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2015 के अंत में CNN ने एक हेडलाइन चलाई थी, "पायलट की ग़लती से एयर-एशिया जावा सागर में दुर्घटनाग्रस्त हुआ". दुर्घटना के एक साल बाद, जांचकर्ताओं ने पता लगाया कि एयर-एशिया QZ8501 के दुर्घटनाग्रस्त होने का कारण क्या था. विमान के रडर ट्रैवल लिमिटर (RTL) में कई बार ख़राबी आई थी, जिसके कारण अंततः ऑटो-पायलट को अलग होना पड़ा. इस वजह से पायलटों को विमान का कंट्रोल अपने हाथ में लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसका नतीजा ये हुआ कि कैप्टन और को-पायलट के बीच ग़लतफ़हमी हो गई. सीधे शब्दों में कहें तो चालक दल ऐसी स्थिति से निपटने के लिए प्रशिक्षित नहीं था.
विमानन सुरक्षा के आंकड़े बताते हैं कि पिछले दो दशकों में, 1,800 से ज़्यादा हवाई यात्रियों और चालक दल ने अपनी जान इसलिए गंवाई है क्योंकि पायलटों ने पूरी तरह से काम कर रहे विमान पर नियंत्रण खो दिया था. असल में, अब ये हवाई दुर्घटनाओं की एक स्थापित श्रेणी बन गई है. इससे पहले, 1970 या 80 के दशक तक, आमतौर पर हवाई दुर्घटनाएं विमान की किसी न किसी ख़राबी के कारण होती थीं. जैसे-जैसे विमानों की विश्वसनीयता और उड़ान की मशीनी सहायता बेहतर हुई है, पायलट की ग़लतियां सामने आने लगी हैं.
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अमेरिकी एविएशन रेग्युलेटर FAA ने हाल ही में इस बात पर पांच साल की अपनी स्टडी पूरी की है कि ऐसा क्यों हो रहा है. स्टडी का नतीजा कहता है कि बहुत ज़्यादा ऑटोमैटिक विमानों के कारण ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जहां पायलटों को पहले की तुलना में अपने हाथ में कंट्रोल लेने या मैन्युअल तरीक़े से उड़ान भरने की आदत कम है. जब कुछ ग़लत होता है, तो वे स्थिति का कंट्रोल अपने हाथ में लेने के बजाए ऑटोपायलट को संभालने पर ध्यान देने लगते हैं. FAA का कहना है कि पायलटों का अपने कौशल पर कम भरोसा कम होता जा है.
बेशक़, एयरलाइन पायलट एक आम से बदलाव की सिर्फ़ एक मिसाल भर हैं. गणित के छात्र जो कैलकुलेटर के बिना काम नहीं कर सकते, उनसे लेकर ऐसे ड्राइवर तक, जिन्हें नहीं पता कि जब वे एक्सीलेटर दबाते हैं या गियरशैफ़्ट घुमाते हैं तो कार के अंदर क्या होता है, ज़्यादा से ज़्यादा लोग उन चीज़ों के बारे में कम और कम समझते हैं जिनका वे इस्तेमाल करते हैं. ये बात तो बहुत पुरानी हो गई जब टूटी हुई फ़ैन-बेल्ट बदलना एंबेसडर कार का सफ़र करते हुए रोज़ की बात होती था.
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मुझे उम्मीद है कि अब स्पष्ट हो गया होगा कि इन सबका आपके निवेश से क्या लेना-देना है. निवेश के लिए म्यूचुअल फ़ंड्स किसी ऑटो-पायलट सिस्टम जैसे हैं. सिस्टम आपको वहां ले जाता है और आप बस अपनी मंज़िल तय करते हैं - सिवाय तब, जब ऐसा नहीं हो पाता. हालांकि, समस्या ये है कि बहुत से निवेशकों को पता ही नहीं कि इसकी भीतरी मशीनरी काम कैसे करती है. आपको ये समझने की ज़रूरत है कि फ़ंड कैसे काम करते हैं. इसलिए नहीं कि एक दिन आपको किसी म्यूचुअल फ़ंड को मैनेज करना पड़ सकता है, बल्कि इसलिए कि आप एक सही फ़ंड चुन सकें, एक सही पोर्टफ़ोलियो बना सकें, और अपने निवेश पर नज़र रखें सकें ताकि कुछ गड़बड़ न हो.
मैं आपको निवेशकों द्वारा की जाने वाली एक आम ग़लती का एक सरल उदाहरण देता हूं. वे अलग-अलग फ़ंड के हालिया रिटर्न देखते हैं और सबसे ज़्यादा रिटर्न देने वाले फ़ंड में निवेश कर देते हैं. आमतौर पर, ऐसा करने वाले निवेशक 'एक्स फ़ंड 20 प्रतिशत देता है, लेकिन वाई फ़ंड 25 प्रतिशत देता है' जैसे वाक्य का इस्तेमाल करते हैं. यहां समस्या 'देता है' की है. वे इक्विटी म्यूचुअल फ़ंड के बारे में उसी तरह सोचते हैं जैसे बैंक फ़िक्स्ड डिपॉज़िट या किसी दूसरे तयशुदा रिटर्न देने वाले निवेश के बारे में बात करते हैं. पिछला प्रदर्शन, भविष्य में भी उसी तरह के रिटर्न देने का वादा नहीं है. यही मामला उन निवेशकों का भी है जो हमें किसी फ़ंड की रेटिंग गिराए जाने पर आरोप लगाते हुए लिखते हैं. उनकी आम शिकायत होती है कि "मैंने इस फ़ंड में निवेश किया क्योंकि वैल्यू रिसर्च ने इसे फ़ाइव स्टार दिए थे लेकिन अब आपने दो स्टार हटा दिए हैं." हालांकि, रेटिंग फ़ंड के प्रदर्शन पर आधारित होती है और प्रदर्शन में बदलाव होने पर बदल भी सकती है. सबसे बड़ी समस्या शायद NAV और डिविडेंड को न समझना है. अभी भी, ज़्यादातर निवेशक सोचते हैं कि NAV स्टॉक की क़ीमत जैसा है और फ़ंड डिविडेंड कॉर्पोरेट डिविडेंड जैसे.
इन समस्याओं का जवाब आसान है. एक म्यूचुअल फ़ंड एक ऑटो-पायलट की तरह हो सकता है, लेकिन आपको ये सीखना चाहिए कि ये क्या करता है और कैसे करता है. और वैल्यू रिसर्च की पत्रिकाएं और वेबसाइट ये सीखने-समझने का सबसे अच्छा तरीक़ा है.
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