इकॉनोलॉजी

महंगाई लाती है समृद्धि

देश की आजादी के बाद से ही महंगाई लगातार बढ़ी है लेकिन यह अपने साथ बड़े पैमाने पर ग्रोथ भी लाई है

महंगाई लाती है समृद्धि

महंगाई को आम तौर पर बड़े नुकसान वाली चीज समझा जाता है। सरकारें और अर्थशास्‍त्री इससे डरे रहते हैं। लेकिन क्‍या यह उतनी ही खतरनाक है जितना उसे समझा जाता है ?

आखिरी विश्‍व युद्ध से पहले महंगाई जैसी किसी चीज का नाम ही नहीं था। वास्‍तव में भारत सहित पूरी दुनिया भयानक मंदी के दौर से गुजर रही थी। मैं 1930 के दशक में छात्र था और अपने घर से दूर 20-30 रुपए में एक माह में गुजारा करता था। खाना और दूसरी चीजें काफी सस्‍ती थीं। बांबे जैसे शहर में एक थाली 20 पैसे या इससे कम में आती थी। एक आना में ट्राम में आपको बांबे में एक किनारे से दूसरे किनारे तक ले जाती थी। मेरे जैसे छात्रा इरानी रेस्‍टोरेंट में एक कप चाय के लिए आधा आना चुकाते थे।


उस समय जमाना काफी सस्‍ता था। एक क्‍लर्क 25 रुपए महीना पाता था और पोस्‍टमैन को 20 रुपए मिलते थे। दुर्गा खोटे के पति बांबे म्‍युनिसिपिलिटी में सीनियर क्‍लर्क थे और उनकी सैलरी 125 रुपए महीना थी। कलेक्‍टर ऑफिस में एक चपरासी महीने के अंत में 10 रुपए घर ले जाता था, जिससे वह पूरा परिवार पालता था। कुक 5 रुपए महीने में मिल जाता था और प्राइमरी स्‍कूल के टीचर को 10 रुपए मिलते थे।थे। हमारे अपने गांव में टीचर को सिर्फ 3 रुपए मिलते थे। इसके अलावा उसे महीने में 20 नारियल मिलते थे।

कीमतों में जब उछाल आया तो उस समय पहली बार महंगाई का नाम सुना गया। इसके बाद मजदूरी और सैलरी में भी इजाफा हुआ। मेरे एक दोस्‍त को कॉलेज से निकलने पर हथियार बनाने वाली फैक्‍ट्री में केमिस्‍ट की जॉब मिली और उसने जॉब मिलने की खुशी में पार्टी दी। उसकी पहली सैलरी 75 रुपए थी।

विश्‍व युद्ध के अंत में कीमतें दोगुनी हो गईं। लेकिन कीमतें तब भी नियत्रण में थीं। अब हमें एक कप चाय के लिए एक आना देना पड़ता था लेकिन मैं एक कप चाय अपने दोस्‍त के साथ साझा करता था इसलिए यह हमें आधा आना ही पड़ता था। हम तब भी आना में बात करते थे और 10 रुपए का नोट बहुत कम देखने को मिलता था। विश्‍व युद्ध खत्‍म होने और खास तौर पर देश की आजादी के बाद चीजें तेजी से बदलनी शुरू हुईं।

सैलरी बढ़ गई और कीमतें भी। इसके बाद आप भरोसा करें या न करें महंगाई साल दर साल सालना औसत 10 से 12 फीसदी की दर से बढ़ीं। 1950 से लेकर पिछले 60 सालों में ऐसा हुआ। इसका मतलब यह हुआ कि कीमतें हर छह या सात साल में दोगुनी हो गईं। कीमतें 200 से 300 फीसदी तक बढ़ गईं। यह एक तरह से महंगाई का दंड था लेकिन हमारे अर्थशास्‍त्री और हमारे योजनाकार ने इसे भुला दिया।


महंगाई को लेकर किताबी नियमों के हिसाब से अब तक हमें कंगाल हो जाना चाहिए था और गुफाओं में रहते हुए पत्तियां और जड़े खाकर गुजारा करना चाहिए था। इसके बजाए ऐसा लगता है कि महंगाई हमारे लिए बरबादी का सबब न होकर आर्शीवाद की तरह है। आप से किसी भी तरह से देखें। जो लोग पहले चाल में रहते थे वे अब दो बेडरूम वाले अपार्टमेंट में रह रहे हैं। बहुत से लोगों के पास एअरकंडीशन वाले बेडरूम हैं। जो लोग बस से यात्रा करते थे उनके पास अब मारुति कार है। कारें पहले की तुलना में काफी महंगी है और यही हाल घरों का है लेकिन यह अब भी मांग के अनुसार उपलब्‍ध नहीं है।

ऐसा लगता है कि चीजें जितनी ज्‍यादा महंगी हो जाती है उतने ही अधिक लोग उसे खरीदना चाहते हैं। एक बार में बांबे में ताज होटेल में रुका था। इसके लिए मैंने एक दिन का 32 रुपया चुकाया था। इसमें खाना और नाश्‍ता भी शामिल था। आज ताज में एक रूम एक दिन के लिए 20,000 रुपए में मिलता है और आपको एक सप्‍ताह पहले एडवांस में बुकिंग करानी होती है। यहां तक कि कॉलेज से निकलने वाले लड़के वाले लड़कियां कम से कम 50,000 रुपए महीना कमाते हैं। यह विश्‍व युद्ध से पहले वायसराय की सैलरी का दोगुना है। अगर यह महंगाई है तो महंगाई और बढ़ने दीजिए। अगर महंगाई ग्रोथ के साथ चलती है तो ग्रोथ भी महंगाई के साथ चलती है।

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