Anand Kumar
कुछ दिन पहले, स्मॉल-कैप इक्विटी इन्वेस्टिंग को एक झटका लगा. स्मॉल-कैप तेज़ी से गिरे और फिर दो दिनों के अंदर इस गिरावट से क़रीब-क़रीब पूरी तरह से उबर भी गए. ऐसा क्यों हुआ? कोई नहीं जानता, मगर जैसा कि आजकल होता है, बहुत से ऐसे लोग थे जो इसके कारण जानने के दावे ठोक रहे थे. ऐसी कई थ्योरी हवाओं में तैर रही थीं कि केंद्रीय मंत्री गडकरी के ऑटो इंडस्ट्री से डीज़ल का इस्तेमाल ख़त्म करने की बात कहना इसकी वजह है और कुछ दूसरे लोग यक़ीन दिलाने में जुटे थे कि विदेशी ब्रोकरेज में बड़े स्तर पर फ़्रंट-रनिंग करते हुए कोई पकड़ा गया है. कुल मिला कर ऐसा लगा कि हर ख़बर के तार स्मॉल-कैप क्रैश से जुड़े हुए हैं.
मगर, एक-आध दिन में जैसे ही नॉर्मल प्रोग्रामिंग वापस पटरी पर लौटी, सब कुछ भुला दिया गया. असल में, ये कहना ज़्यादा सही होगा कि ये पूरा एपिसोड ही नॉर्मल प्रोग्रामिंग का हिस्सा था. लोगों का स्मॉल-कैप के उतार-चढ़ाव की शिकायत करना भी नॉर्मल ही है. इसके कारणों के बारे में हम बाद में बात कर सकते हैं, मगर असल में तो यही होना भी चाहिए. चलिए सारे पूर्वाग्रह छोड़ते हैं और देखते हैं कि यहां चल क्या रहा है.
स्मॉल-कैप इन्वेस्टिंग, स्टॉक इन्वेस्टिंग का सार है. हो सकता है कि आपको ये दावा उकसाने वाला लगे, लेकिन मैं दृढ़ता से इसपर विश्वास करता हूं. हालांकि, मैं इंफ़ोसिस या इंटरग्लोब जैसे बड़े शेयरों में निवेश को असल इक्विटी इन्वेस्टिंग से कमतर कहकर ख़ारिज नहीं कर रहा हूं. निश्चित ही ये भी इक्विटी इन्वेस्टिंग हैं. पर, किसी बिज़नस का मालिक होने और उसके बढ़ने की यात्रा को सही मायने में महसूस करने के लिए, किसी स्मॉल-कैप स्टॉक में निवेश करना चाहिए, और फिर इसे मिड-कैप, और उसके बाद एक बड़े बिज़नस में बदलते हुए देखना चाहिए.
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आइए स्मॉल-कैप की इस दोधारी तलवार, यानी, अस्थिरता की बात करते हैं. दरअसल ये, इन स्टॉक्स को हाई-रिस्क और हाई-रिवॉर्ड दोनों बनाती है. मन ही मन हम सभी मानते हैं कि शेयरों का उतार-चढ़ाव वाला स्वभाव ही उन्हें निवेश लायक़ बनाता है. जहां कुछ स्टॉक दूसरों से बेहतर प्रदर्शन करते हैं, वहीं कुछ दूसरे अपने अतीत से कमज़ोर प्रदर्शन करते हैं, उनका ये अजीब स्वभाव ही उन्हें जोख़िम भरा तो बनाता है, मगर निवेश के लिए आकर्षक भी बनाता है. असल रिवॉर्ड समझदारी से निवेश करने में छुपा है, ख़ासतौर पर ऐसे शेयरों के निवेश में, जो आने वाले वक़्त में ग्रोथ के लिए तैयार हैं.
रिस्क और रिटर्न के बीच के संबंध को स्वीकार करना ज़रूरी है. हम जानते हैं कि रिस्क-फ़्री इन्वेस्टमेंट से बड़े रिटर्न नहीं मिला करते. मिसाल के तौर पर, फ़िक्स्ड डिपॉज़िट को ले लीजिए; अगर आप सबसे अच्छे बैंक फ़िक्स्ड डिपॉज़िट को चुनने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं, तो चाहे किसी भी बैंक को क्यों न चुनें, आप बहुत ज़्यादा पैसा नहीं बना पाएंगे. और तो और, अगर मैं बेस्ट रिस्क-फ़्री डिपॉज़िट चुनने के बारे में यहां लिख रहा होता, तो उसे पढ़ने शायद ही कोई आता.
असल में छोटी कंपनियों के भविष्य को लेकर बहुत ज़्यादा अनिश्चितता होती है. इनमें से कई ऐसी हैं जिनकी कभी कोई अहमियत नहीं होगी. समय के साथ इनमें से कई असफल और ग़ायब हो जाएंगी. यहां तक कि सबसे नेक इरादों वाली भी, यहां तक कि सबसे शानदार रिसर्च रिसोर्स वाली कंपनियों का हश्र भी यही हो सकता है, और यहां तक कि सबसे अच्छे विश्लेषक भी बड़ी कंपनियों के मुक़ाबले छोटी कंपनियों को लेकर भारी ग़लतियां कर सकते हैं.
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अजीब ये है कि स्मॉल-कैप इन्वेस्टमेंट में अस्थिरता की बात कहने वाले असल में बड़े भयभीत हैं. मगर, आप अपना स्मॉल-कैप अच्छे से चुनने में अगर थोड़े भी गंभीर होते हैं, तो आपको बड़ा रिटर्न मिलने की गुंजाइश काफ़ी ज़्यादा है. बरसों से वैल्यू रिसर्च के इक्विटी अनालेसिस और रेकमेंडेशन करते हुए, मेरा व्यक्तिगत और पेशेवर अनुभव यही रहा है. दरअसल, आपको स्मॉल-कैप निवेश करते हुए विनम्र होना होगा, ये मानना होगा कि आपसे कुछ ग़लतियां होंगी, और हां, आपको निवेश के मूल सिद्धांतों पर पूरे जतन से डटे रहना होगा. समझना होगा कि आप निवेश क्यों कर रहे हैं, कंपनियों और सेक्टरों में डाइवर्सिटी लाने की ज़रूरत क्यों है, सारा निवेश एक ही जगह करने से क्यों बचना चाहिए, और अच्छी वैल्यू पर निवेश ख़रीदने का फ़ायदा क्या है. जब बात स्मॉल-कैप की होती है तब ये सभी बातें दोगुनी महत्वपूर्ण हो जाती हैं. और जब हम ऐसा करते हैं, तो रिस्क काफ़ी कम हो जाते हैं और रिवॉर्ड कहीं ज़्यादा रहते हैं. हालांकि, आमतौर पर निवेशक स्मॉल-कैप में इस सोच और रवैये के साथ नहीं उतरते हैं.
मुश्किल ये है कि ज़्यादातर निवेशकों का स्मॉल-कैप इन्वेस्टमेंट को लेकर ऐसा रवैया होता है, जो अंततः उन्हें 'कहानी ख़रीदो, वास्तविकता बेचो' (Buy the story, sell the reality) के स्तर पर ले आता है. क्योंकि कहानियां हमेशा ही असलियत से ज़्यादा लुभावनी होती हैं, इसलिए उन्हें जो करना चाहिए उसके ठीक उलट, वो ऊंची क़ीमत पर ख़रीदो और कम क़ीमत पर बेचो पर उतर आते हैं. निवेशकों को उतार-चढ़ाव से डरना नहीं चाहिए. स्मॉल-कैप में अक्सर प्रमोटर की हिस्सेदारी ज़्यादा और फ़्लोटिंग स्टॉक कम होते हैं. एक ही घटना, लार्ज-कैप के मुक़ाबले इनकी क़ीमत पर बड़ा असर डाल सकती है. मगर ये सब सामान्य है - एक स्मॉल-कैप निवेशक इस बात को जानता है. अगर लार्ज-कैप में 10 प्रतिशत की गिरावट हो, तो ये काफ़ी बड़ी बात होती है - तब ये निश्चित ही गंभीर मसलों की ओर इशारा करेगी. मगर, इसी तरह की गिरावट स्मॉल-कैप में हो, तो ये वैसी ही बात नहीं है. इस सब को, निवेशकों को आत्मसात करने की ज़रूरत है.
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