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डायरेक्‍ट बनाम रेग्‍युलर म्‍यूचुअल फ़ंड: क्‍या चुनना है बेहतर

म्‍युचुअल फ़ंड में निवेश के दो रास्‍ते हैं। आइये जानते हैं कौन सा रास्‍ता बेहतर है

डायरेक्‍ट बनाम रेग्‍युलर म्‍यूचुअल फ़ंड: क्‍या चुनना है बेहतर

Direct vs regular mutual fund plans: Which one should you choose?

आपको घर खरीदना है या रेंट पर लेना है, तो आपके पास दो विकल्‍प हैं। पहला, आप यह काम खुद से करें। तमाम लोकेशन पर घर घर जाएं। मकान मालिक से बात करें। इस तरह से आपको अपने बजट में और अपनी ज़रूरत के हिसाब से घर तलाशने में अच्‍छा खास समय लगाना होगा और दौड़-भाग करनी होगी।दूसरा विकल्‍प है, ब्रोकर। आप ब्रोकर की सेवाएं ले सकते हैं। ब्रोकर आपकी ज़रूरत समझता है और उसके संपर्क में बहुत से प्रॉपर्टी ओनर होते हैं। वह आपको चुनिंदा प्रॉपर्टी दिखाएगा। और इनमें से कोई न कोई प्रॉपर्टी आपको पसंद आ जाएगी। इस तरह से घर तलाश करने का आपका काम आसान हो जाएगा। बदले में आप ब्रोकर को उसकी सेवाओं के लिए कुछ शुल्‍क चुकाते हैं।

इसी तरह से, म्‍यूचुअल फ़ंड में डिस्‍ट्रीब्‍यूटर या ब्रोकर होते हैं। ये म्‍यूचुअल फ़ंड निवेश में निवेशकों की मदद करते हैं, और निवेशक की ओर से उसके निवेश की देख-भाल करते हैं। बदले में डिस्‍ट्रीब्‍यूटर्स और ब्रोकर्स अपनी सेवाओं के लिए शुल्‍क लेते हैं। ऐसी म्‍यूचुअल फ़ंड स्‍कीम्‍स को ‘रेग्‍युलर प्‍लान’ कहा जाता है। वहीं ‘डायरेक्‍ट प्‍लान’ के मामले में निवेशक को फ़ंड चुनने के अलावा भी सारी चीजें खुद करनी होती हैं। प्रत्‍येक म्‍यूचुअल फ़ंड स्‍कीम के दो वैरिएंट होते हैं। डायरेक्‍ट प्‍लान और रेग्‍युलर प्‍लान। पोर्टफ़ोलियो, फ़ंड मैनेजमेंट आदि के लिहाज से दोनों में कोई अंतर नहीं है। अंतर सिर्फ निवेशकों से लिए जाने वाले एक्‍सपेंस रेशियो में है। एक्‍सपेंस रेशियो यानी निवेश का खर्च। रेग्‍युलर प्‍लान के लिए यह खर्च अधिक होता है क्‍योंकि फ़ंड कंपनी को एजेंट/डिस्‍ट्रीब्‍यूटर को कमीशन देना होता है। आप इसे होलसेलर बनाम खुदरा रिटेलर से सामान की खरीदारी की तरह देख सकते हैं।

आप कोई सामान होलसेलर से खरीदें और फिर वही सामान रिटेलर से खरीदें। रिटेलर से वही सामान ज्‍यादा महंगा पड़ेगा। क्‍योंकि रिटेलर सामान के साथ अपना कमीशन भी चार्ज करेगा।

आपको किस प्‍लान के साथ जाना चाहिए?

डायरेक्‍ट प्‍लान का खर्च रेग्‍युलर प्‍लान से कम होता है। आम तौर पर यह फर्क 0.5 % से 1.5 % तक होता है। यही वजह है, डायरेक्‍ट प्‍लान लंबे समय में ज़्यादा रिटर्न देते हैं। आइये इसे ऐसे समझते हैं।

मान लीजिए, आपने ₹1 लाख 10 साल के लिए निवेश किए। इसी दौरान, आपको हर साल 15% यानी ₹15,000 रिटर्न मिला। डायरेक्‍ट प्‍लान में अगर खर्च 0.5% था तो आपका पैसा बढ़ कर ₹3 लाख 87 हजार हो गया। लेकिन रेग्‍युलर प्‍लान में अगर खर्च 1.5% था तो आपका पैसा ₹3 लाख 37 हजार ही हो पाया। यानी, रेग्‍युलर प्‍लान में 50,000 या 8% कम रिटर्न मिला।

डायरेक्‍ट बनाम रेग्‍युलर म्‍यूचुअल फ़ंड: क्‍या चुनना है बेहतर


डायरेक्‍ट प्‍लान के साथ जाएं: अगर आप नेट सेवी हैं और बहुत से काम खुद करना पसंद करते हैं। तो ये आपको लंबे समय में ज़्यादा रिटर्न देगा। लेकिन याद रखें, आपको सब-कुछ खुद करना होगा। सब-कुछ मतलब फ़ंड सेलेक्‍ट करना, खरीदना और बेचना, फ़ंड पर नज़र रखना और आगे का एक्‍शन तय करना।

रेग्‍युलर प्‍लान के साथ जाएं: अगर आप म्‍यूचुअल फ़ंड निवेश की पूरी जिम्‍मेदारी उठाने में सहज नहीं हैं तो रेग्‍युलर प्‍लान के साथ जा सकते हैं। आपके लिए ज़्यादा जरूरी निवेश का सफ़र शुरू करना है। समय के साथ आपकी समझ बेहतर हो जाएगी। एक डिस्‍ट्रीब्‍यूटर के जरिए रेग्‍युलर प्‍लान में निवेश शुरू करने का विचार बुरा नहीं है। भले ही थोड़ा ज्‍यादा खर्च उठाना पड़े। बेहतर समझ और भरोसे के साथ बाद में आप डायरेक्‍ट प्‍लान पर स्विच कर सकेंगे। यहां, आपको सिर्फ एक सावधानी रखनी है। अपने इन्‍वेस्‍टमेंट प्‍लान पर बने रहें और दूसरे विकल्‍प के चक्‍कर में न पड़ें। डिस्‍ट्रीब्‍यूटर आपको ऐसी पेशकश कर सकते हैं क्‍योंकि इससे उनका फ़ायदा जुड़ा होता है।



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