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हम वॉरेन बफ़े की बरसों के अनुभव से सीखने की कोशिश में उनके एक पत्र से कुछ बातें चुन कर आपके लिए लाए हैं. ये ऐसे सबक़ हैं जो हर नए और तजुर्बेकार निवेशक के लिए सोने की खान साबित हो सकते हैं. आइए, उन ग़लतियों को समझें जो आमतौर पर निवेशक करते हैं और नुक़सान उठाते हैं.
ये कहानी 1977 के शेयरधारक के पत्र और एक आर्टिकल "महंगाई कैसे इक्विटी निवेशक को धोखा देती है" को कवर करती है, जिसे बफ़े ने तब फ़ॉर्च्यून मैगज़ीन के लिए लिखा था.
रिकॉर्ड अर्निंग बनाम इक्विटी पर मिले रिटर्न
सबसे पहला सबक़ बफ़े की इस आलोचना में पाया जा सकता है कि कैसे कंपनियां अक्सर अंतर्निहित मामले पर विचार किए बिना "रिकॉर्ड अर्निंग्स" या रिकार्ड कमाई का दावा करती हैं. कई बिज़नस प्रति शेयर हाई इनकम (EPS) हासिल करने का जश्न मनाते हैं जैसे कि ये कोई असाधारण उपलब्धि हो. हालांकि, बफ़े बताते हैं, ये भ्रामक हो सकता है. सिर्फ़ इनकम में बढ़ोतरी करते हुए एक साथ ज़्यादा इक्विटी कैपिटल जोड़ना अच्छे मैनेजमेंट का संकेत नहीं हैं.
उन्होंने एक वैकल्पिक मीट्रिक का सुझाव दिया, "ख़ास मामलों को छोड़कर (उदाहरण, असामान्य डेट-इक्विटी रेशियों वाली कंपनियां या महत्वपूर्ण एसेट्स को अवास्तविक बैलेंस शीट वैल्यू पर रखने वाली कंपनियां), हमारा मानना है कि प्रबंधकीय आर्थिक प्रदर्शन का ज्यादा सही उपाय इक्विटी कैपिटल पर रिटर्न है".
इक्विटी पर रिटर्न (ROE) से पता चलता है कि कोई कंपनी मुनाफ़ा कमाने के लिए अपनी कैपिटल का कितनी कुशलता से इस्तेमाल कर रही है. जिस तरह बचत खाते में कम्पाउंड ब्याज से मुनाफ़ा मिलता है, उसी तरह ज़्यादा इक्विटी जोड़ने से स्वाभाविक तौर से ज़्यादा कमाई हो सकती है. जो बात मायने रखती है वो ये है कि निवेश की गई इक्विटी के अनुपात में कितना मुनाफ़ा कमाया जा रहा है. हेडलाइन अर्निंग के बजाय ROE पर ध्यान देने पर बफ़े का ज़ोर वास्तविक वैल्यू क्रिएशन का पता करने के लिए सतही मीट्रिक से परे देखने का सबक़ है.
अनुकूल बनाम प्रतिकूल परिस्थितियां
बफ़े उन इंडस्ट्री में ऑपरेशन के महत्व पर भी नज़र डालते हैं, जहां प्रतिकूल परिस्थितियों के मुक़ाबले अनुकूल परिस्थितियां ज़्यादा आम हैं. कुछ बिज़नस अनुकूल वातावरण में काम करते हैं, जहां संरचनात्मक फ़ायदे या रुझान उन्हें आगे बढ़ाते हैं. इसके उलट, ऐसी दूसरी इंडस्ट्री हैं लगातार मुश्किलों से जूझ रही हैं. जहां मैनेजमेंट किसी कंपनी की कामयाबी में अहम भूमिका निभाता है, वहीं सही वक़्त पर सही बिज़नस में होना बहुत बड़ा अंतर ला सकता है. निवेशकों को ऐसे बिज़नस तलाशने चाहिए जो अनुकूल आर्थिक, तकनीकी या सामाजिक रुझानों से फायदा उठाते हों, और ख़ुद को ऐसे वातावरण में स्थापित करना चाहिए जो स्वाभाविक रूप से ग्रोथ और मुनाफ़ा दे सकते हों.
महंगाई दर से बचाव के लिए स्टॉक का मिथक
1970 के दशक के दौरान, व्यापक रूप से माना जाता था कि स्टॉक महंगाई के ख़िलाफ़ एक विश्वसनीय बचाव थे. आख़िरकार, स्टॉक प्रोडक्टिव कंपनियों में स्वामित्व का प्रतिनिधित्व करते हैं. ये बॉन्ड के उलट है, जो डॉलर के क्लेम हैं. हालांकि, बफ़े ने ये दिखा कर इस धारणा को चुनौती दी कि महंगाई के माहौल में, इक्विटी का व्यवहार ज़्यादा बॉन्ड की तरह होता है.
अपने फॉर्च्यून आर्टिकल में, बफ़े ने "इक्विटी कूपन" का कॉनसेप्ट को पेश किया. जिस तरह बॉन्ड फ़िक्स्ड ब्याज भुगतान करते हैं, उसी तरह स्टॉक उम्मीद से ज़्यादा फ़िक्स्ड ROE देते हैं. वक़्त के साथ, महंगाई दर के दबावों की परवाह किए बिना, ये रिटर्न काफ़ी स्थिर रहा है. इस "स्टिकी कूपन" के असर का मतलब है कि महंगाई के दौरान, बिज़नस बढ़ती लागतों की भरपाई के लिए हाई रिटर्न पैदा करने के क़ाबिल नहीं नहीं हैं. इसलिए, निवेशकों को ये मानने से सावधान रहना चाहिए कि स्टॉक रखने से वे महंगाई के कारण ख़रीदने की क्षमता में होने वाली कमी से अपने आप ही सुरक्षित हो जाएंगे.
निवेशकों पर महंगाई का बुरा असर
बफ़े ने साफ़ तौर से कहा है कि महंगाई एक "विनाशकारी टैक्स" है जो मार्केट के प्रदर्शन की परवाह किए बिना वास्तविक रिटर्न को खत़्म कर देता है. भले ही शेयर बाज़ार में उछाल आए, लेकिन महंगाई किसी भी वास्तविक मुनाफ़े को खत्म कर सकती है. इसे साफ़ करने के लिए, बफ़े एक विधवा की मिसाल देते हैं, जिसकी बचत पासबुक खाते में है. चाहे हाई टैक्स के कारण हो या ऊंची महंगाई दर के कारण, उसकी ख़रीदने के असल ताक़त ख़त्म हो जाती है.
ऐसी दुनिया में जहां महंगाई दर 7 फीसदी पर चल रही है, वहां 12 फ़ीसदी ROE भी निवेशकों को टैक्स और महंगाई दर को ध्यान में रखते हुए कुछ नहीं दे सकता है. जैसा कि बफे़ बताते हैं, टैक्स को ध्यान में रखते हुए, निवेशकों को 7 फ़ीसदी रिटर्न मिल सकता है, जो पूरी तरह से महंगाई दर द्वारा खा लिया जाता है. ये गणित दिखाता है कि महंगाई इक्विटी निवेशकों की इतनी बड़ी दुश्मन क्यों है.
कॉर्पोरेट अर्निंग सुधारने की सीमाएं
महंगाई का मुक़ाबला करने और रिटर्न में सुधार करने के लिए, कॉर्पोरेशन्स को अपना ROE बढ़ाने की ज़रूरत होगी. लेकिन वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? बफ़े पांच संभावित तरीक़े बताते हैं: टर्नओवर (अकाउंट रिसीवेबल्स, इन्वेंट्री और फ़िक्स्ड एसेट्स) बढ़ाना, लेवरेज की लागत को कम करना, ज़्यादा लेवरेज लेना, इनकम टैक्स कम करना, या ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट का मार्जिन बढ़ाना. बदक़िस्तमी से, इनमें से ज़्यादा विकल्प आर्थिक वास्तविकता से मजबूर हैं.
मिसाल के लिए, महंगाई की वजह टर्नओवर रेशियो में मामूली सुधार हो सकता है, लेकिन ये फ़ायदा अक्सर ज़्यादा नहीं टिकता. दूसरी ओर, महंगाई के दौर में लेवरेज ज़्यादा महंगा हो जाता है, जिससे कंपनियों के लिए सस्ते में उधार लेना मुश्किल हो जाता है. इसी तरह, कम टैक्स की उम्मीद कम लगती है, और ऑपरेटिंग प्रॉफ़िट मार्जिन पर लेबर, कच्चे माल और ऊर्जा की बढ़ती लागतों का दबाव होता है. निगमों के पास ROE को ख़ास तौर से बढ़ाने के लिए बहुत कम रास्ते बचे हैं, खासकर बढ़ी हुई महंगाई दर के माहौल में.
निवेशक का समीकरण: मार्केट वैल्यू, टैक्स और महंगाई दर
बफे़ का आख़िरी प्वाइंट निवेशक के समीकरण को समझने की मास्टर क्लास है. भले ही कोई कंपनी लगातार अपनी इक्विटी पर 12 फ़ीसदी कमाती हो, लेकिन निवेशकों को मिलने वाला वास्तविक रिटर्न तीन वेरिएबल पर निर्भर करता है: मार्केट वैल्यू और बुक वैल्यू, टैक्स रेट और महंगाई दर के बीच का संबंध.
अगर शेयर बुक वैल्यू से ऊपर बिकते हैं, तो निवेशक का कुल रिटर्न कंपनी के इक्विटी पर अंतर्निहित रिटर्न से कम हो जाएगा. इसके उलट, अगर शेयर बुक वैल्यू से नीचे बिकते हैं, तो निवेशक का रिटर्न कंपनी के रिटर्न से ज़्यादा हो जाएगा. हालांकि, टैक्स और महंगाई दर के बाद, 12 फ़ीसदी रिटर्न भी पर्चेज़िंग पावर को बनाए रखने के लिए काफ़ी नहीं हो सकता. बफे़े का अंदाज़ा है कि 7 फ़ीसदी महंगाई दर की दुनिया में, निवेशकों को मार्केट की परवाह किए बिना ज़ीरो वास्तविक रिटर्न मिल सकता है.
आप क्या करें
बफे़ के पत्र और लेख का बड़ा संदेश ये है कि निवेशकों को वास्तविक रिटर्न पर महंगाई दर के असर के बारे में सतर्क रहना चाहिए. ऐसी दुनिया में जहां टैक्स, महंगाई दर और फ़्रिक्शनल कॉस्ट मज़बूत कॉर्पोरेट प्रदर्शन को भी ख़त्म कर सकती है, धन कमाने का रास्ता उतना सीधा नहीं है जितना लगता है. निवेशकों को अपनी अपेक्षाओं को एडजस्ट करना चाहिए, मज़बूत ROE वाली कंपनियों की तलाश करनी चाहिए और महंगाई दर से आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार रहना चाहिए. ऐसा करके ही वे अपनी पूंजी की रक्षा कर सकते हैं और वक़्त के साथ इसके असली वैल्यू को बनाए रख सकते हैं.
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