि मुनाफ़ा वैकल्पिक है और ज़रूरी चीज़ है बिज़नस के यूनीकॉर्न होने का बेकार मेट्रिक्स. कुछ समय से चल रहे इस आइडिया ने असल दुनिया को, यानी इक्विटी मार्केट को भी संक्रमित कर दिया. हालांकि, पेटीएम, ज़ोमाटो और ऐसी ही दूसरी कंपनियों के डिजिटल IPOs की लहर ने स्टॉक मार्केट को बिना मुनाफ़े वाले प्रेत जैसे घूमते स्टॉक्स से भर दिया था. इसी के चलते निवेशकों में यथार्थ का एहसास वापस आने लगा है. ये एहसास, कि जो बिज़नस कुछ साल पहले तक नुक़सान में था, ख़ासतौर पर बड़े नुक़सान में, उसे जल्द ही मुनाफ़ा बनाने का तरीक़ा पता करना होगा, वरना बंद होना होगा. वो ऐसे ही चलता नहीं रह सकता. वो पुराना दस्तूर कि मुनाफ़ा कमाने वाली कंपनियां अपना बिज़नस बढ़ाया करती थीं और नुक़सान उठाने वाली बंद हो जाया करती थीं, कुछ वक़्त के लिए ख़त्म थम गया था, मगर शायद ये बदलाव स्थाई नहीं था.
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एक बिज़नस को चलते रहने के लिए पैसा चाहिए. ये रेवेन्यू से आ सकता है, या फिर निवेशकों से. मगर एक चीज़ अब बदल गई है और वो ये कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था से ज़ीरो-कॉस्ट डॉलर का बिना रुके आते ही रहना बंद हो गया है. जो भी इन बिज़नस पर नज़र रखते हैं उनके लिए ये बात साफ़ होगी कि डॉलरों के इस फ़्लो का कम हो जाना, इन डिजिटल बिज़नसों के लिए, और हम निवेशकों के लिए बेहद फ़ायदेमंद बदलाव है. धन का आना मुश्किल होने से इन कंपनियों का ध्यान मुनाफ़े पर गया है. उन्हें समझ आने लगा है कि जो पैसा बना पाएंगे वही मज़बूत हो कर उभरेंगे, और जो ऐसा नहीं करेंगे वो ख़त्म हो जाएंगे. 2002 में भी ठीक यही हुआ था. अमेज़न और गूगल बच गए और फले-फूले, और वहीं पेट्स डॉट-कॉम, वेबवैन, और बू खत्म हो गए.
बहुत संभव है हम यही कहानी दोबारा घटते हुए देख रहे हैं, और ये हम सबके लिए अच्छा है. निवेशकों के लिए, जिसमें हम भी शामिल हैं, ये बात अहम है कि हम निवेश के उन तरीक़ों पर कामय रहें, जो पारंपरिक हैं, समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं और जो मज़बूत बुनियाद वाले हैं. ऐसा लग रहा है कि मुनाफ़े के दौर वापस आ गया है, मगर सच तो ये है कि ये कभी फ़ैशन से बाहर हुआ ही नहीं था.