बैलेंस शीट के असेट सेक्शन को करेंट और नॉन करेंट असेट्स में बांटा जाता है। मोट तौर पर, करेंट असेंट्स वे असेट्स हैं जिनको कम समय में कैश में बदला जा सकता है। ऐसे असेट्स में फिक्स्ड डिपॉजिट्स, लिक्विड फंड, ट्रेड रिसीवेबल्स और इन्वेंट्री जैसे आयटम शामिल हैं। वहीं नॉन -करेंट असेट्स में वे सभी असेंट्स आती हैं जो करेंट असेट्स का हिस्सा नहीं हैं।
एक कंपनी के पास अपने सामान्य ऑपरेटिंग एक्सपेंशेज को कवर करने लायक लिक्विड असेट्स होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो कंपनी आसानी से लिक्विडिटी ट्रैप में फंस सकती है। अगर कंपनी को अपने करेंट एक्सपेंशेज के भुगतान के लिए नॉन-लिक्विड असेट्स का इस्तेमाल करना पड़े तो ये बहुत उपयोगी नहीं होगा।
हालांकि, यह संभव है कि कुछ नॉन करेंट असेट्स बहुत लिक्विड हों। उदहारण के लिए, असेट को करेंट असेट या नॉन करेंट असेट के रूप में तय करने में एक अहम फैक्टर है कि असेट को 12 माह के अंदर कैश में बदला जा सकता है या नहीं। इसका नतीजा यह है कि लॉग टर्म लिक्विड असेट्स जैसे लंबी परिक्पक्वता अवधि वाली सरकारी प्रतिभूतियां यानी G -sec instruments नॉन करेंट असेट्स की कैटेगरी में रखा जाता है। हालांकि उनको कुछ समय की नोटिस पर भुनाया जा सकता है। एक और समस्या यह है कि नॉन करेंट असेट्स की कीमत आम तौर मार्केट वैल्यू के बजाए बुक वैल्यू पर आंकी जाती है। इसलिए यह दोनों के बीच एक बड़ा अंतर हो सकता है।
मामले पर गौर करें: BSE
सितंबर 2021 तक BSE की कुल असेट्स 5,623 करोड़ रुपए थी। इसमें से 4,337 करोड़ रुपए या लगभग 77 फीसदी करेंट असेट्स के तौर पर था। लेकिन नॉन नॉन करेंट असेट्स में से, 448 करोड़ रुपए एसोसिएट्स में निवेश के तौर पर दिखाया गया है। इसमें दूसरी लिस्टेड कंपनी CDSL में इसकी 20 फीसदी हिस्सेदारी भी शामिल है। यह आंकड़ा CDSL की मार्केट वैल्यू से काफी कम है। 25 मार्च, 2022 तक CDSL की मार्केट वैल्यू लगभग 3,079 करोड़ रुपए थी। और निश्चित तौर पर ये शेयर भी काफी लिक्विड हैं।