रिस्क बनाम रिटर्न. कुछ किया नहीं, तो कुछ पाया नहीं. जितना ज़्यादा बड़ा रिटर्न आप चाहते हैं, आपको उतना ही बड़ा रिस्क लेना होगा, निवेश को लेकर ये बातें, बड़ी गहराई से हमारी सोच में बैठी हुई हैं. अब ये महज़ खयाल नहीं रह गए हैं. रिस्क-रिटर्न के विचार को गणित से समझाने के लिए तो एक नोबेल भी दिया जा चुका है.
इससे पहले कि कोई आपको निवेश की सलाह दे, उन्हें रिस्क लेने की आपकी क्षमता या 'risk tolerance' का पता लगाना चाहिए. दरअसल भारत में या दुनिया के किसी भी बेहतर रेग्युलेशन वाली व्यवस्था में एक रजिस्टर्ड फ़ाइनेंशियल एडवाइज़र के लिए ये ज़रूरी है. हालांकि, इस विचार में कुछ बुनियादी गड़बड़ है. मेरा मतलब ये नहीं कि निवेशक के रिस्क की क्षमता का पता लगाने का ख़याल ग़लत है, पर ये कि किसी व्यक्ति की रिस्क सहने की क्षमता एक ही स्तर की रहेगी, ये सोचना ग़लत है. असल में, एक ही शख़्स अपने आर्थिक जीवन के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग स्तर के रिस्क की क्षमता रखता है.
पारंपरिक तौर पर, फ़ाइनेंशियल एडवाइज़र किसी इन्वेस्टर के सारे निवेशों को एक ही पोर्टफ़ोलियो के तौर पर देखते हैं और उसे निवेशक के ख़ुद अपने बारे में तय की गई रिस्क लेने की क्षमता के मुताबिक़ ट्यून करने लगते हैं. वो रिस्क-क्षमता का पता लगाने के लिए कुछ सवाल करते हैं और उम्र, आमदनी के साथ कुछ दूसरी बातों को इसका आधार मान लेते हैं.
मैंने कभी नहीं माना कि ये तरीक़ा कारगर है. ये तरीक़ा निवेशक के रवैये के बारे में भले ही कुछ बातें ज़ाहिर करे, मगर ये इनवेस्टमेंट पोर्टफ़ोलियो प्लानिंग का आधार नहीं हो सकता. क्योंकि हरेक बचत करने वाले, और हरेक परिवार के कई आर्थिक लक्ष्य होते हैं. और इनमें से हर लक्ष्य के लिए एक अलग तरह के निवेश की ज़रूरत होती है. आप ज़रा इसके बारे में ज़रा सोचिए कि हर एक आर्थिक लक्ष्य किसी ख़ास मक़सद के साथ जुड़ा होता है जिसके लिए बचत के पैसों का इस्तेमाल होगा, और इसका एक ख़ास टाइम-फ़्रेम भी होता है. मिसाल के तौर पर, आपका लक्ष्य 'बच्चों की उच्च शिक्षा' हो सकता है, हो सकता है जिसके लिए पैसों की ज़रूरत आठ साल में हो, या अगले पांच साल में 'घर ख़रीदने' का लक्ष्य हो सकता है, या तीन-चार साल बाद 'यूरोप में छुट्टियां' बिताने का प्लान हो सकता है.
इनमें से कुछ लक्ष्य कब आएंगे उसका समय तय होता है, जैसे बच्चों की कॉलेज की पढ़ाई. वहीं, महंगी छुट्टियां अच्छी तो लगती हैं, पर उन्हें इतना ज़रूरी नहीं कहा जा सकता. यानी कुछ चीज़ें टाली जा सकती हैं और कुछ नहीं. बचत के कुछ और लक्ष्य भी होते हैं, जैसे इमर्जेंसी के लिए पैसे जमा करना। मगर इसके लिए कोई ख़ास इन्वेस्टमेंट स्ट्रैटजी की ज़रूरत नहीं होती. जब आप इन उदाहरणों पर ग़ौर करेंगे तो समझ जाएंगे कि हर लक्ष्य का अपना एक अलग रिस्क है. उससे भी बड़ी बात कि रिस्क का ये स्तर बदलता रहता है, और ये न सिर्फ़ लक्ष्य बदलने के साथ बदल जाता है, बल्कि इसके पूरा होने में लगने वाले समय के हिसाब से भी ये अलग हो जाता है.
इसलिए, पोर्टफ़ोलियो बनाने का जो तरीक़ा मैंने वैल्यू रिसर्च में अपनाया है, उसमें निवेश के पूरा होने के समय पर ध्यान दिया जाता है. यानी, ऐसे निवेश जिनके लक्ष्य अभी दूर हैं, उनसे ज़्यादा फ़ायदा पाने के लिए आप रिस्क ले सकते हैं. आपके लक्ष्य की तारीख़ जितनी नज़दीक होगी, आप उतना ही कम रिस्क ले सकते हैं. और जो पैसा आपको तुरंत चाहिए, उसके लिए कोई भी रिस्क लेना ठीक नहीं होता. इसका मतलब हुआ कि किसी भी व्यक्ति के रिस्क लेने की क्षमता पहचानने का पारंपरिक तरीक़ा कोई मायने नहीं रखता.
ध्यान देने वाली बात है कि निवेश के अंतिम समय में, लॉन्ग-टर्म, शॉर्ट टर्म हो जाता है और शॉर्ट-टर्म ज़रूरी पैसा बन जाता है. जैसे आपकी आठ-साल की बेटी अपनी हायर एजुकेशन 2023 में शुरु करेगी तो ये एक लॉन्ग-टर्म गोल हुआ. मगर जब तक 2027 आएगा, तब ये एक मीडियम-टर्म गोल बन जाएगा, और 2031 में ये शॉर्ट-टर्म गोल हो चुका होगा. इसलिए, इन निवेशों के प्रति रवैये को समय के साथ बदलना ज़रूरी होता है. जैसे-जैसे निवेश के पूरा होने के दिन क़रीब आते हैं, उस लक्ष्य के लिए निवेश किए पैसे पर रिस्क लेने की क्षमता कम से कमतर होती जाती है। और इसलिए, जिस ज़रूरत के लिए निवेश किया जा रहा है, उसे पूरा करने के लिए बनाए पोर्टफ़ोलियो को भी बदलने की ज़रूरत होती है. इनमें से कोई भी असल-ज़िंदगी के फ़ैक्टर आपके रिस्क लेने की क्षमता को नापने के पारंपरिक तरीक़े में मौजूद नहीं है.
अंत में, फिर कहूंगा कि कोई भी पारंपरिक निवेश के प्रॉडक्ट और सर्विस इन सारी बातों को शामिल नहीं करेंगे. बचत करने वालों को इन्हें ख़ुद ही सीखना होगा और अपनी ज़रूरतें पूरी करनी होंगी. हालांकि, आप देख ही सकते हैं कि ये सब आसानी से समझी जाने वाली बातें हैं, जो किसी सर्विस के तौर पर उपलब्ध नहीं हैं और इन्हें आपको ख़ुद ही करना होगा.