अनुभवी निवेशक भी कभी-कभी ये ग़लती कर बैठते हैं कि कंपनी का साइज़ और अर्निंग ही उस कंपनी की ग्रोथ की संभावनाओं को बयान करने के लिए काफ़ी हैं, हालांकि ये सच नहीं. क्यों, इस सवाल का जवाब देने वाली एक क़िताब हमें हाल ही में मिली. भरत शाह की लिखी इस क़िताब का नाम है "Of Long Term Value and Wealth Creation from Equity Investing".
शाह का कहना है कि निवेशकों को सेक्टर में मौजूद ग्रोथ के मौक़ों पर भी उतना ही ग़ौर करना चाहिए. इसे और सरलता से समझाने के लिए, वो तालाब में मछली की मिसाल देते हुए एक कंपनी और उस कंपनी के सेक्टर को एक साथ रखते हैं. यहां मछली कंपनी है, और तालाब सेक्टर.
- बड़े तालाब में बड़ी मछली: यानी इंडस्ट्री की लार्ज-कैप कंपनी, जिसकी ग्रोथ के लिए काफ़ी गुंजाइश हो और प्रतिस्पर्धा का स्तर बहुत कम हो. आमतौर पर ये कंपनियां वेल्थ बनाने के लिए शानदार होती हैं और इनमें रिस्क भी बहुत कम होता है. इसकी बड़ी मिसाल है, मारुति सुज़ूकी. कंपनी चार-पहिया वाहनों के सेगमेंट में मार्केट लीडर है. आप तो जानते ही हैं कि भारत में इस सेक्टर में ग्रोथ की काफ़ी गुंजाइश है.
- छोटे तालाब में छोटी मछली: इस तरह के हालात किसी कंपनी के लिए सबसे ख़राब होते हैं. यानी कंपनी छोटी है और इंडस्ट्री में क़ारोबार बढ़ाने की गुंजाइश भी ज़्यादा नहीं है. इसके अलावा इंडस्ट्री में कड़ी प्रतिस्पर्धा है. मिसाल के तौर पर, छोटी एन्सिलियरी कंपनियां मुख्य रूप से पेट्रोल और डीज़ल इंजन की कारों के लिए काम करती हैं. इन छोटी कंपनियों को न सिर्फ़ काफ़ी बड़ी कंपनियों के सामने ख़ुद को बनाए रखना होता है, बल्कि इनको हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक क़ारोबार के आने से तेज़ी से घट रहे मार्केट से भी जूझना पड़ रहा है.
- छोटे तालाब में बड़ी मछली: ये कंपनियां आमतौर पर एक बहुत बड़ी इंडस्ट्री में अपनी ग्रोथ साइकल के बाद स्टेज में मार्केट लीडर बनती हैं. ये कंपनियां नियमित डिविडेंड देती हैं क्योंकि मुनाफ़े को री-इन्वेस्ट करने के लिए कोई बेहतर विकल्प नहीं होता. मिसाल के तौर पर, मार्केट लीडर होने के बावजूद कोलगेट पामोलिव को अपना राजस्व और अर्निंग बढ़ाने के लिए संघर्ष करना पड़ा. इसकी वजह ये है कि ग्रोथ के मौक़े ही नहीं हैं.
- बड़े तालाब में छोटी मछली: ये कंपनियां अपनी ग्रोथ साइकल के शुरुआती स्टेज में हैं. जो ग्रोथ की मज़बूत संभावनाओं वाली इंडस्ट्री में काम कर रही हैं. ये पहले परिदृश्य के समान लगता है लेकिन इन कंपनियों में निवेश करना रिस्की होता है क्योंकि आमतौर पर ये कंपनियां नई होती हैं और ये जिस सेक्टर में काम करती है वहां प्रतिस्पर्धा बहुत तगड़ी होती है. इसका एक सटीक उदाहरण, भारतीय IT इंडस्ट्री है. यहां ग्रोथ के बेशुमार मौक़े हैं और बहुत सी छोटी IT कंपनियां काम कर रही हैं. हालांकि शीर्ष पर जाने के लिए इनको TCS, इनफ़ोसिस, विप्रो जैसी कंपनियों से टक्कर लेनी पड़ेगी.
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निवेशकों को क्या करना चाहिए
हम ये नहीं कह रहे हैं कि कंपनी का अपने काम में कुशल होना और बिज़नस मॉडल शानदार होना मायने नहीं रखता. कोई इंडस्ट्री या सेक्टर कितना भी संपन्न क्यों न हो अगर कंपनी अपने काम में पारंगत नहीं है और एक क़ाबिल मैनेजमेंट उसे नहीं चला रहा है, तो कंपनी अपने निवेशकों के लिए पूंजी नहीं बना सकती.
अगर आप कंपनी के साइज़, ग्रोथ के मौकों, और मैनेजमेंट पर ग़ौर कर चुके हैं, तो इसका ये मतलब नहीं कि आप इसके आधार पर कंपनी में निवेश का फैसला कर लें. हमेशा याद रखें, वैल्यूएशन भी एक अहम फैक्टर है. इसके अलावा, हमेशा मैक्रो फ़ैक्टर भी चेक करें क्योंकि ये इंडस्ट्री और उसकी ग्रोथ की संभावनाओं के रास्ते में रोड़े अटका सकता है.
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