एंटरप्राइज वैल्यू (EV) कंपनी में डेट या इक्विटी के जरिए डाली गई सभी कैपिटल की कुल वैल्यू को कहा जाता है। इसे कैलकुलेट करने के लिए इक्विटी की मार्केट वैल्यू और डेट की बुक वैल्यू को जोड़ा जाता है और फिर इससे उपलब्ध कैश की राशि को घटा दिया जाता है। इस तरह से किसी कंपनी की एंटरप्राइज वैल्यू निकलती है।
बाहरी निवेशक द्वारा कंपनी को खरीदने के लिए जरूरी रकम का आकलन करने में एंटरप्राइज वैल्यू एक फायदेमंद मीट्रिक है। एंटरप्राइज वैल्यू कैलकुलेट करते हुए कैश को घटाने की वजह यह है कि कंपनी का अधिग्रहण करने के बाद बाहरी निवेशक की एक्सेस इस कैश तक होगी। अगर एक कदम और आगे जाएं, तो सब्सिडियरीज का अधिग्रहण करने की कुल लागत को जोड़ने के लिए माइनारिटी शेयर होल्डर्स के स्टेक यानी हिस्सेदारी की वैल्यू को शामिल किया जाना चाहिए। एंटरप्राइज वैल्यू का इस्तेमाल अपनी लाईफ साइकल के शुरूआती चरण से गुजर रही कंपनियों या वित्तीय मुश्किलों से गुजर रही मैच्योर कंपनियों की वैल्यूएशन के लिए किया जाना चाहिए। इसकी वजह यह है कि ऐसे हालात में पारंपरिक प्रॉफिट-आधारित मीट्रिक्स का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
एंटरप्राइज वैल्यू की एक नेगेटिव बात यह है कि यह कैपिटल की सही मार्केट वैल्यू पर विचार नहीं करता है और इसलिए यह काफी ऊंचा आंकड़ा दे सकता है।
इस केस पर गौर करें: फ्यूचर ग्रुप
लगातार नुकसान उठाने के बाद, फ्यूचर ग्रुप के प्रमोटर्स ने अपना बिजनेस बेचना रिलायंस ग्रुप को बेचने का फैसला किया। यह डील 24,713 करोड़ रुपए में हुई। इस डील में खरीदारी को कुल डेट जो लेना है वह लगभग 25,000 करोड़ रुपए है। इसका मतलब है कि प्रमोटर्स को उनकी इक्विटी वैल्यू का कोई मुआवजा नहीं मिला।