लोग अक्सर ये समझते हैं कि किसी भी कंपनी का शेयर प्राइस उसके बारे में बहुत कुछ बताता है. उदाहरण के लिए, कई रिटेल निवेशक पेनी स्टॉक ख़रीदते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये सस्ते होते हैं या इससे वे ज़्यादा शेयर ख़रीद सकते हैं. लेकिन क्या शेयर प्राइस से किसी कंपनी की वास्तविक क़ीमत का पता चलता है? आइए जानते हैं.
पहली ग़लतफ़हमी: शेयर प्राइस से कंपनी के साइज़ का पता चलता है
कई निवेशक मानते हैं कि शेयर प्राइस से कंपनी के सही साइज़ का पता चलता है. हम इस ग़लतफ़हमी को मिटाने के लिए दो बड़ी भारतीय कंपनियों की तुलना करेंगे: रिलायंस इंडस्ट्रीज (सबसे बड़ा भारतीय समूह) और MRF (जिसके एक शेयर का प्राइस सबसे ज़्यादा है).
रिलायंस इंडस्ट्रीज और MRF के शेयर वर्तमान में क्रमशः ₹2,351 और ₹1,09,000 के लेवल पर कामकाज कर रहे हैं, जबकि रिलायंस का मार्केट कैप MRF के मार्केट कैप से लगभग 35 गुना ज़्यादा है. मार्केट कैप मतलब किसी भी कंपनी की कुल वैल्यू या वो रक़म है जो किसी निवेशक को उस कंपनी के 100 प्रतिशत शेयर ख़रीदने के लिए चुकानी पड़ती है.
इन दोनों कंपनियों के शेयर प्राइस में बड़ा अंतर इनके द्वारा जारी किए गए शेयरों की संख्या की वजह से है. वर्तमान में रिलायंस द्वारा जारी किए गए यानी आउटस्टैंडिंग शेयरों की संख्या MRF के शेयरों से ज़्यादा है. यही कारण है कि रिलायंस का मार्केट कैप MRF से ज़्यादा है.
दूसरी ग़लतफ़हमी: शेयर प्राइस से पता चलता है कि कोई कंपनी सस्ती है या महंगी
अगर कोई व्यक्ति टू-व्हीलर मार्केट की दो प्रमुख कंपनियों - बजाज ऑटो और TVS मोटर - के शेयर प्राइस की तुलना करें तो उसे लगेगा कि बजाज ऑटो ज़्यादा महंगी कंपनी है. लेकिन ये जानने के लिए कि कोई स्टॉक महंगा है या नहीं, निवेशकों को केवल शेयर प्राइस के बजाय प्राइस-टू-अर्निंग (P/E) और प्राइस-टू-बुक वैल्यू (P/B) जैसे वैल्यूएशन मेट्रिक्स पर ग़ौर करना चाहिए.
वैल्युएशन मेट्रिक्स
बजाज ऑटो के साथ तुलना करें तो पता चलता है कि TVS मोटर कंपनी का शेयर महंगे वैल्युएशन पर ट्रेड होता है.
जैसा कि हम टेबल में देख सकते हैं, बजाज ऑटो की शेयर क़ीमत TVS मोटर से ज़्यादा है, जबकि वैल्युएशन के आधार पर TVS मोटर ज़्यादा महंगा है.
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तीसरी ग़लतफ़हमी: बोनस इश्यू और स्टॉक स्प्लिट से शेयरहोल्डर वैल्यू बढ़ती है
कई निवेशकों के बीच ये आम धारणा है कि बोनस इश्यू और स्टॉक स्प्लिट से कंपनी का मार्केट कैप बढ़ता है, लेकिन ये बात सच्चाई से परे है. उदाहरण के लिए, अगर किसी कंपनी का शेयर प्राइस ₹100 है और उसने 1,000 शेयर जारी किए हुए हैं, तो उसका मार्केट कैप ₹1,00,000 होगा. अगर ये कंपनी 1:1 के बोनस की घोषणा करती है, तो वो निवेशक के पास मौज़ूद प्रत्येक शेयर पर एक शेयर भी जारी करती है. अगर कंपनी द्वारा जारी किए गए शेयरों की संख्या 2,000 तक पहुंच जाती है, तो उसका शेयर प्राइस आधा यानी ₹50 हो जाएगा. लेकिन कंपनी का मार्केट कैप ₹1,00,000 ही रहेगा. यही फॉर्मूला स्टॉक स्प्लिट पर भी लागू होता है.
चौथी ग़लतफ़हमी: मार्केट वैल्यू का बढ़ना और शेयर प्राइस का बढ़ना एक ही चीज़ है
चूंकि मार्केट कैप जानने के लिए शेयर प्राइस को जारी किए गए शेयरों की संख्या से गुणा किया जाता है, इसलिए इसका मतलब ये नहीं है कि मार्केट कैप में बदलाव केवल शेयर प्राइस में हुए बदलाव के कारण ही होता है. किसी कंपनी के शेयरों की संख्या बढ़ने या घटने के पीछे अन्य कारण भी हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, बिज़नेस ग्रोथ के लिए अतिरिक्त फंड्स जुटाने (या किसी अन्य कारण से) के लिए नए शेयर जारी करने से शेयरों की संख्या बढ़ सकती है और शेयर बायबैक के कारण ये संख्या घट सकती है. हमने उन कंपनियों की सूची तैयार की है जिनके शेयर प्राइस और मार्केट कैप की वृद्धि में पिछले 10 वर्षों में महत्वपूर्ण अंतर देखा गया.
वैल्यू क्रिएशन
कंपनी के लिए या निवेशकों के लिए?
कंपनी | 10 वर्षों में शेयर प्राइस में वृद्धि (%) | 10 वर्षों में मार्केट कैप में वृद्धि (%) | 10 वर्षों में जारी किए गए शेयरों में वृद्धि (%) |
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पंजाब नेशनल बैंक | -16 | 424 | 2941 |
यूको बैंक | -30 | 1013 | 1078 |
यूनियन बैंक ऑफ इंडिया | -12 | 988 | 1076 |
सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया | -3 | 702 | 543 |
इंडियन ओवरसीज बैंक | -6 | 1824 | 1430 |
25 सितंबर, 2023 तक
दिलचस्प बात ये है कि इस सूची में ज़्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक हैं क्योंकि सरकार ने पिछले 10 वर्षों के दौरान इन बैंकों को बड़े पैमाने पर फंड्स दिए हैं. ज़्यादातर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को भारी संख्या में बैड लोन का सामना करना पड़ा, जिसके कारण उन्हें घाटा हुआ और उनके कैपिटल रेशियो में गिरावट दर्ज़ हुई. कैपिटल रेशियो में सुधार करने के लिए इन कंपनियों को कम कीमतों पर फ़ंड जुटाना पड़ा, जिससे उनके शेयरों की संख्या में वृद्धि हुई.
इसलिए, अगली बार ध्यान रखें कि अगर किसी कंपनी का मैनेजमेंट कंपनी की वैल्यू बढ़ने का दावा करता है, तो उसी अवधि में शेयर प्राइस के लिहाज से रिटर्न की जांच ज़रूर करें. हो सकता है कि मैनेजमेंट शेयरहोल्डर वैल्यू को सर्वोच्च प्राथमिकता न देता हो.
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