"यहां ज्ञान न बांटे, यहां सब ज्ञानी हैं।" हिंदी का ये मज़ेदार टी-शर्ट स्लोगन, ज़रूर किसी कॉलेज कैंटीन का नोटिस रहा होगा। निवेश से ज़्यादा, शायद ही किसी और बात पर ये बात इतनी सटीक बैठे। कई दशकों तक सोचने-समझने, सुनने-सुनाने के बाद भी मैं अचरज में रहता हूं कि जिन गूढ़ आर्थिक कारणों पर निवेशकों को कोई ध्यान ही नहीं देना चाहिए उनपर इतनी बातें होती हैं। हर रोज़ विश्लेषक, अर्थशास्त्री, निवेश प्रबंधक, टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर आते हैं और अंतहीन ज्ञान बांटा जाता है। ये बातें जिन विषयों पर होती हैं उनमें ब्याज दरें, राजकोषीय स्थिति, महंगाई दर, डेमोग्राफ़ी में बदलाव, तेल के दाम, ट्रेड फ़्लो, मुद्रा नियंत्रण और इसके अलावा भी कई चीज़ों पर एक ही क़िस्म का राग अलापे चले जाते हैं।
अपेक्षा की जाती है कि ये सब मेरे आपके निवेश के फ़ैसलों को प्रभावित करने वाली जानकारियां होंगी। सच तो ये है कि जहां तक असल निवेश के फ़ैसलों का सवाल है कि हम कौन से स्टॉक ख़रीदेंगे और कौन से नहीं, उस लिहाज़ से ये सब मेरे और आप के लिए क़रीब-क़रीब पूरी तरह से बेकार बातें हैं। असल में, बांटा जाने वाला ये सारा का सारा ज्ञान न सिर्फ़ बेकार है, बल्कि बेकार से बदतर है-एक निवेशक के तौर पर ये असल में आपको नुक़सान पहुंचाता है। ये भ्रमित करके आपको नुक़सान पहुंचाता है। स्टॉक निवेश से पूंजी खड़ी करने में जो बात असल में मायने रखती है, उस 'X-फ़ैक्टर' से आपका ध्यान परे करके ऐसा करता है।
अब सवाल है कि ये 'X-फ़ैक्टर' है क्या? ये दुनिया का सबसे सरल और सीधा-सादा आइडिया है: अपनी आर्थिक ज़रूरतों और सीमाओं को समझिए और अपनी पसंद के मुताबिक़, आपकी ज़रूरतों पर खरे उतरने वाले अच्छे स्टॉक और अच्छे फ़ंड की पहचान करने पर काम कीजिए। निवेश, निवेशों के बारे में होता है। असल निवेश की बातचीत में ऐसे बड़े-बड़े ज्ञान के फ़ैक्टर नहीं होने चाहिए, जिनमें से कोई भी आपके कंट्रोल में नहीं है। ये बातें इन चीज़ों के बारे में होनी चाहिए, जैसे - रेवेन्यू, मार्जिन, प्रॉफ़िट, मार्केट शेयर, प्रोडक्ट पाइपलाइन, मैनेजमेंट क्वालिटी और दूसरी ऐसी चीज़ें, जो असल में किसी कंपनी के कमाने का सामर्थ्य दिखाती हों यानि सीधे-सीधे निवेशकों के पूंजी कमाने की बात हो। निवेशक का काम आर्थिक भविष्यवाणियां करना नहीं, सही निवेश पहचानना है। निवेश एक बॉटम-अप एक्टिविटी है, न कि टॉप डाउन।
ऐसा कहने के अच्छे कारण भी हैं। क्योंकि जिन बातों पर ज्ञान दिया जाता है उनमें से कोई भी फ़ैक्टर आपके कंट्रोल में नहीं होता। ब्याज दरों को लेकर RBI या फ़ेडरल बैंक क्या कर रहा है या कौन सी वैश्विक आपदा आने वाली है, ये बातें आपके क़ाबू से बाहर है। आम समझ कहती है कि आपका फ़ोकस उस पर होना चाहिए जिसे आप कंट्रोल कर सकें। आप कब निवेश करते हैं, किसमें निवेश करते हैं, किस दाम पर निवेश करते हैं और आप कोई निवेश करते भी हैं या नहीं, ये वो बातें है जिनपर आपका कंट्रोल है। आपका कंट्रोल इस बात पर है कि आप उत्साह से भर कर किसी बबल में निवेश करते हैं या आप धीरे-धीरे सिलसिलेवार तरीक़े से निवेश करते हैं। जिस पैसे को आप निवेश करने वाले हैं उस पैसे पर आपका पर भी आपका पूरा कंट्रोल होता है।
तो, ज्ञान पर फ़ोकस करने के बजाए कंपनियों पर फ़ोकस करना अच्छा है। क्योंकि कंपनियों पर तथ्यों के आधार पर भरोसा किया जाता है, वहीं ज्ञान पर फ़ोकस का आधार है लोगों की राय। "मैक्रो लेवल पर बकवास करना कहीं आसान है बजाए माइक्रो लेवल पर बकवास करने के।" बॉटम-अप, टॉप-डाउन से कहीं बेहतर है, ये बात समझाते हुए कही, (ज़ाहिर है!) नसीम निकोलस तालेब ने। दरअसल, जहां बॉटम-अप एक सच्चाई है वहीं टॉप-डाउन कोरी गप्प ही हो सकती है, और आमतौर पर होती भी है। आप माइक्रो-लेवल पर सही स्टॉक और फ़ंड का चुनाव करके, सही फ़ैसले लेते हुए पैसे बनाते हैं।
नोट करें कि मैं ये दावा नहीं कर रहा हूं कि बड़े आर्थिक फ़ैक्टर असर नहीं डालते-वो असर करते हैं। मैं तो ये कह रहा हूं कि इन ज्ञान की बातों को अपने फ़ैसलों में शामिल करने पर, आपको और मुझे, कोई फ़ायदा नहीं होने वाला। ऐसा करने का कोई मतलब ही नहीं है। चलिए बुनियादी बातें दुरुस्त करते हैं, बड़े मसले अपना हल ख़ुद कर तलाश लेंगे। या ऐसा ना भी हो, पर तब भी ये ज़्यादा मायने नहीं रखेगा।
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