स्टोरी के पहले हिस्से में हमने प्रीमियम की तुलना करने जैसी अहम बातें बताई थीं, अब कुछ और ज़रूरी मुद्दों की बात करते हैं.
हेल्थ इंश्योरेंस में दी गई शर्तों की छोटी-छोटी बातें भी पढ़ें
इंश्योरेंस एक ऐसा फ़ाइनेंशियल प्रोडक्ट है, जिसका इतिहास अपने ख़रीदारों को ऐसे समय में चौंकाने का रहा है, जब उन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है. कभी भी फ़ाइन प्रिंट या शर्तों की छोटी-छोटी बातों को पढ़े बिना हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम न ख़रीदें.
बेशक़, लंबी-चौड़ी शर्तों और नियमों के हरेक शब्द को पढ़ना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन कुछ बड़ी-बड़ी बातों की जांच और पुष्टि आपको ज़रूर करनी चाहिए.
बीमाकर्ता की वेबसाइट पर जाएं और यहां आपको 'डाउनलोड' सेक्शन में पॉलिसी की डिक्शनरी मिलेगी. अगर नहीं, तो बीमाकर्ता की कस्टमर सर्विस टीम से लिखे हुए दस्तावेज़ को पाने में मदद करने के लिए कहें. सिर्फ़ बोल कर बताई गई जानकारी से संतुष्ट न हों. एक बार जब दस्तावेज़ मिल जाए, जो आमतौर पर PDF होता है, तो कुछ अहम शब्दों (नीले रंग के keywords) को देखें. इसमें टेक्नोलॉजी मददगार साबित होगी! बस दो बटन (Ctrl+F) दबाने से आपका बहुत सा समय बच जाएगा.
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उप-सीमाएं (Sub-Limits): सबसे आम तरह की अक्सर मौजूद रहने वाली उप-सीमा कुछ इस तरह की होती हैं, कमरे का किराया, ICU की फ़ीस और डॉक्टर की फ़ीस पर लगाई गई सीमा. मिसाल के तौर पर, इस तरह की शर्त वाली इंश्योरेंस स्कीम में कमरे का किराया आमतौर पर 1 प्रतिशत और ICU फ़ीस कुल बीमित राशि का 2 प्रतिशत होती है. इसलिए, अगर किसी के पास ₹5 लाख का हेल्थ इंश्योरेंस कवर है, तो इस क्लॉज़ के साथ, बीमाकर्ता कमरे का किराया और ICU फ़ीस ₹5,000 और ₹10,000 प्रतिदिन से ज़्यादा नहीं देगा.
मोतियाबिंद सर्जरी जैसे प्रोसीजर पर सही उप-सीमा का होना सही है, लेकिन कमरे के किराए जैसी छोटी चीज़ों पर भी सीमा होना, ज़रूरत के समय में काफ़ी परेशानी का कारण बन सकता है. इसलिए, ऐसी स्कीम लेना बेहतर होगा जिसमें ऐसी कोई उप-सीमा न हो.
याद रखें, सरकारी बीमाकर्ता और निजी बीमा करने वालों के ₹10 लाख से कम के कवर वाली स्कीम में ऐसी शर्तों के होने की संभावना ज़्यादा है. ज़ाहिर है, उप-सीमा जितनी कम होगी, उतना बेहतर होगा.
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सह-भुगतान (Co-pay): यानी, बीमाकर्ता और आपकी अपनी जेब से जाने वाला पैसा. आमतौर पर बीमाधारक इलाज के ख़र्च का एक निश्चित हिस्सा ही देता है और कुछ हिस्सा आपको अपनी जेब से ख़र्च करने के लिए कहता है. मिसाल के तौर पर, अगर 10 प्रतिशत का सह-भुगतान सेक्शन है और अस्पताल का बिल ₹5 लाख है, तो बीमाकर्ता ज़्यादा से ज़्यादा ₹4.5 लाख ही देगा. आपको अपनी जेब से ₹50,000 का भुगतान करना होगा.
अगर बीमाधारक की उम्र 60 या उससे ज़्यादा है, तो ये सेक्शन बहुत आम है. इसलिए, अगर आपके घर में कोई बुज़ुर्ग है, जिसके लिए आप हेल्थ इंश्योरेंस ख़रीदने की सोच रहे हैं, तो इसकी जांच ज़रूर करें.
आदर्श तो यही होगा कि सह-भुगतान का प्रतिशत जितना कम होगा, उतना ही बेहतर है.
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बहिष्करण (Exclusions): सभी बीमा कंपनियों के पास कुछ बहिष्करण या एक्सक्लूज़न हैं - ऐसी बीमारियां जिन्हें वे कवर नहीं करती हैं. ये बहिष्करण स्थायी (permanent) या अस्थायी (temporary) हो सकते हैं. अस्थायी बहिष्करण पॉलिसी ख़रीदने के बाद केवल एक निश्चित अवधि के लिए लागू होते हैं और एक निश्चित अवधि के लिए पॉलिसी जारी रखने के बाद उन बहिष्करणों को हटा दिया जाता है.
दूसरी तरफ़, दंत चिकित्सा, कॉस्मेटिक सर्जरी और HIV का ईलाज क़रीब सभी हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसियों के स्थायी बहिष्करण के तहत आते हैं. पहले से मौजूद बीमारियां (Pre-existing diseases) आमतौर पर पॉलिसी ख़रीदने के दो से चार साल बाद कवर की जाती हैं. इसे आमतौर पर प्रतीक्षा अवधि (waiting period) के तौर पर दिखाया जाता है और हरेक बीमाकर्ता के लिए ये अलग-अलग होता है. इन दिनों मधुमेह (diabetes) और उच्च रक्तचाप (hypertention) जैसी कुछ जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां होना आम बात है. अगर आपको कोई बीमारी है, तो सबसे कम प्रतीक्षा अवधि वाली पॉलिसी की तलाश करें. पहले से मौजूद बीमारियों के अलावा, हो सकता है कि बीमा पॉलिसी अपने शुरुआती सालों में मोतियाबिंद (cataracts) और हर्निया (hernia) जैसे कुछ ईलाज के लिए कवर नहीं दें.
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अस्पताल की तरह घर पर भर्ती होना या घर पर उपचार: इसे अंग्रेज़ी में डोमिसिलियेरी हॉस्पिटलाइज़ेशन (Domiciliary hospitalisation ) कहते हैं, और इस क्लॉज़ का फ़ायदा तब मिलता है जब अस्पताल में भर्ती होना ज़रूरी हो, मगर अस्पताल में बेड न मिलने से या इस बीमित व्यक्ति के गंभीर रूप से घायल या बीमार होने के कारण उसे अस्पताल नहीं ले जाया जा सकता है. कोविड की दूसरी लहर के दौरान अस्पतालों में बेड की कमी को देखते हुए, ये क्लॉज़ पहले से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है. ये और भी अहम है अगर आपके घर में बुज़ुर्ग हैं. हालांकि, ज़्यादातर बीमा प्लानों में इसकी एक उप-सीमा होती है और केवल तभी कवरेज मिलता है जब ईलाज एक तय अवधि तक चलता है, आमतौर पर तीन दिन. आपकी पॉलिसी में घर पर ईलाज की सुविधा होने से ये बेहतर हो जाती है, बशर्ते इससे आपको ज़्यादा प्रीमियम देने के लिए बहुत ज़्यादा खर्च न करना पड़े.
बहाली लाभ (Restoration benefit): ये सुविधा एक साल के दौरान आपकी बीमा राशि के समाप्त होते ही उसे रिफ़्रेश कर देती है. बीमा कंपनियां यहां काफ़ी खेल कर सकती हैं. कुछ कंपनियां बिना किसी सीमा के बहाली दे सकती हैं, जबकि कुछ और इसे केवल एक बार तक के लिए सीमित कर देती हैं. इसके अलावा, कुछ कंपनियां बीमाधारक को उसी बीमारी के लिए बहाली के फ़ायदे इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं देतीं, जिसके लिए बीमित व्यक्ति उसी साल अस्पताल में भर्ती हो चुका हो. लेकिन कुछ पॉलिसियों में ऐसी कोई सीमा नहीं होती है. बहाली ख़रीदारों के लिए एक आकर्षक सुविधा लगती है, लेकिन ये मार्केटिंग का एक महंगा चारा साबित हो सकता है.
इसलिए, सबसे ज़्यादा बहाली पाने के लिए बहुत ज़्यादा कोशिश न करें, क्योंकि इससे प्रीमियम की रक़म में उछाल आ सकता है. यहां आपको थोड़ी खोजबीन करने की ज़रूरत है. उदाहरण के लिए, अगर बीमाकर्ता X आपको बीमाकर्ता Y के बराबर प्रीमियम पर एक बार की बहाली के साथ ₹10 लाख का कवर देता है, जो बिना बहाली के ₹20 लाख का कवर दे रहा है, तो क्या बाद वाला बेहतर सौदा नहीं है, अगर बाक़ी सब एक जैसा ही हो?
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सालाना मेडिकल टेस्ट (Annual medical tests): कुछ पॉलिसियों ने अब वार्षिक स्वास्थ्य जांच की सुविधा देनी शुरू कर दी है. ये दिखने में काम की सुविधा लग सकती है, हालांकि ये अनिवार्य नहीं है. लेकिन आपको उन केंद्रों (centres) के बारे में पूछताछ करनी चाहिए जहां से आप ये टेस्ट करवा सकते हैं, किस तरह के मेडिकल टेस्ट कवर किए जाते हैं और क्या वहां कैशलेस सिस्टम काम करता है.
अस्पताल में भर्ती होने से पहले और बाद का ख़र्च (Pre- & post-hospitalisation): जबकि ज़्यादातर पॉलिसियां अस्पताल में भर्ती होने से पहले और बाद में ईलाज के ख़र्चों के लिए कवर देती हैं, पर ये कवरेज दिनों की संख्या के आधार पर अलग-अलग हो सकता है. आपको कम-से-कम 30 दिनों के प्री-हॉस्पिटलाइज़ेशन कवर और 30-60 दिनों के पोस्ट-हॉस्पिटलाइज़ेशन कवर की तलाश करनी चाहिए, जो कि ज़्यादातर मामलों में काफ़ी होना चाहिए.
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