किसी भी गोल की सफलता के लिए, सही म्यूचुअल फ़ंड का चुनाव अहम है। कुछ फ़ंड अपने रिटर्न को बढ़ाने के लिए इक्विटी या डेट में ज़्यादा अग्रेसिव तरीक़े से निवेश करते हैं। और इस चुनाव का असर उनके रिस्क और फ़ंड के उतार-चढ़ाव पर भी होता है। इसलिए, निवेशकों का चुनाव करते समय सावधानी बरतनी चाहिए। जो फ़ंड, पिछले एक-दो साल से सबसे अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं उनमें उतार-चढ़ाव की संभावना भी ज़्यादा रहती है।
तो, यहां हम कुछ ऐसे ही मापदंडों की एक चैकलिस्ट दे रहे हैं, जो आपको अच्छे फ़ंड का चुनाव करने में मदद करेगा। इस तरह की ज़्यादातर जानकारी आप हमारी वेबसाईट - www.dhanak.com के फ़ंड पेज से पा सकते हैं।
हम मानते हैं कि आपके पोर्टफ़ोलियो के लिए सही फ़ंड के चुनाव में आपकी मदद के लिए ये प्वाइंट्स काफ़ी होंगे:
प्रदर्शन
· जब किसी फ़ंड के प्रदर्शन की बात आती है, एक टाईम पीरियड के दौरान उनमें स्थिरता सबसे महत्वपूर्ण होती है। बहुत बढ़िया रिटर्न की रौ में मत बह जाइएगा, मगर आपको किसी फ़ंड की स्थिरता को कई साल के दौरान देखना चाहिए। ऐसा फ़ंड जो औसत से कुछ बेहतर है, और अपना प्रदर्शन लगातार बनाए हुए है, वो लंबी-अवधि में कहीं बेहतर फ़ंड साबित होगा बजाए उनके जो थोड़े समय और शुरुआत में बहुत ऊंचा रिटर्न देते हैं।
· एक महत्वपूर्ण बात और है कि आप निवेश के लिए सही समय अवधि का चुनाव करें, क्योंकि अलग-अलग तरह के फ़ंड में रिटर्न का सही समय, अलग होता है। इक्विटी के लिए, आपको फ़ंड का प्रदर्शन - पांच साल या सात साल की अवधि में रोलिंग-रिटर्न के आधार पर देखना चाहिए। छोटी अवधि के लिए कोर फ़िक्स-इन्कम-फ़ंड, जैसे - कॉर्पोरेट-बॉंड-फ़ंड के एक से तीन साल के रिटर्न देखने चाहिए। इससे भी कम अवधि में निवेश के लिए लीक्विड फ़ंड में निवेश करना चाहिए, और इसके लिए एक महीने से तीन महीने के रिटर्न को देखना चाहिए।
· ग़ौर करने वाली बात ये है कि आपको अपने आकलन का आधार रोलिंग-रिटर्न को बनाना चाहिए, क्योंकि इसमें फ़ंड्स के रिटर्न की पूरी सीरीज़ को शामिल किया जाता है। दूसरे शब्दों में, बीते कई दिनों में हासिल हुए रिटर्न (बजाए किसी एक समय में) इस में शामिल होते हैं। फ़ंड्स के रिटर्न में लगातार आए बदलावों को शामिल करने से सिर्फ़ हाल की घटनाओं की सीमित जानकारी से पैदा होने वाली ग़लत अवधारणा और क़िस्मत के फ़ैक्टर खत्म हो जाते हैं।
· डेट फ़ंड्स में, बहुत अच्छा परफ़ॉर्मेंस आमतौर पर बड़े रिस्क पर आता है। हमारी सलाह है कि आप ऐसे फ़ंड चुनें, जिनके पोर्टफ़ोलियो में अच्छी क्वालिटी के स्टॉक हों और पोर्टफ़ोलियो डाइवर्सिफ़ाइड हो। साथ फ़ंड्स तभी चुने जाने चाहिए जब इनमें फ़िक्स डिपॉज़िट या छोटी बचत योजनाओं के मुक़ाबले लगातार बेहतर रिटर्न मिले हों। यहां ये बात ग़ौर करने वाली है कि डेट फ़ंड में निवेश का उद्देश्य, ज़्यादा से ज़्यादा रिटर्न कमाने का नहीं, बल्कि अपने निवेश को गिरावट से सुरक्षित रखने का होना चाहिए।
· जहां ऊपर कही गई बात परफ़ॉर्मेंस को आंकने में अहम है, वहीं छोटी अवधि में फ़ंड का परफ़ॉर्मेंस देखने से, आपको फ़ंड के चरित्र का पता चलता है और ये भी कि इस फ़ंड ने मार्केट की अलग-अलग परिस्थितियों में कैसा प्रदर्शन किया है। आपको ऊपर जाते और नीचे गिरते मार्केट के दौर को ध्यान से देखना चाहिए, या फिर इससे सरल तरीक़े से देखने के लिए, एक कैलेंडर-वर्ष में फ़ंड के कई मार्केट साइकल का प्रदर्शन को देखना चाहिए। उदाहरण के लिए, ऐसे फ़ंड भी हैं, जो अपने निवेश स्टाईल के चलते, नीचे जाते मार्केट में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। वो निवेशक जो नीचे गिरते मार्केट में जल्दी घबरा जाते हैं, उनके लिए ये विकल्प बेहतर होगा।
पोर्टफ़ोलियो
इक्विटी फ़ंड के मामले में, आप इन बातों को फ़ॉलो कर सकते हैं:
· इस पर ध्यान देना चाहिए कि मार्केट-कैप के पूरे स्पेक्ट्रम में फ़ंड ने अपने एसेट को कैसे फैलाया है। क्या मिड और स्मॉल कैप में निवेश को लेकर आपका फ़ंड, अपने जैसे दूसरे फ़ंड से ज़्यादा अग्रेसिव है, या फिर कंज़र्वेटिव है?
· आप इस पर ग़ौर करें कि स्टॉक्स का डाइवर्सिफ़िकेशन कितनी अच्छी तरह से किया गया है। इसके लिए ये देखना अच्छा रहेगा कि उन्होंने अपनी टॉप पांच और टॉप दस होल्डिंग में कैसे एलोकेशन किया है। इसके साथ ही, सैक्टर के स्तर पर फ़ंड की संख्या भी चैक कर लीजिए और ये भी पता कर लें कि उनके पास कितने स्टॉक हैं। अगर आप इक्विटी में सिर्फ़ एक या दो फ़ंड में ही निवेश कर रहे हैं, तो आप इन्हीं के दूसरे वेरिएंट्स को न लें ताकि आपका डाइवर्सिफ़िकेशन और बेहतर हो सके।
· दो बातें समझने वाली हैं, पहली - फ़ंड के ग्रोथ स्टाइल को लेकर क्या प्राथमिकताएं हैं (ऐसी कंपनियां जिनमें हाई अर्निंग ग्रोथ है), और दूसरी - फ़ंड का वैल्यू ओरिंटेशन क्या है (स्टॉक जो कि कम वैल्यू के दिखाई देते हैं)। ऐसे फ़ंड जिनका अपने जैसे दूसरे फ़ंड के मुक़ाबले ऊंचा प्राइस-टू-अर्निंग रेशियो है, उनका झुकाव ग्रोथ स्टाईल की तरफ़ होता है, इसके ठीक उलट फ़ंड्स का स्टाईल वैल्यू इन्वेस्टिंग का होता है।
· इससे कोई फ़ंड अच्छा या ख़राब नहीं हो जाता, मगर आपको फ़ंड के रिस्क-रिटर्न प्रोफ़ाईल को लेकर एक नज़रिया मिल जाता है। अलग-अलग फ़ंड मैनेजर, अलग तरह के स्टाईल को सफलता से इस्तेमाल करते हैं। मगर इस अनासेसिस से आपको फ़ंड के मैनेजमेंट के स्टाईल के बारे में कुछ आईडिया लग जाएगा, और आप ये भी समझ जाएंगे कि उनके निवेश का स्टाईल, आपके निवेश के तरीक़े से मेल खाता है या नहीं। इसके अलावा, इससे आपको अलग तरह के स्टाईल और फ़्लेवर के फ़ंड, अपने पोर्टफ़ोलियो में शामिल करने में मदद मिलेगी। उदाहरण के लिए, ये बुरा नहीं होगा कि आपके पोर्टफ़ोलियो में तीन-चार इक्विटी फ़ंड हों जो वैल्यू के स्टाईल में निवेश करते हों, इससे आपके पास स्टाईल की डाइवर्सिटी होगी।
डेट फ़ंड के मामले में, आप इन बातों को फ़ॉलो कर सकते हैं:
· पोर्टफ़ोलियो की क्वालिटी पर ध्यान दें, इसका अंदाज़ा, होल्डिंग की क्रेडिट रेटिंग और उसकी मेच्योरिटी के प्रोफ़ाईल से लगाया जा सकता है। हमारे विचार में, एक अच्छा फ़िक्स-इनकम फ़ंड इनमें से किसी भी पैमाने पर बहुत अग्रेसिव नहीं होना चाहिए।
· फ़ंड के ऐसेट का AA और इससे कम, तथा A+ और इससे कम की रेटिंग के पेपर, आपको बड़े रिस्क की ओर ले जाते हैं। ऐसे फ़ंड में निवेश का विचार करना हमेशा बेहतर है, जिसमें कम से कम 75-80 प्रतिशत पैसा सॉवरिन या टॉप-रेटेड पेपर में लगा हो और वो रेटिंग में बहुत नीचे आने वाले स्टॉक में पैसा नहीं लगाते हों। इसी तरह, हम ऐसे फ़ंड पसंद करते हैं, जो अपनी औसत मैच्योरिटी की रेंज, दो से पांच साल या उसके आसपास रखते हैं। जो फ़ंड इस रेंज को बहुत ज़्यादा खींचते हैं, वो इन्ट्रस्ट-रेट के रिस्क के हिसाब से एक फ़िक्स-इनकम इन्वेस्टर के लिए ज़्यादा उतार-चढ़ाव वाले हो सकते हैं।
· इसमें, आपको इस बात से भी सावधान रहना चाहिए कि बहुत ज़्यादा इन्डिविजुअल बॉन्ड या इशुअर्स पर ही केंद्रित न हों। इसके लिए, आप उनकी टॉप होल्डिंग को चैक करें और टॉप के तीन इश्युअर्स की होल्डिंग और प्रतिशत को भी चैक करें। एक ही जगह पर केंद्रित होने के रिस्क ने हाल ही में कुछ डेट फ़ंड को डिफ़ॉल्ट की स्थिति में ला दिया है, और उनके AUMs को काफ़ी कम कर दिया है। सही मात्रा में डाइवर्सिफ़िकेशन एक फ़ंड को मुश्किल समय में, बिना निवेशकों पर असर डाले, पार करने में मदद करता है।
· साथ ही, डेट फ़ंड के केस में, रिस्क-ओ-मीटर आपका बहुत अच्छा गाईड हो सकता है। आपको उन फ़ंड्स को ले कर सावधान रहना चाहिए जो रिस्क-ओ-मीटर पर अपनी कैटेगरी के दूसरे फ़ंड से अलग पाए जाते हैं। अगर कोई फ़ंड मीटर पर हाई रिस्क नज़र आता है, और उसी कैटेगरी के दूसरे फ़ंड कम रिस्क के हैं, तो इसका मतलब है कि फ़ंड क्रेडिट क्वालिटी या मेच्योरिटी के पैमाने पर, अपने जैसे निवेश करने वालों में ज़्यादा रिस्क का है।
फिर समय के साथ, जैसे-जैसे आप अपने चुने हुए फ़ंड्स को देखते रहते हैं, तो उनमें निवेश के स्टाईल में किसी बड़े फ़र्क़ को ध्यान में रखिए, जैसे - कोई डाइवर्सिफ़ाईड फ़ंड बड़े पैमाने पर, कुछ सीमित होल्डिंग में ही निवेश करना शुरु कर दे, या एक वैल्यू-ओरिएंटेड फ़ंड, अग्रैसिव तरीक़े से हाई वैल्यूएशन स्टॉक में पैसा लगाना शुरु कर दे। आपको इसलिए सावधान रहना चाहिए क्योंकि ये उनके लिए नया क्षेत्र है। स्टाईल में बड़े बदलाव कई बार काम करते हैं और कई बार नहीं भी करते, मगर उससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण ये है कि ये फ़ंड का रिस्क प्रोफ़ाईल बदल देते हैं, और आपने अपना पैसा उनके बदले हुए प्रोफ़ाईल के लिए नहीं लगाया था, तो आपको साधान रहने की ज़रूरत है।
फ़ंड मैनेजर
· आपको ऐसे फ़ंड को प्राथमिकता देनी चाहिए जिसमें एक ही फ़ंड मैनेजर, टॉप की पोज़ीशन पर पिछले कई साल से हो, और इसलिए एक लंबे समय में फ़ंड के प्रदर्शन के लिए ज़िम्मेदार हो। तो, आप फ़ंड मैनेजर की हिस्ट्री चैक कर लें, ये देखने के लिए कि फ़ंड मैनेजर कितनी बार बदला गया है और मौजूदा फ़ंड मैनेजर कितने समय से है।
· देखा जाए तो, नए फ़ंड मैनेजर के साथ फ़ंड, एक नए फ़ंड जैसा ही होता है क्योंकि आपको नए मैनेजर के मैनेजमेंट का स्टाईल नहीं पता होता। पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है जब फ़ंड मैनेजर के बदलने से फ़ंड को मैनेज करने के तरीक़े में बड़े बदलाव आए। हालांकि, याद रखना चाहिए कि ये हमेशा ख़राब हो, ऐसा नहीं है। ऐसे भी केस हैं, जब नए फ़ंड मैनेजर बहुत अच्छा और बड़ा बदलाव लाए। तो, नए फ़ंड मैनेजर के बदलने से फ़ंड मत छोड़ें, बस उसपर ज़्यादा ध्यान देना शुरु कर दें।
· कई बार, एक फ़ंड मैनेजर कई फ़ंड को चलाने के की ज़िम्मेदारी से दबा होतै है, जो कि अच्छी बात नहीं होगी क्योंकि इससे फ़ंड के प्रदर्शन पर असर पड़ सकता है। तो, मौजूदा फ़ंड मैनेजर जिन दूसरे फ़ंड को मैनेज कर रहा है उनकी एक लिस्ट बना लें और उनके AUM की भी, ताकि आप ये चैक कर सकें कि उस पर कितना बोझ है।
एसेट्स अंडर मैनेजमेंट (AUM)
कुछ ऐसी फ़ंड कैटेगरी हैं, जिनकी निवेश स्ट्रैटजी की वजह उनके फ़ंड के साईज़ में तेज़ी से बदलाव, मुश्किल भरा हो सकता है। इसलिए, ऐसे फ़ंड्स को नज़रअंदाज़ ही कर देना चाहिए। इक्विटी के क्षेत्र में, ऐसे AUM जिसमें मिड और स्मॉल कैप फ़ंड हों, उनका तेज़ी से बढ़ना, उनकी अच्छा प्रदर्शन करने की क्षमता को काफ़ी कम कर सकता है। इसके बजाए, कुछ डेट कैटेगरी में अगर AUM में तेज़ी से कमी आती है, तो ये फ़ंड के लिए बड़ी मुश्किल पैदा कर सकता है अगर फ़ंड अपनी होल्डिंग को जल्द नक़द में नहीं बदल सकता। मार्च 2020 में फ़्रैंकलिन में यही हुआ था जिसकी वजह से गड़बड़ हुई।
ख़र्च
फ़ंड का ख़र्च हमेशा से फ़ंड के चुनाव में महत्वपूर्ण रहा है, क्योंकि ज़्यादा ख़र्च का अनुपात लंबी अवधि में आपके रिटर्न का बड़ा हिस्सा ख़त्म कर सकता है। ये बात शायद पहले कभी ये इतना महत्वपूर्ण नहीं रही जितना आज है।
आज जब एक्टिव तरीक़े से चलाए जा रहे इक्विटी फ़ंड के मुक़ाबले, इंडैक्स और डेट फ़ंड को बेहतर प्रदर्शन करने में मुश्किल हो रही है और एक्टिव फ़ंड ऐतिहासिक तौर पर कम रिटर्न दे रहे हैं, तब ख़र्च का अनुपात थोड़ा ही सही पर ज़्यादा रिटर्न पाने में बड़ा रोल अदा करता है। दरअसल, कुछ डेट कैटेगरी में तो, औसत से बेहतर रिटर्न देने वाला फ़ंड और निचले-क्वार्टाइल पर चल रहे फंड के लिए ख़र्च गेम-चेंजर हो सकता है। तो, ख़र्च के अनुपात को नज़रअंदाज़ मत कीजिए। हमारे फ़्रेमवर्क में, हम 1 प्रतिशत से ज़्यादा इक्विटी फ़ंड के लिए अदा करने को अच्छा नहीं मानते और डायरेक्ट प्लान के संदर्भ में, कोर फ़िक्स-इनकम फ़ंड के लिए 30-35 बेसिस प्वाइंट्स से ज़्यादा फ़ंड का ख़र्च सही नहीं समझते।
कुछ और बातें
· इसके अलावा भी कुछ दूसरे फ़ैक्टर्स का ध्यान रखना चाहिए, जो किसी फ़ंड में आपके भरोसे को हिला सकते हैं। जैसे, क्या AMC ऐसे किसी मसले में उलझा है जो आपसे सीधे तौर पर भले ही न जुड़ा हो मगर उसकी साख पर ख़राब असर करने वाला हो? या क्या उसके स्वामित्व में बदलाव हुआ है?
· इसके विपरीत, क्या ऐसे कारण हैं जिनसे आपका भरोसा उस फ़ंड में बढ़ता है? जैसे, फ़िक्स इनकम के मामले में, वो फ़ंड जिनमें उनकी स्कीम में बचत के प्रावधान हैं, बेहतर होते हैं क्योंकि ये मौजूदा निवेशक को उस स्थिति में बेहतर सर्विस दे सकते हैं, जब उसके पोर्टफ़ोलियो के किसी हिस्से में कोई डिफ़ॉल्ट या डाउनग्रेडिंग हो जाए।
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