Anand Kumar
सिद्धांत के तौर पर, हर निवेशक जानता है कि शेयर बाज़ार में ज़बरदस्त उतार-चढ़ाव होता है. पर असलियत में जब बाज़ार गिरावट के दौर में होता है, तो निवेशकों के लिए - यहां तक कि अनुभवी निवेशकों के लिए भी - सहज न रह पाना और सवालों से जूझते हुए रातें बिताना आम होता है. कई सवाल मन में उठते हैं: क्या ये तब तक गिरता रहेगा जब तक ज़ीरो पर नहीं पहुंच जाता? ये मंदी कब तक जारी रहेगी? क्या 'गिरावट में ख़रीदारी' का ये अच्छा वक़्त है? सवालों के जवाब नहीं होते, लेकिन कुछ आज़माए हुए और सही सिद्धांत होते हैं जिन्हें फ़ॉलो करने पर, लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टर उतार-चढ़ाव के दौर से बिना नुक़सान के बाहर आ सकते हैं.
जब स्टॉक की क़ीमतें तेज़ी से गिर रही हों, तो घबराने से बचें. लेकिन अक्सर, मंदी के दौरान भावनाओं में बह कर निवेश बेचने से घाटा हो जाता है और जब तक मार्केट सुधरता है, तब तक उसमें वापस एंट्री लेना मुश्किल हो जाता है. एक बेहतर रणनीति ये होगी कि आप अपने लॉन्ग-टर्म गोल पर ध्यान बनाए रखें और किसी डर के चलते फ़ैसले लेने से बचें. याद रखिए, निवेश साइकल में बाज़ार की गिरावट और मंदी सामान्य बातें हैं. ऐतिहासिक रूप से, भारतीय बाज़ार हमेशा नई ऊंचाइयों पर पहुंचा है, और वो भी काफ़ी कम समय में. ये समय निवेश पोर्टफ़ोलियो को री-बैलेंस करने का एक मौक़ा होता है. री-बैलेंस करने का मतलब है, उन एसेट्स को बेचना, जिनकी क़ीमत काफ़ी बढ़ गई हैं और ऐसे एसेट ख़रीदना, जो गिर गए हैं. ये कम क़ीमत पर ख़रीदने और ज़्यादा क़ीमत पर बेचने की बात है. री-बैलेंस करना, रिस्क को क़ाबू में रखते हुए पोर्टफ़ोलियो को अपने निवेश के ओरिजनल एसेट एलोकेशन के गोल पर लौटा लाने का तरीक़ा है. मंदी का दौर कम क़ीमत पर शेयरों को री-बैलेंस करने का एक अच्छा मौक़ा देता है.
दिलचस्प बात ये है कि जब शेयर बाज़ार नीचे होते हैं, तो कई निवेशकों की प्रतिक्रिया और घबराहट सीधे तौर पर इस बात से प्रभावित होती है कि वो बाज़ार के बाहर अपनी फ़ाइनेंशियल लाइफ़ को कितनी अच्छी तरह से मैनेज करते हैं. एक अच्छा इक्विटी निवेशक बनने के लिए, आपको ये पक्का करना चाहिए कि आपके पास कुछ महीनों के ख़र्च के लायक़ कैश का अच्छा-ख़ासा इमरजेंसी फ़ंड हो. जितना हो सके, आप अपना ऊंची ब्याज दर वाला क़र्ज़ चुका दें, ऐसी बड़ी ख़रीदारी रोक दें जिन्हें टाला जा सकता है, और अगर हो सके, तो इनकम डाइवर्सिफ़िकेशन के तरीक़े पता लगाएं. जो लोग ऐसा करते हैं, वो बेहतर इक्विटी निवेशक बन जाते हैं, भले ही उनका इक्विटी से कोई लेना-देना न हो. घबराया हुआ व्यक्ति के किसी भी मसले पर अच्छे फ़ैसले नहीं ले सकता.
कुछ भी हो, उतार-चढ़ाव आते रहना इस खेल का हिस्सा है. मंदी, तेज़ी और मंदी के बाज़ार में तेज़ी का होना ये सब चलता ही रहेगा. लेकिन मुड़ कर देखें तो पता चलेगा कि दशकों से, शेयर बाज़ार की चाल युद्ध, क्रैश, बबल और घबराहट के बीच भी ऊपर जाने की ही रही है. करना ये है कि आप अपना लॉन्ग-टर्म का नज़रिया बनाए रखें और शॉर्ट-टर्म के शोर को नज़रअंदाज़ करें. पिछले क़रीब एक दशक में निवेशकों की ग़लतियों की प्रकृति में गंभीर बदलाव आए हैं. अब मेनस्ट्रीम और सोशल मीडिया का भारी शोर रहता है. क्रिप्टो और बिना प्रॉफ़िट के चलने वाली डिजिटल कंपनियों के ट्रेंड स्थिति को बद से बदतर बना देते हैं. मार्केट की शॉर्ट-टर्म चाल के बारे में जानकारी, राय और पैनिक की ये लगातार पड़ने वाली बौछार FOMO (fear of missing out), YOLO (you only live once), FOBI (Managing The Fear of Being Included) और इन्हीं जैसी पहले की मनःस्थितियों जैसे - लालच और घबराहट से प्रेरणा लेकर, ख़राब फ़ैसलों का सबब बनती हैं. शोर को शांत करना, बुनियादी बातों पर टिके रहना, इन्ट्रिंसिक वैल्यू पर ध्यान बनाए रखना और लॉन्ग-टर्म पोर्टफ़ोलियो के लक्ष्यों पर अपनी नज़र रखना निवेशक के लिए महत्वपूर्ण है.
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भावनाओं के बजाय तर्क पर आधारित निवेश, बाज़ार के उतार-चढ़ाव के दौरान स्टेबिलिटी देता है. इन नए बदलावों के बावजूद, डाइवर्सिफ़िकेशन सुरक्षित स्टॉक निवेश का आधार है. हालांकि, केवल कुछ निवेशकों को ही एहसास होता है कि डाइवर्सिफ़िकेशन केवल लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टर के लिए ही अच्छा काम करता है. समय के साथ बाज़ार औसत स्तर पर आ जाते हैं. थोड़े समय के दौरान तो क़रीब-क़रीब कोई भी सिद्धांत ध्वस्त हो कर ठप्प पड़ सकता है. दरअसल, बाज़ार में क़ीमतों के बड़े उतार-चढ़ाव से घबराने के बजाय, कम क़ीमत पर क़ारोबार करने वाली हाई क्वालिटी कंपनियों को खोजने पर ध्यान दें. बाज़ार की गिरावट, अक्सर हाई और लो-क्वालिटी वाले शेयरों को काफ़ी नुक़सान पहुंचाती है, और यही चीज़ शेयर ख़रीदने के मौक़े देती है. हमारा सबसे अच्छा दांव ये होगा कि जब ऐसा वक़्त आए, तो घबराने से बचें और एक्टिवली निवेश के मौक़ों की तलाश करें.
शेयर बाज़ार के अनिश्चित समय के दौरान, लॉन्ग-टर्म पर आधारित दूरदर्शी रणनीति अहम होती है. विजेता वही हैं, जो भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से बचते हैं, कम क़ीमत पर ख़रीदारी करने के लिए उतार-चढ़ाव का फ़ायदा उठाते हैं, अनुशासित रहते हैं, और अपना परिप्रेक्ष्य बनाए रखते हैं. सधे हुए मन और सही सिद्धांतों के साथ, लॉन्ग-टर्म इन्वेस्टर किसी भी गिरावट के दौर से बाहर निकल सकता है और अपने निवेश के दौरान अपनी पूंजी बढ़ाना जारी रख सकता है. एक पुरानी कहावत है कि 'मार्केट में बिताया टाइम मार्केट की टाइमिंग पर भारी पड़ता है.' ये बात घिसी-पिटी हो गई है क्योंकि ये सच है.
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