राजनीति और साजिशों को छोड़ दीजिए, और सोचिए कि हाल ही में अडानी स्टॉक्स में जो कुछ घटा है वो निवेशकों से क्या कह रहा है? यूं तो स्टॉक के तेज़ी से गिरने पर निवेशक परेशान होते ही हैं. पर, इसके उलट समझने वाली सही बात होगी कि: इक्विटी निवेश की बुनियादी बातें अब भी कारगर हैं, और जो इन्वेस्टर इन बुनियादी सिद्धांतों पर टिके रहे, उन्होंने अडानी स्टॉक्स के मामले में बेहतर किया है.
इस विषय पर, टीवी और दूसरी जगहों पर होने वाली हर बात का ताल्लुक़ राजनीति और फ़ाइनेंशियल रेग्युलेशन से हो या न हो, पर उसका कुछ-न-कुछ रिश्ता ऐसे इक्विटी निवेशकों से तो है ही, जो निवेश के बुनियादी सिद्धांतों पर टिके रहते हैं.
और ये बुनियादी सिद्धांत जिनकी बात मैं कर रहा हूं, ये हैं क्या? दरअसल, ये आम बातें हैं, जैसे: डाइवर्सिफ़िकेशन, एसेट एलोकेशन और कॉस्ट एवरेजिंग. असल में, अडानी का मसला सीखने का एक शानदार मौक़ा रहा कि कैसे कुछ सरल से सिद्धांत आपको अचानक होने वाली किसी भी घटना से बचा सकते हैं. और ये घटनाएं कभी भी, किसी भी स्टॉक या सेक्टर या ग्रुप में हो सकती हैं.
आइए एक-एक करके देखते हैं कि ये बुनियादी बातें अपना काम कैसे करती हैं. डाइवर्सिफ़िकेशन किसी भी इन्वेस्टमेंट स्ट्रैटजी का सबसे अहम हिस्सा है. इसका आइडिया सरल है-आपको अपना निवेश कई सेक्टर और इंडस्ट्री या बिज़नस ग्रुप में फैलाना चाहिए, ताकि किसी एक का बुरा वक़्त आए तो दूसरा संभाल ले. ऐसा नहीं है कि ये स्ट्रैटजी बिज़नस या इन्वेस्टिंग के लिए ही सही हो-'सारे अंडे एक ही टोकरी में नहीं रखें', ये कहावत तो हम सब के जीवन में सुनी गई पहली कहावतों में से एक होगी और इसके फ़ायदे भी जग-ज़ाहिर हैं.
कोई भी निवेशक, जिसका बेसिक सा डाइवर्सिफ़िकेशन भी है, उसकी इक्विटी होल्डिंग किसी एक ही बिज़नस ग्रुप में दस प्रतिशत से ज़्यादा नहीं होगी. यानी, किसी ख़ास चुनौती के चलते अगर किसी एक ही बिज़नस ग्रुप का स्टॉक अपनी वैल्यू का आधा भी हो जाए, तो भी होल्डिंग पर उसका असर 5 प्रतिशत के आसपास ही रहेगा. ये गिरावट तो कहलाएगी, पर ऐसी नहीं कि इसे बर्बादी कहा जाए-कोई भी अनुभवी इक्विटी इन्वेस्टर 5 प्रतिशत की गिरावट बिना पलक झपके झेल सकता है.
डाइवर्सिफ़िकेशन का आइडिया स्वाभाविक तौर पर एसेट एलोकेशन और इसके ही जैसे दूसरे बुनियादी सिद्धांत, एसेट री-बैसेंसिंग की ओर ले जाता है. असल में, इन सिद्धांतों को मानने का मतलब हुआ कि कोई भी इंसान जिसने अडानी स्टॉक्स में निवेश किया होगा उसने काफ़ी पैसे बनाए होंगे, और स्टॉक की उठा-पटक में अपने मुनाफ़े को बचा भी लिया होगा. इसे समझने के लिए, आइए निवेश के एक और बुनियादी सिद्धांत की तरफ़ चलते हैं. मान लीजिए कि आपका एलोकेशन का सिद्धांत कहता है कि आपको अपने पोर्टफ़ोलियो के 10 प्रतिशत से ज़्यादा किसी एक ही बिज़नस ग्रुप के स्टॉक में निवेश नहीं करना चाहिए. पिछले कुछ सालों में, जैसे-जैसे अडानी स्टॉक्स ने तेज़ बढ़त हासिल की, और ये 5x से 20x तक रहे, और ये बढ़त बाक़ी के मार्केट से कहीं ज़्यादा थी, तो आपके निवेश की 10 प्रतिशत की सीमा बार-बार पार हुई होगी.
तब क्या हुआ होगा, एक समझदार निवेशक ने क्या किया होगा? उन्होंने अडानी स्टॉक का काफ़ी हिस्सा बेच दिया होगा ताकि उनके पोर्टफ़ोलियो का 10 प्रतिशत ही इन स्टॉक्स में रहे. इसका असर ये हुआ होगा कि उन्होंने अपना मुनाफ़ा निकाल लिया होगा और उसे किसी दूसरी जगह निवेश कर दिया होगा. ये है एसेट री-बैलेंस. इसका 'अडानी' से कोई लेना-देना नहीं है. इक्विटी और डेट दोनों में, एसेट री-बैंलेस करने का ये आम सा तरीक़ा वो निवेशक काफ़ी इस्तेमाल करते हैं जो अपने निवेश को लेकर थोड़े-बहुत भी सिस्टमैटिक रहते हैं.
ये सिस्टमैटिक शब्द, हमें अपने तीसरे बुनियादी सिद्धांत की ओर ले जाता है, जिसे हम अब समझेंगे. आप अपना स्टॉक निवेश एक अर्से के दौरान करें, यानी टुकड़ों में करें. इससे निवेश के ख़र्च का औसत या कॉस्ट एवरेज निकल आएगा. क्योंकि हम अडानी की बात करते आ रहे हैं, तो इसी मिसाल को जारी रखते हैं कि क्रैश होने वाले ये स्टॉक, पिछले पांच साल से 5X से 10X ऊपर रहे! जिन लोगों ने एक अर्से के दौरान इनमें निवेश किया, अपने निवेश में डाइवर्सिफ़िकेशन रखा, एसेट एलोकेशन की सीमा बनाए रखी, और री-बैलेंस करते रहे, ऐसे निवेशकों ने उन बड़े-बड़े कॉर्पोरेट निवेशकों से बेहतर नतीजे पाए होंगे जिन्होंने पिछले एक दशक में अपने पोर्टफ़ोलियो में गुब्बारे की गर्म हवा इकट्ठी कर ली होगी.
तो इस कहानी की सबसे ज़्यादा बोरिंग-और सबसे ज़्यादा काम की-बात है कि: इन्वेस्टिंग के बुनियादी सिद्धांतों पर टिके रहना चाहिए-यही वजह है कि ये बुनियादी सिद्धांत कहलाते हैं, है न अचरज की बात.