जीवन आश्चर्यों से भरा है, अच्छे भी और बुरे भी। मगर, ऐसे दोस्त और साथी जिसके साथ कई साल के दौरान, बीच-बीच में काम किया हो, उसके अगला प्राइम मिनिस्टर हो जाने की ख़बर अचानक आ जाए, और वो भी वोटों की सूनामी पर सवार हो कर, तो इससे ज़्यादा खुशी की बात नहीं हो सकती।
मैं बात कर रहा हूं नरेंद्र मोदी की, जो काफ़ी लंबे अर्से तक दिल्ली की रेसकोर्स रोड पर रहे। 30 साल पहले, जब मैं दिल्ली के अशोक रोड स्थित बीजेपी सेंट्रल ऑफ़िस में उनसे पहली बार मिला, तो वो एक नर्वस से ‘कैडेट’ हुआ करते थे और मैं एक हरफ़नमौला नेशनल एग्ज़ीक्यूटिव का मेंबर था। मगर मेरा मुख्य काम एक्सपर्ट के तौर पर पार्टी की आर्थिक पॉलिसियों को देखना था।
मुझे याद नहीं कि मोदी को मैंने पहली बार कब देखा, क्योंकि वो असामान्य रूप से चुप रहकर काम करने वाले व्यक्ति थे। मैं असामान्य इसलिए कह रहा हूं क्योंकि एक उभरते हुए राजनीतिज्ञ के तौर पर वो इतना चुप रहने वालों में से थे कि मुझे और ज़्यादातर साथियों को, उनसे पहचान करने में छः महीने लग गए। एक समय वो पार्टी सचिव हुआ करते थे। ये पोस्ट उतनी ऊंची नहीं होती जितना आप सोचेंगे। मगर इस पोस्ट के ज़रिए उन्हें उस हर चीज़ में एंट्री मिल गई, जो हम करते थे या नहीं करते थे, क्योंकि इसकी वजह से वो हर जगह थे और कहीं भी नहीं थे। कई बार ऐसा भी हुआ जब वो हफ़्तों के लिए ग़ायब हो गए, कई बार महीनों के लिए और जब आप उम्मीद नहीं कर रहे होते थे तो वो दोबारा प्रकट हो जाते थे।
तब हम काफ़ी छोटी सी पार्टी हुआ करते थे, मगर ऐसी पार्टी जो तेज़ी से बढ़ रही थी और जिसका दखल, अयोध्या से लेकर स्वदेशी तक, हर चीज़ में था। बहुत ही कम पार्लियामेंट मेंम्बरों के होने के बावजूद, हम हमेशा बड़े सपने लेते थे। जब मैंने ज्वाइन किया तब तक पार्टी लोक सभा में सिर्फ़ दो सीटों तक सिमट गई थी। उसके बाद, हालांकि हालांकि इसमें मेरी कोशिशों का कोई हाथ नहीं था, पर जब तक मोदी सीन में उभरे, सबकुछ काफ़ी बेहतर होने लगा था। अब 11 अशोक रोड पर बीजेपी का ऑफ़िस एक शानदार लैंडमार्क बन गया था। मगर जब मैंने पार्टी ज्वाइन की थी तब तक ऐसा नहीं हुआ था। यहां तक कि तब रिक्शेवाले भी हमें वहां ले जाने से मना कर देते थे। वहां एक ही बिल्डिंग हुआ करती थी, जहां हममें से ज़्यादातर लोगों का ऑफ़िस था और एक एनक्सी थी जहां मोदी और दूसरे लोग रहा करते थे। उसी में एक छोटी सी कैंटीन भी थी।
हम चाय और कॉफ़ी बहुत ज़्यादा पिया करते थे - ज़्यादातर समय चाय के लिए और किसी मेहमान के आने पर, हम मोदी से कहते, वो कैंटीन में कहें कि वहां से कुछ भेजा जाए। हालांकि हम कई गैलन चाय और कॉफ़ी हर रोज़ पीते, पर मैंने कभी मोदी को कुछ भी लेते नहीं देखा। वो बहुत ही अनुशासित युवक थे। वो अपने आप को बहुत अच्छी तरह से दूसरों के सामने प्रस्तुत करते थे, हमेशा अच्छे से इस्त्री किए कपड़े पहनते, (जो वो ख़ुद धोते थे), बाल सफ़ाई से कटे होते, ये मुझे हमेशा अचंभे में डालता था कि वो ये सब कुछ, इतने कम अलाउंस में कैसे कर लेते हैं।
लंच के दौरान, हम अक्सर पास की कैंटीन में नाश्ते के लिए जाते - क्योंकि उसी का ख़र्च उठा सकते थे - और मोदी अक्सर हमारे साथ होते। वो किसी भी चीज़ को ले कर बहुत कम बातें करते और हम उनसे बहुत कम ही बातें जान पाते। हालांकि हमें पता था कि वो अभी गुजरात से वापस आए हैं। इस बात की भी चर्चाएं थी कि उन्होंने कुछ वक़्त हिमालय में बिताया है।
इतने साल बाद इन बातों के बारे में, मैं धीरे-धीरे भूलने लगा हूं मगर मुझे अच्छी तरह से याद है, एक दिन मोदी मेरे कमरे में आए और मुझसे पूछा कि भारत का जीडीपी क्या है। इस सवाल ने मुझे हैरान कर दिया, मुझे इस बात का कोई अंदेशा नहीं था कि वो इन चीज़ों में रुचि रखते थे। मैंने उनसे पूछा कि वो क्यों जानना चाहते हैं। "बस ऐसे ही," उन्होंने शर्माते हुए कहा, "मैं उत्सुक हूं।"
मैंने उन्हें बताया - वो मुझसे 30 साल जूनियर थे, एक बेटे जैसे - मैंने उन्हें बताया कि जीडीपी कैसे कैलकुलेट की जाती है और उसका मतलब क्या होता है। उसके बाद मैंने उनसे आंकड़े शेयर किए और यूएस की जीडीपी के साथ तुलना कर के भी बताया। मैंने उन्हें बताया कि अगर हम आंकड़े को अपनी जनसंख्या से भाग दें, तो हमें ये पता चलेगा कि हमारा देश कितना ग़रीब है। मैं अपनी कुर्सी पर था और मोदी मेरे सामने एक कागज़ का टुकड़ा हाथ में लिए हुए थेI वो मुस्कुराए, उठे और चले गए, ऐसे जैसे, मैंने उन्हें कुछ ऐसा बता दिया हो जिससे वो स्तब्ध हो गए हों।
दोपहर में, हममें से कुछ लोगों ने रोज़ की प्रेस कॉन्फ़्रेंस अटैंड की, जो हमेशा ही शोरगुल और गर्मागर्मी से भरी होती थी। इसमें अयोध्या से महंगाई तक और पाकिस्तान से आतंकवाद तक, हर तरह के सवाल थे। मैं मोदी को आख़िरी कतार में बैठे देख सकता था, ध्यान से सुनते हुए और नोट्स लेते हुए। कॉन्फ़्रेंस ख़त्म होने के बाद, वो डायस पर मेरी टेबल पर आए और उन्होंने मुझसे कुछ और सवाल पूछे, इसके बावजूद कि पार्टी सैक्रेटरी होने के नाते उनके पास ज़्यादातर जवाब मौजूद थे। और फिर हम दोनों ने रिपोर्टरों के साथ चाय और बिस्किट लिए। ये हमारे लिए रोज़ की बात थी।
कई साल बाद, हम दोनों ने ही दिल्ली छोड़ दी - वो गुजरात चले गए और चीफ़ मिनिस्टर बन गए और मैं पुणे चला आया अपनी रिटायर्ड ज़िदंगी बिताने के लिए। एक दिन सुबह, अचानक ही, मुझे एक फ़ोन आया। दूसरी तरफ़ से आवाज़ ने अनाउंस किया, जैसे बीबीसी पर करते हैं, कि सीएम आपसे बात करना चाहते हैं। मुझे नहीं पता था कि सीएम का क्या मायने है क्योंकि इससे पहले मैंने सिर्फ़ पीएम से डील किया था, सीएम से नहीं, तो मैंने पूछा कहां से बोल रहे हैं।
दूसरी तरफ़ से एक कठोर आवाज़ आई, जिसने ख़ुद की पहचान मोदी बताई। मैं कैसा हूं ये पूछने के बाद, उन्होंने मुझसे कहा कि उनके सामने मेरा आर्टिकल खुला हुआ रखा है। लंदन के इकॉनोमिस्ट में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें मैंने गुजरात में हुई प्रगति के बारे में लिखा था। इस लेख में, मैंने गुजरात में मोदी के काम की तारीफ़ की थी।
मोदी का फ़ोन मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य था और मैंने उनसे कहा कि अगर उनके बारे में अगला प्रधान मंत्री बनने की अफ़वाहें सही हैं, तो वो मेरे सपोर्ट का भरोसा कर सकते हैं। मैंने कहा, आप कीजिए और अगली बार नई दिल्ली के पीएम ऑफ़िस से फ़ोन कीजिएगा। मैंने उन्हें उत्साह बढ़ाने वाली बातें वैसी ही सहजता से कहीं, जैसी मैं तब कहा करता था जब हम नई दिल्ली में साथ थे और फिर बातों के बाद उन्हें गुडबाय किया। वो नौजवान जो हमेशा सवाल पूछने के लिए तैयार रहता था अब जवाब देने के लिए तैयार हो रहा है और मैं उनके अगले कॉल का इंतज़ार कर रहा हूं!
लेखक एक जाने-माने स्तंभकार और अर्थशास्त्री हैं।
ये कॉलम अब से कुछ समय पहले लिखा गया था।