Anand Kumar
नवंबर 2023 में लॉन्च होने वाले 10 IPO में, अब तक भारत के इन्वेस्टर्स ने ₹5.41 लाख करोड़ के निवेश के लिए आवेदन दिए हैं. दरअसल, बैंक, IPO एप्लीकेशन के पैसे को ASBA (Application Supported by Blocked Amount) के तौर पर देखते हैं इसलिए ये नंबर असली हैं न कि कागज़ के टुकड़े पर लिखा कोई आंकड़ा. आप कह सकते हैं कि जो पैसा महीने की शुरुआत में सेलो और होन्सा के लिए कमिट किया गया था, वही टाटा टेक और दूसरे इशू के लिए बाद में इस्तेमाल हुआ होगा. हो सकता है ऐसा हो, पर अगर आप सिर्फ़ उन्हीं IPO को गिनें, जो 23 और 24 नवंबर (IREDA, टाटा टेक, गंगाधर ऑयल, फ़ेडबैंक फ़ाइनेंशियल और फ़्लेयर) में एक साथ आए थे, तब भी एप्लीकेशन का आकंड़ा ₹3.6 लाख करोड़ बैठता है.
इसके उलट, अक्तूबर 2023 तक पिछले छह महीने के दौरान SIP में मासिक एवरेज इनफ़्लो ₹15,585 करोड़ रहा है. तो, इन पांच IPO के लिए मिले आवेदन से जुड़ी रकम ही क़रीब दो साल (23 महीने और कुछ ज़्यादा) के SIP इनफ़्लो के बराबर है.
ये प्रभावित करता है, अलबत्ता नकारात्मक तरीक़े से. हालांकि भारत में SIP कल्चर काफ़ी आगे निकल आया है - 2016-17 में हर महीने का इनफ़्लो ₹3,000 करोड़ की रेंज में हुआ करता था. मगर, SIP निवेश और IPO में दिलचस्पी के बीच का अंतर दिखाता है कि लगातार चलने वाली, अनुमान आधारित और स्थिर पूंजी बनाने के बजाए, एक आम इक्विटी निवेशक की दिलचस्पी तेज़ी से पैसा बनाने और अटकलें लगाने में कहीं ज़्यादा है. आपने सोशल मीडिया की मीम देखी होंगी, जिनमें IPO से जुड़े उत्साह को लेकर कहा गया है, 'खेलो इंडिया खेलो' - अब आपको इस पर हंसी आए या नहीं, मगर ये जुमला इस IPO पर लोगों के मूड को बड़ी अच्छी तरह कैप्चर करता है.
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असलियत ये है कि IPO तुरंत फ़ायदा पाने का मौक़ा दे सकते हैं - जिसके लिए ज़्यादातर सट्टेबाज़ निवेश करते हैं - मगर ये काफ़ी रिस्की भी होते हैं. वहीं, क्वालिटी वाले म्यूचुअल फ़ंड्स में SIP का बहुत कम उतार-चढ़ाव के साथ स्थिरता से लॉन्ग-टर्म रिटर्न पैदा करने का एक मज़बूत ट्रैक रिकॉर्ड होता है. डेटा बताता है कि अब भी बहुत से भारतीय निवेशकों ने भविष्य के हॉट IPO पर जुए के मुक़ाबले अनुशासित निवेश की ताक़त पूरी तरह नहीं समझी है.
जैसा कि हम सभी जानते हैं, IPO बड़ी संख्या में आते हैं. जब कुछ IPO सफल होते हैं, तो और ज़्यादा प्रमोटर अपनी क़िस्मत आज़माना शुरू कर देते हैं. इसका नतीजा होता है क्वालिटी में तेज़ गिरावट और लिस्टिंग के साथ डूबने वाले शेयरों में पैसे का ज़्यादा से ज़्यादा हिस्सा लगाने पर इस दौड़ का ख़त्म होना. रिटेल इन्वेस्टर को IPO से पूरी तरह बचना चाहिए, फिर चाहे IPO पेश करने वाली कंपनी बिज़नस मज़बूत ही क्यों न लगे. किसी भी स्टॉक निवेश का मुख्य तर्क कंपनी का फ़ाइनेंशियल ट्रैक रिकॉर्ड और उसकी भविष्य की संभावनाएं होनी चाहिए - एक IPO इस दायरे से बाहर होता है. हालांकि, IPO प्रक्रिया अपने आप में औसत निवेशक के सामने मुश्किलों को खड़ी कर देती है.
लिस्टिड शेयरों को ख़रीदने के उलट, IPO में सेलर (कंपनी और प्रमोटरों) और बायर के बीच किसी गंभीर क़िस्म की जानकारियों के लेनदेन का अभाव होता है. भारत में सालों से, IPO को रिटेल निवेशकों के लिए किसी न किसी तरह से फ़ायदेमंद माना जाता रहा है. लेकिन असलियत ये है कि IPO में आम पब्लिक के बजाय बेचने वालों का ज़्यादा फ़ायदा होता है. रेग्युलेटर भले ही इस खेल को संतुलित करने की कोशिश करें, लेकिन रिटेल ग्राहक तब भी क़मज़ोर धरातल पर ही रहेंगे.
क्यों? क्योंकि IPO कंपनियों के पास जांच करने के लिए कोई पब्लिक ट्रैक रिकॉर्ड नहीं है. प्रमोटर की पेशकश से पहले कंपनी की छवि को चमकाने और एक सुंदर कहानी गढ़ने में कई महीने बिताए जाते हैं. जल्दबाज़ी में संकलित किए गए फ़ाइनेंशियल विवरण, और किसी लिस्टिड फ़र्म की बरसों के दौरान फ़ाइल की गई सार्वजनिक जांच दो अलग दिशाओं की बात है. प्रमोटर अपनी हिस्सेदारी को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाने के लिए ऑफ़र प्राइस तय करता है, जिसे वैल्युएशन पर आधारित दैनिक बाज़ार की आम सहमति के माध्यम से नहीं खोजा जाता है.
IPO किसी भीतरी सूत्र का खेल दिखाते हैं. रिटेल निवेशक, नियमों या दूसरे खिलाड़ी को जाने बिना ही खेल के मैदान में उतर आते हैं - जिससे दांव में नुक़सान होना क़रीब-क़रीब तय हो जाता है. आपके पैसे के बढ़ने की सबसे अच्छी संभावना स्थापित ट्रैक रिकॉर्ड वाले लिस्टिड शेयरों से जुड़ने में है. कोई भी आने वाला हॉट IPO शायद ही आपके पैसे के लिए सही जगह हो.
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