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F&O ट्रेडिंग: एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा

इस बात का कोई सिर-पैर है कि इक्विटी ट्रेडिंग करने का समय और बढ़ाया जाए?

F&O ट्रेडिंग: एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा

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क़रीब महीना भर पहले, सेबी ने एक रिसर्च रिपोर्ट पब्लिश की थी. इस रिपोर्ट में साबित हुआ कि फ़्यूचर एंड ऑप्शंस (F&O), ट्रेडिंग करने वालों का बड़ा नुक़सान करते हैं. रिपोर्ट ने बताया कि 89% निवेशक F&O में अपना पैसा गंवा देते हैं. यानी, F&O निवेशकों का नुक़सान करने, और एक्सचेंज और ब्रोकरों को मुनाफ़ा दिलाने के सिवा कुछ नहीं करता. पर बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी. अब निवेशकों का नुक़सान और ज़्यादा बढ़ाने के लिए, और एक्सचेंजों को ज़्यादा फ़ायदा देने के लिए, ट्रेडिंग का समय आधी रात तक बढ़ने जा रहा है. और हां, मार्केट शेयर के लिहाज़ से भारत में 'एक्सचेंज' का मतलब NSE है.

तो, ट्रेडिंग का समय बढ़ाया जाना अच्छी ख़बर कैसे है? आख़िर, किसी ट्रेडर्स को पैसे बनाने ही क्यों हैं? जब इन पैसों को किसी-न-किसी चीज़ पर बर्बाद करना ही है. वैसे भी ये F&O ट्रेडर्स हैं, और यही बात साबित कर देती है कि वो बेहद परोपकारी टाइप के लोग हैं, जो ख़ुद से ज़्यादा दूसरों का भला करने में जी-जान से लगे रहते हैं. और NSE को तो सारा-का-सारा पैसा ख़ुद ही ले लेना चाहिए, क्योंकि अपने शेयरहोल्डरों की ही तरह, NSE निहायत ही शरीफ़ टाइप का कॉर्पोरेट सिटिज़न है. आख़िर NSE बाक़ायदा अपना टैक्स भरता है, और कोई पांच से दस साल में बस एक-आध बार ही किसी तगड़े स्कैंडल फंसता है. नहीं?

F&O ट्रेडिंग का समय बढ़ाए जाने के प्रस्ताव पर मास मीडिया और सोशल मीडिया ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दिखाई है, वो भी कम दिलचस्प नहीं है. जो लोग इसके पक्ष में हैं, वो आमतौर पर ऐसा किए जाने के दो कारण गिनाते हैं: पहला कारण कुछ लोगों के मुंह खुलते ही कुछ इस तरह के शब्दों में सुनाई देता है, - कैपिटल फ़ॉर्मेशन, बढ़ी हुई लिक्विडिटी, हेजिंग का मौक़ा, आदि, आदि. और दूसरा कारण, जो एक्सचेंज का आधिकारिक कारण है, कि ट्रेडिंग का वॉल्यूम विदेशी मार्केट खींच रहे हैं इसलिए ट्रेडिंग का समय बढ़ाया जाना चाहिए.

पर एक और कारण है, और ये तीसरा कारण है कि जो कामकाजी लोग हैं, वो दिन में ट्रेड नहीं कर पाते इसलिए रात में ट्रेड करना उनके लिए आसान होगा.

पहला कारण तो किसी डिक्शनरी या डेरेवेटिव की टेक्स्ट-बुक से चुराया गया लगता है, और उसका भारत में होने वाले किसी असली कामकाज से कोई लेना-देना नहीं है. जहां तक दूसरे कारण का ताल्लुक है, तो उसका एक ही जवाब हो सकता है, "तो?"

अब बात रही तीसरे कारण की, तो ये समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है कि इसे एक अच्छा कारण क्यों कहा जा रहा है. एक ऐसा सिस्टम, जहां लोग दिन में अपनी ज़िंदगी चलाने के लिए पैसे कमाए, और रात में पैसे गंवाने के लिए ट्रेडिंग करे. ये ऐसी बात तो नहीं ही हो सकती जिसका किसी को इंतज़ार हो.

वैसे अगर हम दूसरे पक्ष की बात भी सुनें, तो वो आपको और भी दिलचस्प लगेगी कि बिज़नस से बाहर का कोई भी शख़्स इस समय को बढ़ाने के पक्ष में आवाज़ नहीं निकाल रहा है. अब चाहे वो प्रोफ़ेशनल लोग हों या कोई अकेला निवेशक, जो ट्रेडिंग करते हैं सभी समान रूप से इसके ख़िलाफ़ हैं. ये लोग अपनी बात कहने के लिए कुछ इस तरह के कारण गिना रहे हैं - तनाव, थकान, कामकाज और जीवन के बीच का संतुलन आदि, आदि. यानी, जो लोग इसी बिज़नस में हैं—जैसे ज़ीरोधा के सीईओ नितिन कामत— उनका कहना है कि इससे तनाव और ओवर-ट्रेडिंग ही बढ़ेगी.

चलिए बात साफ़ करते हैं कि—रेग्युलेटर को ट्रेडिंग बढ़ाने के बजाए, इंडस्ट्री में कामकाज के विषाक्त हो चले तरीक़े के बारे में चिंता करनी चाहिए. जहां तक एक्सचेंज और ब्रोकरों की बात है, तो उनके मुनाफ़े का रास्ता ट्रेड करने वालों से हो कर गुज़रता है, जिसमें इन ट्रेडरों के नुक़सान का चांस 90% है.

कुछ ऐसे भी लोग हैं जो डेरेवेटिव को समझने की कोशिश करते हैं. मगर इनकी समझ पर पानी फेरने के लिए इनको डेरेवेटिव की ख़ूबियों के रटे-रटाए पाठ पढ़ा दिए हैं कि कैसे ये सुरक्षित तरीक़े से ट्रेड करने में मदद करता है, कैसे इससे लिक्विडिटी प्रमोट होती है, और कैसे इससे प्राइस की डिस्कवरी होती है, और इस जैसी तमाम बातें.

हालांकि, इस सारे प्रोपोगंडा में, इंडस्ट्री का कोई भी व्यक्ति, ये आसान सा तथ्य आपको नहीं बताएगा: कि हर बार जब कोई मुनाफ़ा कमाता है, तो उसमें किसी दूसरे का नुक़सान होता ही होता है. पर जब कोई इक्विटी ख़रीदता है तब ऐसा नहीं होता. इक्विटी में अर्थव्यवस्था की खुली ग्रोथ की ताक़त उसके पीछे होती है. मगर F&O के खेल का नतीजा तो कुल मिला कर शून्य ही रहता है. जो क़ीमत निवेशक को चुकानी पड़ती है, वो इसे उनके लिए नुक़सान से भरा खेल बना देती है—और उनका यही नुक़सान इंडस्ट्री का मुनाफ़ा बन जाता है.

लाखों-करोड़ों की संख्या में होने वाला सारा-का-सारा डेरेवेटिव का ट्रेड—जो भारतीय एक्सचेंजों के कामकाज का 90 प्रतिशत है—कुल मिला कर कोई पैसा नहीं बनाता. और ये गंभीरता से सोचने का मसला है. इसका समय बढ़ा कर ऐसे लोगों को बढ़ावा देना, जिनका अपना स्वार्थ शामिल है, और जिन अजीबोगरीब वजहों के आधार पर इसके समय को बढ़ाया जा रहा है, उसे आप त्रासदी के सिवा और क्या कह सकते हैं.


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