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यक़ीन से परे

बचत करने वालों और फ़्रॉड करने वालों के बीच की लड़ाई बराबरी की नहीं होती

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अगर आप निवेशक हैं तो पिछले कुछ सालों में आपको मध्य भारत के एक शहर के कॉल सेंटरों से काफ़ी, काफ़ी फ़ोन आए होंगे। मैं इस शहर का नाम नहीं लूंगा। क्योंकि यहां के लोग अपने शहर की ऐसी ख़्याति को लेकर काफ़ी संवेदनशील हैं, ख़ासतौर पर जब शहर कई बेहतर वजहों से जाना जाता रहा है, और उन वजहों में ज़्यादातर, हमारी ज़बान के स्वाद से जुड़ी हैं।
कुछ दिनों पहले सेबी ने एक 'अन-रजिस्टर्ड इन्वेस्टमेंट एडवाइज़र' के ख़िलाफ़ ऑर्डर जारी किया। ये मसला एक व्यक्ति की शिकायत से शुरु हुआ। शिक़ायत उसी शहर की कंपनी के ख़िलाफ़ थी, जिसका ज़िक्र अभी-अभी मैंने बिना नाम लिए किया। शिकायत करने वाले निवेशक को यहां की एक रिसर्च और ट्रेडिंग कंपनी से फ़ोन आया। इस निवेशक ने कुछ लाख रुपए इस कंपनी को निवेश के लिए दिए। इस पैसे का एक हिस्सा डीमैट अकाउंट में जमा कराया गया और एक हिस्सा सीधे इस तथाकथित रिसर्च और ट्रेडिंग कंपनी के पास फ़ीस के तौर पर पहुंच गया। बाक़ी की कहानी आप समझ ही सकते हैं। ज़्यादातर पैसा ग़ायब हो गया था। जिसके बाद ये निवेशक अपने पैसे वापस पाने की जद्दोजहद में जुटे, और कुछ पैसा उन्हें वापस मिल भी गया। यहां तक तो ये एक आम सी कहानी है। पर सेबी से शिकायत के बाद, ऑर्डर का पास होना और एक तरह की सज़ा होने से ये बात उतनी आम नहीं रह गई है। और जितना मैं समझता हूं, ऐसे ज़्यादातर केसों में इन्वेस्टर कुछ नुक़सान सहते हैं, आगे कुछ नहीं हो पाता है, और बात आई-गई हो जाती है।
इस सब में सबसे दुःखद है सोशल मीडिया का रोल, जहां ज़्यादातर लोग 'मैंने तो कहा था' जैसे जुमले उछालते नज़र आते हैं। अक्सर सुनने में आता है कि निवेश पर थोड़ी-बहुत समझ रखने वाले को भी पता होना चाहिए कि इस तरह के ऑफ़र फ़्रॉड होते हैं। मैं किसी पीड़ित-को-ज़िम्मेदार ठहराए जाना कतई पसंद नहीं करता। इसी तरह का एक और केस याद आता है, जहां इन्वेस्टर एक प्रसिद्ध नाम था।
कुछ साल पहले, राहुल द्रविड़ ने ₹20 करोड़ किसी कमोडिटी ट्रेडिंग ब्रोकर को दिए। इस ब्रोकर ने बहुत ऊंचे रिटर्न दिलाने के दावे किए। ऐसे ज़्यादातर केसों से उलट, इस कहानी का अंत सुखद हुआ-द्रविड़ ने केवल ₹4 करोड़ गंवाए और बाक़ी के पैसे सचमुच में उनके पास वापस आ गए। मगर हां, इस घटना की वजह से ट्विटर पर द्रविड़ ने बिन-मांगी सलाहों का बड़ा सैलाब झेला। इससे बड़ी विडंबना और दिलचस्प बातें कमोडिटी ट्रेडर और दूसरे ब्रोकरों से सुनने को मिलीं। जो कुल मिला कर, राहुल द्रविड़ को लगातार सलाह दे रहे थे कि अगर वो सच में बहुत सारा पैसा बनाना चाहते हैं तो उनके पास आएं।
अफ़सोस कि हर तरह के मीडिया की चर्चाएं और उनका लहज़ा, पीड़ित को ही शर्मिंदा करने का था। न्यूज़पेपरों और ट्विटर पर, फ़ाइनेंशियल एडवाइज़र खुल कर लालच और अज्ञान पर अपना-अपना ज्ञान बांट रहे थे। ऐसे लेख थे, जिनमें लिखा गया था कि कितना अच्छा होता अगर द्रविड़ ने इसमें निवेश किया होता या उसमें निवेश किया होता। और जैसा हर सेलेब्रिटी के हर केस में होता ही है, ज़्यादातर लोगों के लिए ये एक मज़ेदार तमाशा हो गया था।
मुझे यक़ीन है, बात चाहे इस केस की हो या राहुल द्रविड़ की या उन लाखों लोगों की जो तमाम फ़ाइनेंशियल स्कीमों के शिकार हुए हैं, फ़्रॉड की ज़िम्मेदारी, फ़्रॉड के शिकार लोगों पर नहीं ठहराई जा सकती। उस हरेक केस, जिसमें कोई बचत करने वाला किसी फ़्रॉड का शिकार होता है, ये निष्कर्ष निकालना सबसे आसान होता है कि पीड़ित को ध्यान रखना चाहिए था और ज़्यादा रिटर्न का लालच नहीं करना चाहिए था। असल में, इस तरह की तोहमतों का खेल क़रीब-क़रीब हर अपराध में नज़र आ जाता है। अगर कोई किसी भी फ़ाइनेंशियल अपराध को आप एक अलग घटना के तौर पर देखेंगे, तो ये रवैया स्वाभाविक लग सकता है। हालांकि, अगर ज़रा ठहर कर, सोच-समझ कर सारे मसले को एक साथ देखें, तो साफ़ हो जाएगा कि बजाए निवेशक की बांह मरोड़ने और इन्वेस्टर एजुकेशन की बात करने के, इस सब का कुछ और ही हल होना चाहिए।
और ये समझना महत्वपूर्ण है कि: पीड़ित व्यक्ति-संपन्न और पढ़े-लिखे हों तब भी-किसी फ़्रॉड का पता लगाने की क़ाबिलियत नहीं रखते। फ़्रॉड करने वाले अनुभवी होते हैं और अपने कारनामों को अंजाम देने में पारंगत भी। ऐसे लोगों ने अपनी इस कला को ढ़ेर सारे लोगों पर आज़मा कर निखारा होता है। हो सकता है फ़्रॉड करने वालों के हाथों से कुछ शिकार बच जाएं, पर इससे भी ये लोग अनुभव लेते हैं और अपने दूसरे संभावित शिकारों की तलाश में और शातिर तरीक़े आज़माते हैं। मगर उनके शिकार फ़्रॉड की पहचानने करने में नौसिखिए ही होते हैं। और ज़्यादातर निवेशकों के लिए एक ही फ़्रॉड का शिकार होना एक गंभीर आर्थिक धक्का हो जाता है।
तो इसका मतलब हुआ कि इस ग़ैरबराबरी की लड़ाई में फ़्रॉड रोकने की ज़िम्मेदारी रेग्युलेटर पर है। जहां तक हम आम लोगों का सवाल है, हमारे लिए हमेशा यही सीख होती है कि हम ज़्यादा शक़ करें और ज़्यादा सावधानी बरतें। और अगर कुछ इतना अच्छा हो कि यक़ीन से परे लगे, तो जानें कि ये सच नहीं है।


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