फ़र्स्ट पेज

कैटेगरी बदलने वाले निवेशक

निवेशक कई तरह के होते हैं, पर इस क़िस्म का निवेशक होना सबसे सही होता है

कैटेगरी बदलने वाले निवेशकAnand Kumar

back back back
5:59

आप बचत करने वालों की कौन सी कैटेगरी के हैं? आइए एक नज़र डालते हैं कुछ क़िस्म के बचत करने वालों और उनकी ख़ूबियों-ख़ामियों पर.

कुछ ऐसे बचतकर्ता होते हैं जो अपना पैसा सिर्फ़ बैंक में रखते हैं, इसके साथ थोड़ा सा EPS, NPS, या EPF और इन्हें मिला जुला कर बचत कर लेते हैं. अगर आप इसमें फ़िक्स्ड डिपॉज़िट और इंश्योरेंस प्रोडक्ट्स जोड़ दें (आम तौर पर ग़लत तरीक़े से चुने गए), तो बस, बचत का मेनू पूरा हो जाता है. बचत के इस तरीक़े की बुरी बात ये है कि इसमें रिटर्न थोड़ा होता है और बहुत सारा पैसा यूं ही पड़ा रहता है. हालांकि, इस तरीक़े की अच्छी बात ये है कि इतना भर कर लेने से बचत होनी शुरू हो जाती है. और न केवल शुरू हो जाती है, बल्कि आमतौर पर जल्दी शुरू हो जाती है, और आपके कमाई करने के पूरे दौर में जीवन भर जारी रहता है, और साथ ही बीच में इस बचत को कोई झटका भी नहीं लगता. कुल मिलाकर, कई दशकों में मिलने वाले कंपाउंडिंग के फ़ायदे काफ़ी हद तक ख़राब प्रदर्शन करने वाले निवेशों के बुरे असर को कम कर देते हैं.

बचत करने वालों की अगली कैटेगरी में वो लोग आते हैं जो ज़्यादा बचत करना चाहते हैं और बड़ा रिटर्न पाने के लिए अपने पैसे निवेश करते हैं. ऐसे लोगों को लगता है कि वो आर्थिक नज़रिए से काफ़ी पढ़े-लिखे हैं और रिस्क का अंदाज़ा लगाने वाले फ़ैसले ले सकते हैं. ऐसे बचत करने वाले डिपॉज़िट तक सीमित रहने वाली बचत से आगे बढ़कर म्यूचुअल फ़ंड तक चले जाते हैं. सैद्धांतिक तौर पर, हाई रिटर्न हाई रिस्क के साथ आते हैं और आमतौर पर ऐसे निवेशक कुछ अच्छे फ़ैसलों के साथ कुछ बुरे फ़ैसले भी लेते हैं. हालांकि, अगर इस कैटेगरी के निवेशक कुछ बुनियादी बातों पर क़ायम रहते हैं, तो ये तरीक़ा भी अच्छी तरह काम करता है. उन्हें निवेश के लिए अच्छे फ़ंड चुनने में कुछ रिसर्च करनी चाहिए. उन्हें SIP के ज़रिए धीरे-धीरे निवेश करना चाहिए, और उतार-चढ़ाव आने पर अपना निवेश बंद नहीं करना चाहिए. जब तक इस बात पर क़ायम रहेंगे और कुछ साल बीत जाएंगे, तब तक ऐसे बचत करने वाले अच्छा करते रहेंगे. मगर हां, बाद में मुड़ कर देखने पर इन्हें लगता है कि उन्होंने सबसे अच्छे फ़ंड्स में निवेश नहीं किया और सबसे ज़्यादा रिटर्न नहीं कमाए, लेकिन ये निवेशक डिपॉज़िट टाइप की सेविंग करने वालों से कहीं बेहतर स्थिति में होते हैं, ख़ासतौर पर टैक्स के नज़रिए से.

किसी-न-किसी तरह, ये दो तरह के बचत करने वाले अपने उद्देश्य में लग जाते हैं. दूसरी कैटेगरी वाले पहले से बेहतर नतीजे पाते हैं, लेकिन इन दोनों में से कोई भी कुछ भी बरबाद नहीं कर रहा है. हालांकि, एक तीसरी कैटेगरी भी है, जिसे मैं क्रॉनिक मैक्सिमाइज़र कह सकता हूं. ये वो लोग हैं जिन्हें इस बात का डर सताता है कि शायद वे जल्द-से-जल्द पैसा नहीं कमा पाएंगे. ये ज़्यादा-से-ज़्यादा सुपरसाइज़ के रिटर्न पाने की उम्मीद में लगातार अगले गर्मागर्म निवेश के आइडिया का पीछा करते हैं.

ये भी पढ़िए- अपने बच्चों को इन बहलाने-फुसलाने वालों से बचाएं

जहां ऐसे लोग समय-समय पर क्रिप्टो जैसी चीज़ों में हाथ आज़माते रहते हैं, वहीं अपने विनाश के लिए उनकी पसंद का हथियार इक्विटी डेरिवेटिव मार्केट होता है - जिसमें फ़्यूचर्स, ऑप्शन्स, लेवरेज और ऐसी ही कई चीज़ों का घातक मिश्रण होता है. ये समझे बिना कि ट्रेड-ऑफ़ क्या हैं, ये क्रोनिक मैक्सिमाइज़र डेरिवेटिव के साथ बड़े स्तर पर रिस्क लेते हैं - इतना कि उनकी जेब सहन नहीं कर सकती. अफ़वाहों के आधार पर निर्णय होते हैं या फिर बाज़ार के अगले उतार-चढ़ाव से चूक जाने से डर कर जल्दबाज़ी में फ़ैसले लिए जाते हैं. लेवरेज के नशे में, क्रोनिक मैक्सिमाइज़र, डेरिवेटिव पर अपने दांव को बढ़ाने के लिए आक्रामक रुख़ अपनाते हैं और अंततः अपनी पूंजी लुटा बैठते हैं. आम तौर पर, केवल संयोग से, कुछ अच्छे सौदे उन्हें बड़े रिस्क लेने के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन फिर जब क़िस्मत पटलती है तो वे बर्बाद हो जाते हैं. किसी भी तरह का हाई, इस तरह की ट्रेडिंग की असलियत को हमेशा के लिए छिपा नहीं सकता है.

एक तरह से, जो लोग शुरुआत में ही बड़ी मुश्किलें झेल लेते हैं, वो भाग्यशाली होते हैं. सबसे बुरी स्थिति मैक्सिमाइज़ करने वालों की है जो कई बार जीतते हैं, फिर अक्सर जीता हुआ गंवा देते हैं. समय के साथ उनका कैश भी चला जाता है, और अंततः एक धीमी और गहरी मुसीबत का सामना करते हैं. डेरिवेटिव के ज़रिए बड़े-चढ़े रिटर्न की ये जुनूनी खोज अंततः आर्थिक बर्बादी में ख़त्म होती है. क्रोनिक मैक्सिमाइज़र्स के लिए, F&O क़रीब-क़रीब हमेशा फ़ाइनेंशियल डिज़ास्टर का रास्ता है.

मेरे लिए ये हमेशा स्पष्ट रहा है कि ये सब किसी एक ख़ास तरह का व्यक्तित्व होने से जुड़ा मुद्दा है. क्रोनिक मैक्सिमाइज़र वही हैं, जो वो हैं. हालांकि, फिर भी लगता है कि अगर निवेशों को लेकर बहुत ज़्यादा सतर्क रहने वाले और मैक्सिपाइज़र अगर मीडियम कैटेगरी में आ जाएं तो ये एक सही कैटेगरी में आने का रास्ता हो सकता है. अतंतः लॉन्ग-टर्म निवेश की सफलता के लिए सही संतुलन बनाना बेहद ज़रूरी है. लंबी अवधि के पोर्टफ़ोलियो में इक्विटी की जगह होती है, लेकिन ख़तरनाक डेराइवेटिव प्रैक्टिस के ज़रिए लंबे समय की सट्टेबाज अक्सर बर्बाद कर देती है. बीच का रास्ता तलाशना - और उस पर क़ायम रहना हममें से हर एक के लिए महत्वपूर्ण है.

ये भी पढ़िए- आपके पैसों का ब्लैक होल


टॉप पिक

मोमेंटम और अल्फ़ा फ़ंड: क्या ये स्मॉल-कैप फ़ंड से भी अच्छे हैं?

पढ़ने का समय 4 मिनटPranit Mathur

Nifty 50 vs Nifty 500: कहां करें निवेश?

पढ़ने का समय 2 मिनटवैल्यू रिसर्च

भरोसा रखिए

पढ़ने का समय 4 मिनटधीरेंद्र कुमार down-arrow-icon

Stock Update: 20 बेहतरीन स्टॉक जिनमें बने निवेश के मौक़े

पढ़ने का समय 2 मिनटवैल्यू रिसर्च

आर्बिट्राज फ़ंड बनाम लिक्विड फ़ंड: शॉर्ट-टर्म इन्वेस्टमेंट कहां करेंगे आप?

पढ़ने का समय 3 मिनटAmeya Satyawadi

वैल्यू रिसर्च धनक पॉडकास्ट

updateनए एपिसोड हर शुक्रवार

Invest in NPS

NPS की त्रासदी

नया यूनीफ़ाइड पेंशन सिस्टम दो दशकों के दौरान नेशनल पेंशन सिस्टम के खोए हुए अवसरों का नतीजा है.

दूसरी कैटेगरी