अर्थव्यवस्था के लिहाज से सुस्ती होती है और मंदी भी होती है। यहां तक सब कुछ जानने का दावा करने वाले अर्थशास्त्री भी दोनों में अंतर नहीं बता सकते। लेकिन मेरे पास एक सरल परिभाषा है। जब आपके पड़ोसी की नौकरी चली जाती है तो यह सुस्ती है और जब आप नौकरी गवां दें तो यह मंदी है।
हमने आखिरी विश्व युद्ध से ठीक पहले मंदी का लंबा दौर देखा है। हालांकि भारत में हम इसके बारे में अधिक नहीं जानते हैं। उस समय बहुत कम लोगों ने नौकरी गवांई थी क्योंकि उस समय बड़े पैमाने पर नौकरियां ही नहीं थीं।
उस समय बहुत कम इंडस्ट्रीज थीं । कुछ टेक्सटाइल मिल थीं ज्यादातर बांबे और अहमदाबाद में थीं। और कुछ चीनी मिलें थीं और कोलकाता में जूट मिलें थीं। हमारी सही मायने में सबसे बड़ी इंडस्ट्री खेती थी और उसकी हालात भी बहुत खराब थी।
मेरे परिवार को ज्यादा मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा क्योंकि मेरे पिता और उनके भाई सरकारी नौकरी में थे। ये सब लोग मिल कर हर माह 100 रुपए घर लाते थे। हमारे गांव में उस समय 100 रुपए बड़ी चीज थी।
सब कुछ बहुत सस्ता था। आप तीन या चार हजार नारियल बेच कर परिवार चलाने के लिए साल भर के खर्च का इंतजाम कर सकते थे। हालांकि उस समय ऐसा करना आसान नहीं था। उस बर्मा से आने वाला बहुत अच्छी क्वालिटी का चावल 5 रुपए मन था। और आप 10 पाउंड जावा चीनी एक रुपए में खरीद सकते थे।
सबकुछ बाहर से आता था। आलू इटली से आता था। गेहूं जर्मनी से और मूंगफली अफ्रीका से। मुझे याद है ओलिव ऑयल पुर्तगाल से खरीदा जाता था और सिरका फ्रांस से। ज्यादातर बनाई जाने वाली चीजें इंग्लैंड की बनी होती थीं। इसमें ऊनी कपड़े, बल्ब और फाउंटेन पेन भी था। ये सभी चीजें हजारों मील दूर से आती थीं लेकिन बेहद सस्ती थीं।
हमारी जरूरतें बहुत कम थीं। बांबे में लोग चाल में रहते थे। एक फ्लोर पर 10 या 20 परिवार। सभी एक कमरे में और बाथरूम साझा करते थे। और बहुत से लोग बिना बिजली के रहते थे। मैं अपने अंकल के कमरे के बाहर बरामदे में बैठता था और पढ़ाई करता था।
नौकरियां बहुत कम थीं और जब मेरे एक दोस्त को ऑफिस सहायक- वास्तव में चपरासी की नौकरी मिली थी तो हमने एक ईरानी रेस्टोरेंट में पार्टी की। और पहली बार मैंने आईसक्रीम खाई जो सिर्फ दो आना में मिली। मेरा दोस्त उस दिन अच्छे मूड में था। उसकी सैलरी 25 रुपए प्रति माह थी। और हमने साफ्ट ड्रिक के साथ केक का आनंद उठाया। हम चारों का बिल एक रुपए से थोड़ा ही ज्यादा था। और हमें लगा कि हम किसी दावत में शामिल हुए हैं।
इसके बाद विश्व युद्ध शुरू हो गया और चीजें बदलने लगी। लेकिन यह बदलाव खराब नहीं था जैसा कि हम सोच रहे थे। आश्चर्य जनक तौर पर चीजें बेहतर होनी शुरू हईं। अचानक बड़े पैमाने पर नगदी दिखने लगी और नए सरकारी ऑफिसों में हजारों नौकरियां आने लगीं। मुश्किल से घर से निकलने वाली लड़कियां भी नए ऑफिस में नौकरी के लिए तैयार थीं और पहली बार हमने लड़कियों को चाय की दुकानों पर और सिनेमा हाल में देखा। वह भी भाइयों और पिता के बिना। यह सामाजिक क्रांति की शुरूआत थी। और यह अब भी जारी है।
आखिरी विश्व युद्ध ने भारत और भारतीयों का चेहरा बदल दिया। लोग अधिक निडर बन गए और पहली बार उनके पास खर्च करने के लिए पैसा था। चाल जो सालों तक खाली रहतीं थी अचानक भरनी शुरू हो गईं और मैंने बरामदे में अपनी जगह गवां दी। लेकिन पहली बार मैं नाश्ते में कभी कभी ऑमलेट ले सकता था यह कभी आईसक्रीम खा सकता था।
हम मंदी के दौर में बच्चे थे, हालांकि हम सबको इसके बारे में कुछ पता नहीं था। विश्व युद्ध ने मंदी को खत्म कर दिया और इसकी वजह से ब्रिटिश साम्राज्य घुटनों पर गया। विश्व युद्ध खत्म होने के दो साल बाद हम एक आजाद देश थे। कौन कहता है कि मंदी आपके लिए खराब है ?