ज़्यादातर लोग मानते हैं कि शेयर बाज़ार में सफलता सीधे तौर पर किसी भी कंपनी के गहरे एनालिसिस से जुड़ी होती है. लेकिन क्या इतना काफ़ी है? क्या सफल होने का एकमात्र तरीक़ा यही है? लंबे समय में फ़ायदा कमाने के लिए सबसे ज़रूरी है, अपनी भावनाओं पर क़ाबू रखना. सबसे अहम होने के बावजूद इस फ़ैक्टर को अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. भले ही निवेशकों को पता होता है कि लंबे समय तक मार्केट में बने रहने से ज़्यादा फ़ायदा पाने में मदद मिलती है, लेकिन वे शायद ही कभी इस पर अमल कर पाते हैं. लोग अपने निवेश से भावनात्मक रूप से इतने ज़्यादा जुड़े होते हैं कि इसकी स्टडी के लिए 'व्यवहारिक वित्त' (behavioural finance) नाम से एक विषय मौजूद है. इस विषय में मार्केट में निवेशकों की आदतों और पूर्वाग्रहों की बारीकी से स्टडी की जाती है.
'व्यवहारिक वित्त' की स्टडी से हमें पता चलता है कि सबसे सामान्य पूर्वाग्रहों में से एक जो लगभग हर निवेशक को परेशान करता है, वो है 'नुक़सान से बचना या लॉस अवर्ज़न'. इससे पता चलता है कि क्यों लोग नुक़सान होने पर अपने निवेश में बने रहते हैं और फ़ायदा होने पर निवेश से तुरंत निकल जाते हैं. आसान शब्दों में, लोग ₹100 का फ़ायदा होने पर उतना खुश नहीं होते, जितना ₹100 के नुक़सान पर पछताते हैं.
कम समय का नुक़सान: जाना माना शत्रु
निवेश के इस पूर्वाग्रह का एक और वर्जन मायोपिक लॉस अवर्जन (myopic loss aversion) यानी कम समय का नुक़सान है, जो नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल सैमुएलसन से जुड़ी एक कहानी से लिया गया है. उन्होंने अपने सहकर्मी के सामने दो संभावनाओं वाली शर्तें रखीं: $200 जीतने की 50 प्रतिशत संभावना या $100 के नुक़सान की 50 प्रतिशत संभावना. पहले तो उस सहकर्मी ने प्रस्ताव ठुकरा दिया, लेकिन बाद में उसने दो शर्तों पर प्रस्ताव स्वीकार किया: पहली शर्त कि उसे 100 बार दांव खेलने का मौक़ा मिले और दूसरी, उसे हरेक परिणाम का निरीक्षण न करना पड़े.
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नोबेल पुरस्कार विजेता रिचर्ड थेलर और श्लोमो बेनार्त्ज़ी ने इस निवेश संबंधी पूर्वाग्रह को लेकर अलग-अलग व्याख्याएं दी हैं. ऊपर के परिदृश्य के आधार पर, उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जब कोई निवेशक किसी एसेट को लंबे समय तक अपने पास रखता है, तो वो उसके लिए ज़्यादा आकर्षक हो जाता है, बशर्ते इसे बार-बार एवैलुएट न किया जाए. क़ीमत में हर रोज़ के उतार-चढ़ाव देखना निवेशकों को नुक़सान के प्रति ज़्यादा संवेदनशील कर देता है. इसके चलते वो मामूली गिरावट होने पर भी संभावित मल्टी-बैगर को बेचने के फ़ैसले ले लेते हैं.
आसान भाषा में, निवेशकों द्वारा लिए जाने वाले फ़ैसलों में दो फ़ैक्टर बड़ी भूमिका निभाते हैं: नुक़सान से बचने की प्रवृत्ति और पोर्टफ़ोलियो का बार-बार इवैलेयुएशन या आकलन. थेलर और बेनार्त्ज़ी ने इसे 'मायोपिक लॉस अवर्जन' (myopic loss aversion) नाम दिया, जो कि दूर तक देखने की अक्षमता की मेडिकल टर्म से जुड़ा है.
इसकी प्रामाणिकता को परखने के लिए हमने सेंसेक्स के पिछले 20 साल के प्राइस पैटर्न की जांच-पड़ताल की. हमने पाया कि 4,971 कारोबारी दिनों में से केवल 445 दिनों ने इस इंडेक्स की 13 गुना वृद्धि में योगदान दिया. बाक़ी दिनों में, सेंसेक्स या तो नीचे गया, एक दायरे में रहा या फिर अपने पिछले उच्चतम स्तरों की तरफ़ गया (जो कुल मिलाकर बेअसर साबित हुआ और इसने ज़ीरो रिटर्न दिया). यही जांच-पड़ताल हमने पिछले दो दशकों के अलग-अलग मल्टी-बैगर्स को लेकर भी की, और इसके भी नतीजे वही रहे.
अपना पोर्टफोलियो बार-बार देखने का कोई मतलब नहीं 90 प्रतिशत से ज़्यादा कारोबारी दिनों में ज़ीरो रिटर्न मिला
कंपनी | 20 साल में कुल रिटर्न (गुना) | तेजी में योगदान देने वाले कारोबारी दिन* (%) |
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टाइटन | 680.3 | 7.51 |
SRF | 327.3 | 5.91 |
एशियन पेंट्स | 99.7 | 8.17 |
कोटक महिंद्रा बैंक | 91.4 | 6.14 |
दिविज लैब | 81.2 | 6.32 |
HCL टेक | 50.6 | 5.89 |
HDFC बैंक | 48.9 | 7.57 |
रिलायंस इंडस्ट्रीज | 23.3 | 4.87 |
HUL | 12.6 | 4.75 |
सेंसेक्स | 12.7 | 8.96 |
13 अक्टूबर, 2023 तक का डेटा *4971 दिनों में से |
इन कंपनियों ने निवेशकों के लिए बड़ी पूंजी खड़ी की, लेकिन ये समय के साथ बरक़रार नहीं रह सकीं. हम देख सकते हैं, ज़्यादातर वैल्थ क्रिएशन के मामलों में 10 प्रतिशत से भी कम क़ारोबारी दिनों का योगदान रहा. बाक़ी दिन स्टॉक या तो घाटे में रहे या एक दायरे में ही सीमित रहे.
हालांकि, अगर आपने इन कंपनियों में निवेश किया होता और बार-बार अपने पोर्टफ़ोलियो को ट्रैक करते, तो इस बात की काफ़ी संभावना है कि आप नुक़सान में बेच देते. लॉस अवर्ज़न का विचार आपको पैनिक सेलिंग के लिए मजबूर करने और घाटे में भी बेचने के लिए काफ़ी होता है. अपनी निवेश रणनीति पर पूरा भरोसा रखने और अपने पोर्टफ़ोलियो की बार-बार निगरानी न करने से ही आप इस पूर्वाग्रह या जाल से बच सकते हैं.
कोई भी निवेशक ये नहीं जान सकता कि फ़ायदा किस दिन और कब होगा. फ़ायदा या तो किसी कम समय में या फिर लंबे समय में धीरे-धीरे ही हो सकता है. इसलिए, एक निवेशक के लिए सबसे अच्छा विकल्प है कि वो बुनियादी तौर पर मज़बूत कंपनियों में अपने निवेश को लंबे समय के लिए बनाए रखें और मार्केट में आने वाले अस्थायी उतार-चढ़ाव के आधार पर अपने फ़ैसले न लें.
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