Anand Kumar
एक कोट/मीम इंटरनेट पर कुछ समय से चक्कर लगा रहा है: "संपन्नता पाने के लिए पैसे छापना ठीक वैसा ही है जैसे ज्ञान के लिए डिग्री प्रिंट करना." इस बात को कई तरीक़े से कहा जा रहा है, पर मुझे ये वाला तरीक़ा सबसे ज़्यादा पसंद है. हाल ही में ये बात ज़्यादा तात्कालिकता पा गई है और उसकी वजह है अमेरिकी सरकार का ग़ज़ब का क़र्ज़. पिछले महीने इसमें कुछ 600 बिलियन डॉलर और जुड़े गए. ये देश हर 45-60 दिनों में एक ट्रिलियन डॉलर क़र्ज़ ले लेता है. कुल 26 ट्रिलियन के GDP में 33 ट्रिलियन का क़र्ज़ है. एक बात इस स्थिति को और भी ख़राब कर रही है कि ये क़र्ज़ ऐतिहासिक तौर पर ऊंची-ब्याज दरों के समय पर जुड़ रहा है, जिससे एक दुश्चक्र बन रहा है.
मैं कोई मैक्रो-इकोनॉमिस्ट नहीं हूं; इस विषय को लेकर मेरी कोई विशेषज्ञता नहीं है. हालांकि, ये साफ़ है कि तथाकथित एक्सपर्ट्स में से भी कुछ लोग इस स्थिति से चौंकने के साथ-साथ इसे नज़रअंदाज़ भी करते रहते हैं. ऐसा शायद ही कोई मिले जो इस स्थिति को लेकर आशावादी हो.
आप पूछ सकते हैं कि भारत में, हम लोग तो यहां इस पेज पर निवेश पर बात करने आए हैं और हमारे मतलब की बात तो डोमेस्टिक लेवल की है, तो हमारा इस सब से क्या लेना-देना है. आपके इस सवाल का जवाब है, 'काफ़ी कुछ'. ग्लोबल इकोनॉमिक्स एक दूसरे से इस तरह जुड़ी है कि एक देश के समंदर में उठने वाली लहरें दूसरे देश में महसूस की जाती हैं, और जो कुछ अमेरिका में हो रहा है वो किसी लहर से बड़ी बात है. ग्लोबल फ़ाइनेंशियल मार्केट में अपने बड़े साइज़ के कारण अमेरिका में उठने वाली लहर, दूसरी जगहों के लिए बड़ी सुनामी बन जाती है. जैसा कि कहा जाता है, अमेरिका को छींक आती है तो दुनिया को ज़ुकाम हो जाता है. इसमें ये भी जोड़ा जा सकता है कि 'जब अमेरिका को ज़ुकाम होता है, तो बाक़ी की दुनिया को फ़्लू लग सकता है.'
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इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि बढ़ते हुए अमेरिकी क़र्ज़ का असर और ऐतिहासिक स्तर पर बढ़ी हुई ब्याज दरें, ग्लोबल फ़ाइनेंशियल सिस्टम पर बड़ा असर डाल सकती हैं. जहां हमारे लिए भारत में चीज़ें फ़िलहाल अच्छी चल रही हैं, वहीं अगर भारत से बाहर मुश्किलें बढ़ती हैं, तो ये हम पर कई तरह से बुरा असर कर सकती हैं. सबसे बड़ी बात है कि अमेरिका की ऊंची ब्याज दरों का असर हो सकता है कि ग्लोबल फ़ाइनेंशियल इन्वेस्टर को अमेरिका के अपने निवेश पर दूसरे देशों के मुक़ाबले बेहतर रिटर्न मिलने लगे. इससे निवेशक अपना पैसा दूसरे देशों से बाहर निकालने लगेंगे, जिससे स्टॉक मार्केट की वैल्यू में गिरावट आ जाएगी और करंसी कमज़ोर हो जाएंगी. क्या हमें ऐसा होता हुआ दिखाई दे रहा है? शायद. डॉलर की वैल्यू ग्लोबल ट्रेड को प्रत्यक्ष और परोक्ष, दोनों तरह से काफ़ी प्रभावित करती है.
उतने ही अहम अमेरिका के इकोनॉमिक इंडीकेटर हैं, जो ग्लोबल इकोनॉमिक सेंटिमेंट की दिशा तय करते हैं. अगर उनका नज़रिया निराशा वाला है, तो दुनिया भर के निवेशकों का भरोसा कम हो सकता है, जिससे निवेश में दुविधा बढ़ सकती है और दुनिया भर की इकोनॉमिक ग्रोथ में कमी आने की संभावना ज़्यादा हो सकती है. इससे भी बड़ी बात है कि हम इतने बड़े स्तर का जिओपॉलिटिकल क्राइसिस देख रहे हैं, जो कई दशकों में दिखाई नहीं दिया है. इसके अलावा, ऐसा भी लगता है कि इस जिओपॉलिटिकल क्राइसिस में शामिल लोग इसे जल्दी सुलझाने में कोई असल दिलचस्पी लेते नहीं दिखाई दे रहे हैं. हर कोई ये उम्मीद कर रहा है कि ख़ुद से ज़्यादा दूसरे का नुक़सान हो जाए. अंतरराष्ट्रीय संबंधों को क़ायम रखने का तरीक़ा परिस्थितियों को उनकी आख़िरी हद तक पहुंचा देने का लगता है.
तो, हमारा ज़्यादातर फ़ोकस घरेलू निवेशों पर होना चाहिए. हालांकि, बड़ी ग्लोबल पिक्चर को समझना भी ज़रूरी है. क्योंकि हो सकता है कुछ बार ऐसा किया जा सके, पर कुछ भी वैक्यूम में नहीं रहता. और ये उसका समय भी नहीं है. ग्लोबल इकोनॉमिक्स का आपस में जुड़े हुए तंत्र का मतलब है, दुनिया के एक हिस्से में होने वाला बड़ा पॉलिसी शिफ़्ट या इकोनॉमिक शिफ़्ट किसी दूसरी जगह असर डाल सकता है और डालता भी है. ये समय सतर्क रहने का है, और चाहे आप इस समय बेस्ट-परफ़ॉर्म करने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था का आनंद ले रहे हैं, पर क्षितिज पर घुमड़ते बादलों पर नज़र बनाए रखिए.
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