इकॉनोलॉजी

नोबेल विजेता और उनके वेतन

सौ साल पहले का वो मुश्किल दौर जब नोबेल पाने वाले भी बहुत कम वेतन पाते थे

नोबेल विजेता और उनके वेतन

एक औसत आई.टी. कंपनी में, मैनेजर पद के लिए हम कुछ लोगों के इंटरव्यू ले रहे थे। कंपनी, नई दिल्ली में एक ब्रांच खोल रही थी, और काम की शुरुआत करने के लिए मैनेजर की ज़रूरत थी। करीब 20 लोगों ने आवेदन दिया था, और उनमें से ज़्यादातर लोग इस पद के योग्य लग रहे थे।

जो युवक हमारे सामने बैठा था वो न सिर्फ़ युवा था बल्कि उसे कुछ अनुभव भी था। हालांकि उसका अनुभव बिल्कुल वैसा ही नहीं था, जैसा इस पद के लिए चाहिए था। मैं अपने अनुभव से जानता हूं कि दिल्ली बिज़नस करने के लिए एक मुश्किल जगह है। बातचीत के दौरान, मैंने उस युवक से, वेतन को लेकर उम्मीद के बारे में सवाल किया। “एक करोड़”, उसका जवाब था। मैंने ऐसे दिखाया जैसे मैं उसे सुन नहीं पाया हूं, हालांकि सच तो ये कि पहले तो समझ में ही नहीं आया कि उसके शब्दों के क्या मायने हैं। मैंने उससे दोबारा वही सवाल पूछा। “एक करोड़”, फिर से उसका जवाब था। “और हां, एक घर और कार”, उसने बिना किसी झिझक के कहा।

उसकी उम्र 24 साल थी, और उसे साल का एक करोड़ वेतन चाहिए था, जो कि रु8 लाख/ माह से ऊपर बनता है। इतना पैसा न तो मैंने बतौर इंजीनियर (शुरुआत में) और न ही बाद में, एक पत्रकार और अर्थशास्त्री के तौर पर अपने पूरे कैरियर में बचाया, या पाया था। सच तो ये है कि कई ऐसे दौर भी आए थे जब मुझे कोई वेतन ही नहीं मिला था।

मुझे ठीक से याद नहीं है कि हमने उस युवक को चुना या नहीं; शायद उसे नहीं ही चुना गया था। इसलिए नहीं क्योंकि हमारे मुताबिक वो इस नौकरी के काबिल नहीं था, मगर इसलिए क्योंकि हम उसे इतनी रकम दे ही नहीं सकते थे। हमें उसे जाने देना पड़ा और ये आखिरी बार था जब हमने उसे देखा।

मगर मैं उसके बारे में बाद में भी सोचता रहा, और इस बारे में भी कि सौ साल पहले, या पिछले युद्ध के भी पहले की परिस्थितियां कितनी दुरूह थीं, जब नौकरियां मिलनी ही मुश्किल थीं। और तो और उस दौर में एल्बर्ट आइंस्टाइन जैसे जीनियस भी नौकरी की तलाश कर रहे थे। अपना कॉलेज खत्म करने के बाद, आइंस्टाइन, अपने ही कॉलेज में एक लैक्चरर की नौकरी ढूंढ रहे थे। आप मानें या न माने, मगर वो कॉलेज उन्हें नौकरी पर रखने के लिए तैयार नहीं था।


उस समय एक लैक्चरर का वेतन, एक क्लर्क के बराबर ही था।

जब आइंस्टाइन से कहा गया कि उनके पास सही योग्यता नहीं है, तो वो एक पेटेंट क्लर्क बन गए। वो स्विस कंपनियों और नए आविष्कारकों द्वारा फ़ाइल किए पेटेंट की परख करने लगे। इस के बावजूद उन्हें इतनी आर्थिक तंगी थी कि उन्हें ट्यूशन करनी पड़ती थीं। मगर पेटेंट ऑफ़िस की इस नौकरी में उनके पास समय काफ़ी बच जाता था। जिससे एक ही महीने में उन्होंने सापेक्षता के सिद्धांत, और दूसरे चार पेपर रिसर्च जर्नल में प्रकाशित कर दिए। इनपर शुरुआत में तो ज़्यादा लोगों का ध्यान नहीं गया, मगर फिर इसके बाद जल्द ही वो प्रसिद्ध हो गए। पर ये तब तक संभव नहीं हुआ जब तक वो नोबेल पुरस्कार नहीं जीत गए। जिसके बाद ही उन्हें इतना पैसा मिल पाया कि वो अपनी रिसर्च जारी रख सकें।

इसी दौरान - इंग्लिश चैनल के पार आंइस्टाइन की ही तरह, बर्टांड रसल भी केंब्रिज, इंग्लैंड में लेक्चरर की नौकरी के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन्हें भी नौकरी नहीं मिल रही थी। रसल एक गणितज्ञ और दार्शनिक थे। ये प्रतिभा का एक अनोखा मेल था। मगर केंब्रिज में उन्हें नौकरी नहीं मिल रही थी क्योंकि उनकी निजी ज़िंदगी की घटनाएं लोगों को स्वीकार्य नहीं थी। इस वजह से रसल अमेरिका चले गए। यहां उनकी ‘ख्याति’ उनसे पहले नहीं पहुंच पाई थी पर इसके बावजूद यहां भी उन्हें उपयुक्त नौकरी के लिए बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। वो अस्थाई रूप से, एक कॉलेज से दूसरे कॉलेज में तर्कशास्त्र और गणित के लेक्चर देते हुए घूमते रहे। इन कोशिशों के बावजूद उन्हें भयंकर आर्थिक परेशानी झेलनी पड़ी। एक समय तो वो इतनी तंगी से गुज़र रहे थे कि उन्हें ट्राम के किराए के पैसे भी उधार लेने पड़े और उनके जूते भी घिसे हुए थे। बर्ट्रांड रसल वही शख्स थे, जिनके दादा ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रह चुके थे, और जो खुद हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स के सदस्य और रॉयल सोसाइटी के फैलो भी थे।

रसल ने फिर वो किया, जो उन जैसे शख्स करते हैं - जिनके पास आइडिया तो होते हैं, मगर पैसे नहीं। उन्होंने लगातार किताबें लिखनी शुरु कर दीं, एक गणितज्ञ या दार्शिनिक के तौर पर नहीं, मगर शादी और नैतिकता जैसे विषयों पर, जिनपर उनका अधिकार था। इन्हीं में से एक किताब पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला।

स्टॉकहोम में नोबेल समारोह के दौरान, बर्ट्रांड रसल स्वीडन के राजा से मिले, जिन्होंने जानना चाहा कि रसल को एक अच्छी नौकरी पाने में इतनी दिक्कत क्यों हुई। रसल का जवाब था कि वो इसका कारण नहीं जानते। विडंबना ये है कि रसल कभी भी प्रोफ़ेसर नहीं बन पाए, हालांकि उनकी लिखी किताबें दूसरे प्रोफ़ेसर पढ़ाते थे।

आइंस्टाइन और रसल के दौर से ले कर अब तक वक्त काफ़ी बदला है, मगर शायद उतना नहीं जितना आप सोचते हैं। एक इंजीनियर के तौर पर मेरी पहली नौकरी - जो कि लंदन की एक इंजिनियरिंग फ़र्म में थी - से मुझे, पाउंड-300 सालाना, या रु-4000 सालाना, की नौकरी के लिए राज़ी होना पड़ा, जो कि आइंस्टाइन के वेतन से ज़्यादा था। आई.टी. इंडस्ट्री में आज एक नया व्यक्ति भी नोबेल पुरस्कार विजेताओं से ज़्यादा कमाता है। मगर फिर यही जीवन है!


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