Anand Kumar
पिछले हफ़्ते, मैंने ऐसे घोटालेबाजों के बारे में लिखा था जो शेयर बाज़ार में मुनाफ़ा कमाने का वादा करके लोगों का पैसा लेते हैं, लेकिन सब कुछ खो बैठते हैं, जिससे उन्हें भागने या जेल जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है. मैंने शिवराज पुरी के बारे में बात की थी, जिसे पहली बार 2011 में रिलेशनशिप मैनेजर के तौर पर काम करते हुए गुरुग्राम में सिटीबैंक के ग्राहकों से क़रीब ₹400 करोड़ का घोटाला करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था. पुरी को गिरफ़्तार कर लिया गया, उसे ज़मानत नहीं मिली, और छह साल बाद फिर से गिरफ़्तार हुआ, जिसके बाद अंततः कुछ साल पहले जेल में उसकी मौत हो गई. हालांकि इसमें कोई शक़ नहीं कि वो एक घोटालेबाज़ था जिसने लोगों को लूटा. लेकिन अजीब बात ये है कि, एक तरह से, वो भी उस चीज़ का शिकार था जिसे मैं भारत का असल घोटाला मानता हूं. हालांकि उसके पैसों का स्रोत आपराधिक था, पर एक निवेशक के रूप में, वो बाज़ार का एक और शिकार था.
13 साल पहले, जब ये मामला पहली बार सामने आया था, तब मैंने लिखा था:
सिटीबैंक के दुष्ट रिलेशनशिप मैनेजर ने ज़ाहिर तौर पर उस पैसे का ज़्यादातर हिस्सा शेयर बाज़ारों में उड़ा दिया. ख़ासतौर पर, ऐसा लगता है कि वो निफ़्टी डेरिवेटिव्स में ट्रेड कर रहा है. मैं क़रीब-क़रीब यही चाहता हूं कि वो पैसे लेकर भाग गया होता और अब कैरेबियन के एक समुद्र तट पर नकली दाढ़ी में धूप सेंक रहा होता और पैसे केमैन आइलैंड के अकाउंट में सुरक्षित जमा होते. लेकिन... देश भर के (दूसरे) ट्रेड करने वालों की तरह, उसके लिए 'एफ़एंडओ' (F&O) का लालच बहुत बड़ा था. मैं इसकी पूरी कहानी जानता हूं कि कैसे डेरिवेटिव शेयर बाज़ारों को गहराई और विस्तार देते हैं, लेकिन ज़्यादातर रिटेल निवेशकों के लिए, वे ऐसा कुछ भी नहीं करते हैं. इसके बजाय, जैसा कि वॉरेन बफ़े ने बताया, वे सामूहिक विनाश के फ़ाइनेंशियल हथियारों के अलावा और कुछ नहीं हैं. गुड़गांव पुलिस के मुताबिक़, पुरी ने ₹300 करोड़ की चोरी की, इसे ₹1,200 करोड़ तक पहुंचाया और फिर इसे घटाकर ₹175 करोड़ तक सीमित कर बैठा, जब नवंबर में निफ़्टी ने वैसा व्यवहार करने से इनकार कर दिया जैसा उसने उम्मीद की थी. उसकी कहानी में एकमात्र अनोखी बात इसका स्केल था और ये बात थी कि उसका सारा पैसा चोरी का था जिसके साथ वे ट्रेडिंग कर रहा था. ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं जो अपने ख़ुद के पैसे का इस्तेमाल करते हैं और फिर उसका ज़्यादातर हिस्सा गवां देते हैं.
ध्यान दें कि 13 साल पहले मैंने जो कुछ भी लिखा था वो पुराना नहीं हुआ है. असल में, ये आज और भी ज़्यादा प्रासंगिक है. वो साल 2011 था और यहां हम 2024 में हैं और चीज़ें ज़्यादा बदतर हो गई हैं. स्टॉक एक्सचेंजों ने कैसीनो बिज़नस में न होने के सभी दिखावे ताख पर रख दिए हैं. उन्होंने बेशर्मी से कई प्रोडक्ट लॉन्च किए हैं - जैसे हास्यास्पद डेली/वीकली एक्सपायरी डेरिवेटिव - जिनका जुए के अलावा कोई इस्तेमाल नहीं है.
उसके ऊपर से ऑनलाइन ब्रोकरों और ऐप्स के ज़रिए ट्रेडिंग का मतलब है कि लोग एक अतिरिक्त गतिविधि के तौर पर हर समय ट्रेड करते रहें. जब आप ऑफ़िस के लंचरूम में युवाओं की भीड़ को अपनी स्क्रीन पर झुके हुए देखते हैं, तो उनमें से सभी इंस्टाग्राम पर नहीं होते - कई लोग ब्रोकरेज ऐप्स पर होते हैं, ऐसे ट्रेड करते हुए जो अंततः उन्हें पैसों का गंभीर नुक़सान पहुंचाएगा.
इसके नतीजे में दुनिया में डेरिवेटिव ट्रेडिंग की एक्टिविटी सबसे ज़्यादा बढ़ी है. पिछले साल भारत में कुल 85.3 अरब डेरिवेटिव कॉन्ट्रैक्ट का क़ारोबार हुआ. दस साल पहले, ये क़रीब 1 बिलियन था. दस साल में 85X. भले ही कॉन्ट्रैक्ट का नंबर इसके असर का सटीक पैमाना नहीं है, लेकिन ये उस पागलपन का एक अच्छा संकेत है जो हावी हो गया है. सबसे दुखद ये है कि इस बाज़ार में हिस्सा लेने वालों का एक बड़ा वर्ग सोचता है कि यही शेयर बाज़ार है. बुनियादी लंबे समय वाला निवेश उनके मानसिक क्षितिज पर ही नहीं हैं.
पिछले साल सेबी की वो प्रसिद्ध स्टडी सामने आई थी जिसमें पता चला था कि लगभग 90%+ डेरिवेटिव ट्रेडरों ने पैसा गंवाए हैं. हममें से कई लोगों ने उम्मीद की थी कि ये स्टडी इस जुए के खेल पर किसी तरह की रेग्युलेटरी सख़्ती लागू करने की दिशा में पहला क़दम होगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जुआ खेलने के नए तरीक़े लॉन्च किए जा रहे हैं, डेरिवेटिव वॉल्यूम बढ़ रहे हैं, और इसलिए ट्रेडरों का पैसा इंडस्ट्री के मोटे लोगों की जेब में बहता रहेगा. सब ठीक है— सब कुछ वैसे ही चल रहा है जैसा चल रहा था.
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