इस साल के यूनियन बजट में, वित्त मंत्री ने पारंपरिक बीमा पॉलिसियों की मैच्योरिटी पर मिलने वाली टैक्स छूट ख़त्म कर दी है. ये छूट सिर्फ़ उन्हीं पॉलिसियों पर ख़त्म हुई है, जिनका कुल सालाना प्रीमियम ₹5 लाख से ज़्यादा है. हममें से जो लोग, बीमा इंडस्ट्री के अपने कस्टमरों को चूना लगाने की गंभीरता समझते हैं, वो अर्से से इस उम्मीद में हैं कि इसे रोकने के लिए असरदार नियम बनाए जाएंगे. मगर आप समझ लीजिए कि इस बार का बदलाव ऐसा कुछ भी नहीं करता--ये सिर्फ़ टैक्स के लूप-होल ख़त्म करने के लिए लाया गया है. ये सरकार की राजस्व बेहतर करने की कोशिश है, बीमा कंपनियों और उनके एजेंटो की लूट को रोकने की नहीं.
ये एक साइड इफ़ेक्ट की तरह है कि इस बदलाव से कुछ लोगों के लिए ये नुक़सानदायक पॉलिसियां उतनी आकर्षक नहीं रह जाएंगी. पर इससे बड़ी बात है कि ये लोग इंश्योरेंस के अमीर शिकारों में से हैं. आखिर किसी एक पॉलिसी के लिए सालाना ₹5 लाख से ज़्यादा प्रीमियम देने वाला, अमीर के अलावा और क्या कहला सकता है. इंश्योरेंस कंपनियां और उनके एजेंट, ऐसे लोगों को निशाना बनाने के लिए आज़ाद हैं, जो ₹4,99,999 का सालाना प्रीमियम दे रहे हैं. यानी, बुनियादी तौर पर इंडस्ट्री पर नकेल कसने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया गया है.
ये बात साफ़ है कि एक दशक पहले, यूलिप में सुधारों को लेकर उठाए क़दम के बाद से, न तो किसी तरह की जागरुकता दिखाई गई है, और न ही इस फ़ाइनेंशियल प्रॉब्लम को आधिकारिक तौर पर माना गया है कि देश के करोड़ों बचत करने वालों के लिए इंश्योरेंस बिज़नस किस तरह की मुश्किल खड़ी करते हैं.
भारतीयों को जिस चीज़ की ज़रूरत है, वो है, मायना रखने वाला इंश्योरेंस का पैसा. जब मैं इंश्योरेंस कहता हूं, तो मेरा मतलब असल इंश्योरेंस से है, जिसमें बीमा करवाने वाले व्यक्ति की मृत्यु होने पर परिवार को पैसा मिलता है. जिस दूसरे असली प्रोडक्ट की हमें ज़रूरत है, वो एन्युटी है. बुनियादी तौर पर, दो ही स्थितियों से सुरक्षा की हमें ज़रूरत होती है. पहली, बिना काफ़ी पैसे जमा किए जल्दी मौत हो जाना. और दूसरी, बिना काफ़ी बचत किए लंबा जीवन होना. कुल मिला कर, इंश्योरेंस इंडस्ट्री को इन्हीं दो परिस्थितियों से निपटना है.
इसके बजाए, हमारे पास असली इंश्योरेंस के भेस में एक ग़ैर-पारदर्शी, बहुत महंगी और ख़राब प्रदर्शन करने वाली एसेट मैनेजमेंट सर्विस है. इससे भी बड़ी बात है कि इंश्योरेंस कॉन्ट्रैक्ट बहुत सीमाओं में जकड़ा हुआ है. अगर किश्त नहीं दे सकते, तो आप अपने पैसे का बड़ा हिस्सा गंवा बैठेंगे. क्योंकि इंश्योरेंस और निवेश दोनों एक साथ बांध दिए गए हैं. इसमें आप लाइफ़ कवर तो गंवाते ही हैं, साथ ही प्रिंसिपल का सारा रिटर्न भी खो बैठते हैं. ऐसा म्यूचुअल फ़ंड SIP या रिकरिंग डिपॉज़िट जैसे निवेशों में नहीं होता. उनमें, अगर किसी भी वजह से आप एक या दो किश्तें नहीं दे पाते, तो भी सब कुछ ख़त्म नहीं होता. प्रिंसिपल और उससे होने वाली कमाई, आपकी ही रहती है. ये सज़ा जैसी ज़ब्ती, इंश्योरेंस रेग्युलेटर और सरकार दोनों को पूरी तरह से स्वीकार्य लगती है. किसी भी सोचने-समझने वाले को लगेगा कि या तो ये संस्थाएं समस्या को समझती नहीं हैं, या उन्हें परवाह ही नहीं, और या फिर इंश्योरेंस कंपनियों ने उन्हें पूरी तरह से समझा-बुझा कर राज़ी किया हुआ है.
हैरानी इस बात की है कि कई बचत करने वाले भी इस समस्या को नहीं देख रहे हैं. मिसाल के तौर पर, पर्सनल फ़ाइनांस में समझने वाली सबसे आसान चीज़ है, टर्म इंश्योरेंस. जो कोई भी कमाता है और कोई दूसरा उस पर निर्भर है, उसके पास टर्म इंश्योरेंस होना ही चाहिए. ये इंश्योरेंस आमदनी का क़रीब 10X होना चाहिए. मगर ऐसी किसी भी चीज़ जिसमें उन्हें कुछ वापस नहीं मिल रहा हो, उसे ख़रीदने को लेकर लोगों में बड़ा प्रतिरोध रहता है. इंश्योरेंस एजेंट दशकों से लोगों को टर्म के ख़िलाफ़ सिखाते-समझाते रहे हैं. जब भी कस्टमर टर्म प्लान के बारे में पूछता है, तो एजेंट हमेशा ही कहते हैं कि आपको इसमें कुछ नहीं मिलेगा. यानी, मैं पैसों को लेकर मूर्खता करने से आपको बचा रहा हं क्योंकि मेरे मन में सिर्फ़ आपके ही हित का ख़याल है.
इंश्योरेंस में किसी भी अहम सुधार की कमी, भारत के फ़ाइनेंशियल रेग्युलेशन का सबसे दुखद पहलू है. वास्तव में हर दूसरे क्षेत्र में, चाहे बैंकिंग हो या म्यूचुअल फ़ंड या इक्विटी मार्केट, वहां एक्टिव तरीक़े से कस्टमर की समस्याओं को सुलझाने और सर्विस को बेहतर करने की कोशिशें होती रहती हैं. इंश्योरेंस इसका दुखद अपवाद है. अब यही बचा है कि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग इस बात को समझें और इंश्योरेंस इंडस्ट्री से ख़ुद अपनी समझ बढ़ा कर अपने-आप को बचाएं.