Anand Kumar
क्या आपने बॉब डिलन (Bob Dylan) का वो गाना सुना है जो इन्वेस्टिंग के बुनियादी सिद्धांतों की बात करता है? नहीं? तो आपको कभी नहीं लगा कि बॉब डिलन जैसा कलाकार फ़ाइनेंशियल मार्केट की परवाह करने वालों में से होगा? आप ग़लत हैं. उनका एक गीत है (https://bit.ly/ttaac) जिसकी लाइन है, "For the loser now, will be later to win" यानी, जो अभी हारा हुआ है, वो बाद में जीतेगा ही. इसी गाने की आगे की लाइन है, "And the first one now, will later be last" इसका मतलब हुआ, अभी जो आगे है, वो बाद में आख़िर में होगा. ये principle of reversion to mean, या प्रत्यावर्तन का सिद्धांत है जिसे इस गीत में बड़ी सहजता से समझाया गया है.
तो रिवर्शन टू मीन है क्या? मैं इसकी डिक्शनरी की परिभाषा दे सकता था, मगर क्योंकि मैं समय के साथ चलने की कोशिश में हूं, इसलिए यहां GPT4 का जवाब दे रहा हूं: फ़ाइनांस में, "रिवर्शन टू द मीन" का मतलब है, वो अंदाज़ा, जिसमें समय के साथ किसी एसेट का दाम अपनी औसत की तरफ़ बढ़ता है. अगर एसेट का दाम औसत से ऊपर है, तो भविष्य में इसके कम होने की संभावना होती है, और अगर ये औसत से कम रहा है, तो इसके बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है.
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जहां ये परिभाषा स्टॉक को लेकर है, वहीं ये सभी तरह के फ़ाइनेंशियल एसेट पर लागू होती है, और इसमें पूरा मार्केट शामिल है. इसीलिए ये अक्लमंदी नहीं कि मार्केट के ऑल-टाइम हाई होने पर या मार्केट के किसी हिस्से में उछाल की वजह से अति-उत्साह से भर जाया जाए. इसी तरह, जब मार्केट तेज़ी से गिरते हैं तब भी घबराने का कोई मतलब नहीं. हालांकि, मुश्किल भी इसलिए खड़ी होती है क्योंकि निवेशक ये बात नहीं समझते और मान बैठते हैं कि मौजूदा ट्रेंड हमेशा चलता रहेगा. और हां, इस विश्वास में, उन्हें ऐसे लोगों का साथ और मदद मिलती है जो उनसे मुनाफ़ा बनाते हैं.
मार्केट का जो सेगमेंट अच्छा कर रहा है उसी में निवेश करने का लालच आसानी से रिसर्च का भ्रम दे सकता है. प्रोफ़ेशनल लोग (ब्रोकर, एडवाइज़र, फ़ंड कंपनियां) और आम इन्वेस्टर भी, किसी इंडस्ट्री में किए अपने इन्वेस्टमेंट को ये कह कर सही साबित करने की कोशिश कर सकते हैं कि ये इंडस्ट्री दूसरों से बेहतर प्रदर्शन कर रही है, ये मान सकते हैं कि ऐसा अच्छा प्रदर्शन आगे भी जारी रहेगा. अगर ये एक्साइटमेंट ठीक-ठाक वक़्त तक जारी रहता है, तो ये एक आम समझदारी हो जाती है—जिसे 'हर कोई' जानता है. 1999 के दौर में यही बात टेक स्टॉक्स के साथ हुई, और हम सभी जानते हैं कि उस तेज़ी के बाद क्या हुआ. 2005-07 के दौरान, यही बात कुछ ऐसी इंडस्ट्रीज़ में भी हुई जिन्हें हम आमतौर पर (या ज़बरदस्ती?) इंफ़्रास्ट्रक्चर इंडस्ट्री कहते हैं. 2001 में इसका हश्र भी एक बड़े संकट में हुआ.
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यही बात मार्केट के किसी एक हिस्से या सेगमेंट में भी होती है, जैसे स्मॉल-कैप. स्मॉल कैप ख़ासतौर पर ऐसी स्थितियों से प्रभावित होते हैं क्योंकि इसमें औसत से ऊपर या नीचे भटक जाने की गुंजाइश कहीं ज़्यादा होती है. जब ये अच्छा करता है, तो बहुत अच्छा करता है. निवेशकों को इस बात का भरोसा दिलाना आसान हो जाता है (या उनका ख़ुद को भरोसा दिलाना आसान हो जाता है) कि इसका कोई ख़ास मतलब है जबकि ऐसा कुछ नहीं होता. जब कोई सेक्टर या सेगमेंट कुछ लंबे समय तक औसत से बेहतर प्रदर्शन करता है, तो उसके पीछे बहुत से लोग लग जाते हैं. फ़ंड कंपनियां फ़ंड लॉन्च कर देती हैं या मौजूदा स्कीमों को ही आगे बढ़ाना शुरू कर देती हैं. इन्वेस्टमेंट एडवाइज़र उसके बारे में बात करने लग जाते हैं, अगर ट्रेंड बना रहता है तो उन्हें शॉर्ट-टर्म में मुनाफ़ा दिखने लगता है. कुछ समय के लिए, ट्रेंड बना भी रहता है. ऐसे मौक़े पर, इन्वेस्टमेंट को डाइवर्सिफ़ाई करना घाटे का सौदा लगने लगता है. समझने वाली बात ये है कि ऐसा क़रीब-क़रीब हमेशा ही होता है. क्योंकि कोई एक सेक्टर या कोई दूसरा, हमेशा ही औसत से अच्छा करता रहेगा, ऐसे में डाइवर्सिफ़ाइड पोर्टफ़ोलियो हमेशा ही एक बेवकूफ़ी नज़र आती है.
और फिर, जैसा कि इन्वेस्टमेंट एनेलिस्ट बॉब डिलन बताते हैं, औसत हावी होने लगता है, और फिर सेगमेंट औसत से नीचे प्रदर्शन करने लगता है, और फिर रिटर्न वापस औसत पर लौट जाते हैं. जो लोग इस पार्टी में देर से शामिल होते हैं उन्हें नकारात्मक नतीजे मिलते हैं. इस औसत पर वापसी का नतीजा अक्सर, अब तक के बेस्ट सेगमेंट के लुढ़क कर सबसे नीचे आ जाने में होता है और नुक़सान का कारण बनता है, फिर चाहे बाक़ी का मार्केट बूम करता रहे. और साल दर साल, दशक दर दशक से ऐसा ही होता आ रहा है.
आपके लिए सही तरीक़ा होगा कि आप अपना निवेश लगातार जारी रखें, निवेश को डाइवर्सिफ़ाइ करें, और इसे SIP के ज़रिए करें. ये मुश्किल नहीं है, मगर हाइप को नज़रअंदाज़ करने में मेहनत तो लगती है.
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