पिछली स्टोरी में, हमने टॉप-डाउन और बॉटम-अप इन्वेस्टिंग पर बात की थी। यहां पर आप जानेंगे कि न्यू-एज और ओल्ड-इकोनॉमी कंपनियों के बीच चुनाव कैसे करें।
इन दिनों न्यू-एज कंपनियों की धूम है। ऐसे में इन कंपनियों पर गौर करना उचित होगा। आइये समझते हैं कि स्थापित कंपनियों की तुलना में ये कंपनियां कहां खड़ी हैं।
ओल्ड-इकोनॉमी कंपनियां
तकनीकी तौर पर ओल्ड इकोनॉमी का मतलब ऐसी कंपनियां हैं, जिनको औद्योगिक क्रांति के दौरान शुरू किया गया। ऐसी कंपनियां अब भी हैं और आम तौर पर बेहतर टेक्नोलॉजी के साथ पुराने दौर वाली प्रोडक्शन प्रॉसेस का इस्तेमाल कर रही हैं। ये कंपनियां इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का भी इस्तेमाल करती हैं।
इन कंपनियों ने हर तरह के हालात में फलने-फूलने वाला बिजऩेस बनाने के लिए अपने परिचालन को धीरे-धीरे विकसित किया है। मुनाफ़ा बनाने की क्षमता और कैश का प्रवाह फ़ैसले लेने में मदद करते हैं। यहां पर कारोबार का स्केल ऐसी चीज नहीं है, जिसके लिए कंपनी कुछ भी करने के लिए तैयार हो। इसके बजाए यहां स्केल मुनाफ़े के साथ हासिल किया जाता है।
दिलचस्प बात यह है कि ज्यादातर कंपनियां अपनी ओनरशिप बहुत ज्यादा कम करने के बारे में नहीं सोचती हैं। और ऐसा भी नहीं है कि ये कंपनियां अपने आखिरी दौर में हैं। अब भी ये कंपनियां ग्रोथ के लिए पूरा जोर लगाती हैं। ऐसे में इन कंपनियों को खत्म मान लेना सही नहीं होगा।
न्यू-इकोनॉमी कंपनियां
न्यू-इकोनॉमी इस बात का संकेत है कि इकोनॉमी मैन्यूफैक्चरिंग बेस्ड इकोनॉमी से सर्विस बेस्ड इकोनॉमी की ओर जा रही है। इस तरह से यह टर्म जोमेटो, पेटीएम, नाइका जैसी कंपनियों के लिए सही है। ये कंपनियां सर्विस ओरिएंटेंड हैं और ज्यादातर कंपनियां ऐसे प्लेटफॉर्म के तौर पर काम कर रही हैं जो बॉयर्स और सेलर्स को जोड़ता है।
इन कंपनियों के बिजनेस को समझाने के लिए आम तौर पर नेटवर्क इफेक्ट टर्म का इस्तेमाल किया जाता है। इसका मतलब है कि जितने अधिक यूजर्स इनके नेटवर्क-कंपनी की वेबसाइट और ऐप- को ज्वाइन करेंगे यूजर के लिए नेटवर्क की वैल्यू उतनी ही ऊंची होगी। उदाहरण के लिए, फ्लिपकार्ट पर अधिक सेलर्स अधिक बॉयर्स आकर्षित करेंगे, जो और अधिक सेलर्स और विक्रेता को आकर्षित करेगा। और कंपनी का बिज़नेस ऐसे ही बढ़ता रहेगा।
हालांकि, इन कंपनियों में से ज्यादातर नुक़सान उठा रही हैं। विदेशी पूंजी के दम पर स्केल हासिल करने के लिए ये जम कर पैसा खर्च कर रही हैं। एक मुनाफ़े वाला बिज़नेस विकसित करके इसे बढ़ाने के बजाए, ये कंपनियां जितना संभव हो उतना ज्यादा मांग को कैप्चर करने पर फ़ोकस कर रही हैं।
इन कंपनियों के पक्ष में एक तर्क दिया जाता है कि भविष्य में एक समय आएगा जब ये मुनाफ़ा कमाएंगी। आप इस लालच में न पड़ें। आप पूछिए कि क्या ऐसी कंपनियों में से कोई कंपनी है जिसको वास्तव में कंपटेटिव एडवांटेज हासिल है या उसी सेक्टर में एंट्री को लेकर कोई बड़ी बाधा है। अमेरिका में डॉट-कॉम बबल के दौर में जिन कंपनियों की जोर शोर से चर्चा हो रही थी, आज उनमें से कुछ ही कंपनियां बची हुई हैं और कुछ अच्छा कर रही हैं।
जब तक यह मानने की कोई भरोसेमंद समझ या वज़ह न हो कि कंपनी एक दिन मुनाफ़ा कमाएगी और और अपना मुनाफ़ा लगातार बढ़ाती रहेगी, तब तक आपको इन कंपनियों में निवेश के बारे में नहीं सोचना चाहिए। इन कपंनियों के लिए आपकी कंपनी चुनने की जो कसौटी है उसे एडजस्ट न करें। बाहरी पूंजी पर निर्भरता इनको नुक़सान पहुंचाएगी, ख़ासतौर पर मौजूदा ऊंची ब्याज दर वाले परिदृश्य में ये बात और अहम हो जाती है।
यूनिक कंपनियां
ये कंपनियां इस लिहाज से यूनिक हैं कि लिस्टेड यूनीवर्स में ऐसी कंपनियां नहीं हैं जिनसे इनकी तुलना की जा सके। इसका यह मतलब नहीं है कि ये कंपनियां अकेली हैं। प्लास्टिक-लैबवेयर मैन्यूफैक्चरर टारसंस प्रोडक्ट्स, ऑटोमोटिव इंडस्ट्री के लिए सजावट की वस्तुएं बनाने वाली SJS एंटरप्राइजेज और डिपॉजिटरी सर्विस प्रोवाइडर CDSL इसके उदाहरण हैं।
अपनी इंडस्ट्री में अकेली लिस्टेड कंपनी होना, इनको विनर नहीं बनाता। आपको इन कंपनियों पर अपना एनालिसिस करना होगा। यही काफ़ी नहीं होगा, आपको इन कंपनियों के कंपटीटर्स के बिज़नेस को भी समझना होगा। जाहिर है इसके लिए काफ़ी ग्राउंडवर्क की ज़रूरत होगी।
निष्कर्ष
आप चाहे ओल्ड इकोनॉमी कंपनियों पर गौर कर रहे हैं या न्यू इकोनॉमी कंपनियों पर कंपनियों को चुनने की आपकी कसौटी में बदलाव नहीं आना चाहिए। इन कंपनियों को अभी खुद को साबित करना है।