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Banking Stock Analysis: बैंकिंग स्टॉक कैसे चुनें?

बैंकिंग शेयरों का विश्लेषण करते समय कुछ अहम फ़ैक्टर ध्यान में रखें

Banking Stocks में करना चाहते हैं निवेश, तो ऐसे करें एनालिसिस?

भारतीय शेयर बाज़ार में बैंकों की एक बड़ी हिस्सेदारी है और इसलिए, संभवतः इक्विटी निवेशकों के निवेश पोर्टफ़ोलियो में किसी न किसी रूप में बैंक शामिल होते हैं. कोई निवेशक भले ही म्यूचुअल फ़ंड के ज़रिये निवेश करे या सीधे स्टॉक में, उसके लिए बैंकों या फ़ाइनेंशियल सेक्टर की कंपनियों से बचना मुश्किल है. फ़ाइनेंशियल कंपनियों के लिए भारतीय बाज़ार में आगे बढ़ने के तमाम मौक़े हैं. इसीलिए, बैंकिंग और फ़ाइनेंशियल स्टॉक्स की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है.

हालांकि, FMCG या ऑटो कंपनियों की तुलना में बैंकों का एनालिसिस ख़ासा अलग होता है, जिसके निम्नलिखित कारण हैं.

  • बैंकों के फ़ाइनेंशियल स्टेटमेंट आपके लिए एक ब्लैक होल यानी पहेली साबित हो सकते हैं. बहुत सारे आंकड़े किसी स्पष्ट समझ की तुलना में आपके लिए भ्रम ज़्यादा पैदा कर सकते हैं.
  • नॉन फ़ाइनेंशियल कंपनियों में जहां ग्रॉस मार्जिन, वर्किंग कैपिटल साइकल, डेट टू इक्विटी (debt to equity) जैसे मीट्रिक पर विचार करना अहम क्राइटीरिया है, इनके विपरीत बैंकों के लिए अलग-अलग मीट्रिक होते हैं. बैंक के फ़ाइनेंशियल स्टेटमेंट्स का एनालिसिस करने के लिए, पहले इन मीट्रिक की स्पष्ट समझ होनी चाहिए.

इस स्टोरी में, हमने ऐसे कुछ अहम मीट्रिक्स पर चर्चा की है जो एक इन्वेस्टर के लिए किसी बैंकिंग फ़र्म के बारे में रिसर्च करते समय जानने की ज़रूरत होती है.

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कैपिटल एडिक्वेसी रेशियो

What is Capital adequacy ratio (CAR): ये बैंक की उपलब्ध पूंजी को बैंक द्वारा दिए गए क़र्ज़ों (उनके रिस्क के संदर्भ में आकलन) से डिवाइड करने का तरीक़ा है. CAR का इस्तेमाल डिपॉजिटर्स की सुरक्षा और फ़ाइनेंशिल सिस्टम की स्थिरता और दक्षता को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है. ये वित्तीय संस्थान की अपनी एसेट्स और पूंजी का उपयोग करके अपने देनदारियों को चुकाने की वित्तीय ताकत या क्षमता मापने में मदद करता है. CAR जितना ज़्यादा होगा, बैंक उतना ही बेहतर कैपिटलाइज होगा.

RBI के मानदंडों के अनुसार, भारत के शिड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों को 9 फ़ीसदी का CAR बनाए रखना ज़रूरी है, जबकि देश के पब्लिक सेक्टर के बैंकों को 12 फ़ीसदी का CAR बनाए रखना ज़रूरी है.

मान लीजिए, एक XYZ बैंक के लिए CAR निश्चित तिमाही के दौरान -2.8 फ़ीसदी था. इससे पता चलता है कि XYZ बैंक के पास ख़राब क़र्ज़ों (bad loans) से हुए नुक़सान को सोखने के लिए कोई पूंजी नहीं थी.

ग्रॉस और नेट नॉन परफ़ॉर्मिंग एसेट्स

Gross and net non-performing assets: नॉन परफ़ॉर्मिंग एसेट्स (NPA) से पता चलता है कि बैंक की लोन बुक के कितने हिस्से के लिए चुकाए न जाने के ख़तरा बना हुआ है. यदि 90 दिनों तक ब्याज या मूल राशि की क़िस्त प्राप्त नहीं होती है तो क़र्ज़ नॉन परफ़ॉर्मिंग हो जाता है. एनपीए को आगे ग्रॉस और नेट NPA की कैटेगरी में डाला जाता है.

ग्रॉस NPA (How to calculate gross NPA?) में लोन के मूलधन और ब्याज दोनों भाग शामिल होते हैं, जबकि नेट NPA (What is net NPA in simple terms?) की कैलकुलेशन मुख्य रूप से ग्रॉस NPA से बैंक द्वारा किए गए प्रोविजन को घटाकर की जाती है.

कुछ साल पहले तक पब्लिक सेक्टर के बैंक बैड लोन्स की समस्या से जूझ रहे थे. पब्लिक सेक्टर के सबसे बड़े बैंक भारतीय स्टेट बैंक (SBI) ने फ़ाइनेंशियल ईयर 18 तक अपने बकाया क़र्ज़ों का 11 फ़ीसदी NPA (ग्रॉस NPA) के रूप में दर्ज किया था. हालांकि, बाद के वर्षों में ग्रॉस NPA में ख़ासा सुधार देखने को मिला और फ़ाइनेंशियल ईयर 2024-25 की पहली तिमाही में ये 2.21 फ़ीसदी के स्तर पर आ गया.

प्रोविजन कवरेज रेशियो

What is provisioning coverage ratio: बैंकिंग में, ये एक फ़ैक्ट है कि कुल क़र्ज़ों का कुछ हिस्सा ख़राब होना यानी उनका बैड लोन बनना तय होता है. इसलिए, बैंक अपनी ख़राब एसेट्स के एक निर्धारित प्रतिशत के बराबर धनराशि को अलग रखकर ऐसे बैड लोन्स के लिए प्रोविजन करते हैं. मिसाल के तौर पर, अगर बैड लोन्स की एक ख़ास कैटेगरी के लिए PCR 70 फ़ीसदी है, तो बैंकों ने अपने मुनाफे में से उन ख़राब एसेट्स के 70 फ़ीसदी के बराबर धनराशि अलग रखी है. ऊंचे PCR का मतलब है कि अधिकांश एसेट-क्वालिटी के मुद्दों का ध्यान रखा गया है.

संकटग्रस्त यस बैंक के लिए PCR फ़ाइनेंशियल ईयर 19 तक सिर्फ़ 43.1 फ़ीसदी था, जिससे पता चलता है कि बैंक में एसेट-क्वालिटी की समस्या थी और ये बैड लोन्स के लिए पर्याप्त रूप से प्रोविजन करने में सक्षम नहीं था.

एसेट्स पर रिटर्न

Return on assets: बैंकों के लिए, बॉरोअर्स को दिए गए क़र्ज़ एसेट्स हैं, जबकि डिपॉजिटर्स का पैसा देनदारी है. एसेट्स पर रिटर्न से पता चलता है कि बैंक अपनी कुल एसेट्स के सापेक्ष कितना प्रॉफ़िटेबल है. इसकी कैलकुलेशन कुल एसेट्स से नेट प्रॉफ़िट्स को विभाजित करके की जाती है. दूसरे बैंकों की तुलना में ज़्यादा ROA होने के लिए कई फ़ैक्टर जिम्मेदार हो सकते हैं, जिसमें पर्याप्त अदर इनकम, जोर-शोर से क़र्ज़ देना, ऑपरेशनल इफ़िशिएंसी और दूसरे फ़ैक्टर शामिल हैं.

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कासा रेशियो

CASA Ratio: इसका मतलब है करंट अकाउंट सेविंग अकाउंट. CASA बैंकों द्वारा चालू और बचत खातों में रखे गए डिपॉजिट का प्रतिशत है. बैंक ऐसे खातों पर कम ब्याज देते हैं. CASA रेशिया का ज़्यादा होना बैंक के लिए अच्छा है, क्योंकि इसका मतलब है कि बैंक कुल उधारी दर को कम करने में सक्षम है.

नेट इंटरेस्ट मार्जिन

Net interest margin: जैसा कि नाम से ही जाहिर होता है, ये बॉरोअर्स से मिली इंटरेस्ट इनकम और डिपॉजिटर्स को चुकाए गए इंटरेस्ट के बीच का अंतर है, जो कुल डिपॉजिट के एवज में दिया जाता है. ये एक प्रॉफ़िटेबिलिटी रेशियो है और एक सामान्य कंपनी के ग्रॉस मार्जिन के समान है.

कम कॉस्ट पर पूंजी जुटाने की अपनी क्षमता और लेंडिंग के अच्छे तौर-तरीक़ों के कारण HDFC Bank के पास बैंकिंग सेक्टर में सबसे अच्छे नेट इंटरेस्ट मार्जिन में से एक है. पिछले कुछ वर्षों से फ़ाइनेंशियल ईयर 20 तक HDFC Bank का NIM लगातार 4.3 फ़ीसदी के आसपास रहा है. हालांकि, इसके बाद इसमें गिरावट आई और फ़ाइनेंशियल ईयर 24 में NIM 3.41 फ़ीसदी पर आ गया.

कॉस्ट टू इनकम

What is a good cost to income ratio: बैंक की कुशलता के लिहाज से ये एक अहम रेशियो है. इससे पता चलता है कि बैंक कितनी कुशलता से चलाया जा रहा है. कॉस्ट टू इनकम को बैंक की ऑपरेटिंग इनकम (इंटरेस्ट इनकम और अदर इनकम) द्वारा ऑपरेटिंग एक्सपेंस को डिवाइड करके निकाला जाता है. कॉस्ट टू इनकम और बैंक की प्रॉफ़िटेबिलिटी के बीच एक विपरीत संबंध है. कॉस्ट टू इनकम रेशियो जितना कम होगा, प्रॉफ़िटेबिलिटी उतनी ही बेहतर होगी.

HDFC Bank के लिए, कॉस्ट टू इनकम रेशियो पिछले कुछ वर्षों में लगातार कम बना हुआ है. फ़ाइनेंशियल ईयर 20 में ये 38.6 फ़ीसदी के स्तर पर था, जो फ़ाइनेंशियल ईयर 2024-25 की पहली तिमाही में 40.41 फ़ीसदी के स्तर पर पहुंच गया..

वहीं, इसकी तुलना में SBI का कॉस्ट टू इनकम रेशियो फ़ाइनेंशियल ईयर 2023-24 में 70.45 रहा था.

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