हर दिन का अर्थ

एनीमल स्पिरिट

भारतीय किसानों को अपने हालात बेहतर अगर करने हैं तो उन्हें बिल्लियों से सीखना होगा, पांडा से नहीं।

be like cats and not panda


ग़ुस्से में पाठकों ने एलेन बीट्टी को एक ‘जैनोसाईडल डिक्टेक्टर’ तक कह दिया। लोगों का ये ग़ुस्सा उन सनसनीख़ेज़ विचारों को लेकर था, जो उन्होंने अपनी क़िताब ‘फ़ॉल्स इकॉनोमी’ में ज़ाहिर किए थे। क़िताब में उन्होंने बात की थी, तक़रीबन ख़त्म होने की कगार पर पहुंच चुके गोल-मटोल जायंट पांडा की। मगर बीट्टी वन्य-जीवों पर अपनी बातें को संजीदगी से लेने की मांग नहीं कर रहे थे। पांडा पर चौंकाने वाली बातें लिखने का उनका मक़सद ये दिखाना था, कि पुरानी आदतें अगर समय रहते बदली नहीं जातीं, तो अर्थव्यवस्थाएं उनमें फंस कर रह जाती हैं। फिर चाहे वो आदतें अपनी प्रासंगिकता ही क्यों न खो चुकी हों।
बीट्टी इस बात को ख़ारिज करते हैं कि पांडा के अस्तित्व पर ख़तरे की वजह, उनके रहने की जगहों पर इंसानों का कब्ज़ा है। खाने के लिए पांडा, क़रीब-क़रीब पूरी तरह से बांस पर निर्भर है। यही बात उनके रहने के विकल्पों को बेहद सीमित कर देती है। इससे भी ज़्यादा बड़ी बात ये है कि पांडा हर रोज़ 16 घंटे बांस की पत्तियां चबाते हुए बिताते हैं और इसकी वजह है, उनकी खाने को पचाने की क्षमता का कम होना। बीट्टी लिखते हैं, इस तरह की अयोग्यता और अक्षमता को पब्लिक सब्सिडी से ख़त्म कर दिया जाना चाहिए। वो अपनी बात को कुछ इस तरह से कहते हैं, “पांडा को बचाने की पब्लिक सबसिडी ख़त्म कर देनी चाहिए, चाहे इसका मतलब उनका पूरा ख़ात्मा ही क्यों न हो”।
एलेन बीट्टी पालतू बिल्लियों से बड़े प्रभावित हैं। उनके मुताबिक़, उनमें उद्यमशीलता है; जिसमें "साफ़ नज़र आने वाला फ़्लैक्सिबल बिज़नस प्लान" है। जंगली बिल्लियों से विकसित हुआ ये जीव अकेले रहता है, मगर रहने के लिए इसने इंसानों के साथ सामंजस्य स्थापित कर लिया है। बिल्लियों ने, “चूहों की संख्या क़ाबू करने के सर्विस-मार्केट” की ज़रूरत को पहचान लिया है और इस कमी को भरने का काम किया है। उन्होंने ये समझ लिया है कि इंसान एक “फ़ायदेमंद कस्टमर” साबित हो सकता है। शहरी व्यवस्था में उन्होंने, हाई-ग्रोथ वाले पालतू पशुओं के सैक्टर के बड़े हिस्से पर अपना अधिकार जमा लिया है। इसमें कोई अचरज नहीं कि “पांडा से उलट, बिल्लियों को फलने-फूलने के लिए किसी स्टेट-सब्सिडी की ज़रूरत नहीं है”। मेरी समझ से, 10 डाऊनिंग स्ट्रीट के चीफ़ माउसर (चूहे पकड़ने वाले मुख्य अधिकारी) () को बीट्टी बड़े ही सटीक और दिलचस्प अंदाज़ में बयान करते हैं।
इसमें मुद्दे की बात ये है कि लोग और अर्थव्यवस्थाएं, एक क़िस्म की जड़ता और एक ही तरह के वातावरण में फंस कर रह जाते हैं। बीट्टी, इस पांडा जैसे व्यवहार को असल ज़िंदगी के उदाहरण से समझाते हैं। क्वर्टी (QWERTY) की-बोर्ड का डिज़ाईन अपने असली मक़सद के ख़त्म होने के बहुत बाद भी आज बरक़रार है। इसे तेज़ी के लिए नहीं, बल्कि टाईपिंग की रफ़्तार को धीमा रखने के लिए डिज़ाईन किया गया था। टाईपराईटरों को धीरे किए जाने की ज़रूरत इसलिए थी क्योंकि इनमें ऐसे अक्षर होते थे जो बहुत ज़्यादा इस्तेमाल मे आते थे। और ज़रूरत थी कि उन्हें इस तरह से सेट किया जाए ताकि उनका इस्तेमाल तेज़ी के साथ न हो सके। वर्ना, टाईपराईटर की कुंजियां (keys) जाम हो जाती थीं। आधुनिक डिवाईस तेज़ी से टाईप करने के लिए बने हैं, मगर क्वर्टी (QWERTY layout) का डिज़ाईन अब भी क़ायम है।
भारत, अक्सर पांडा की तरह व्यवहार करता है। बदलाव का डर और पुरानी व्यवस्थाओं में आश्रय लेना, बदलाव को रोक देता है। फिर चाहे वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखना असंतोष की बात ही क्यों न हो। तीन कृषि क़ानूनों के हटाए जाने की बात से इसे समझा जा सकता है। डॉक्टर रमेश चंद जो कृषि अर्थशास्त्री और नीति आयोग के सदस्य हैं, उन्होने हाल ही में मुझे खेती की अर्थव्यवस्था से जुडी कुछ बातें बताईं।
हमारा देश काफ़ी अर्से पहले ही खाद्य-सुरक्षा में सक्षम हो गया था। खाद्यान्न में महंगाई को भी क़ाबू में कर लिया गया, मगर किसान ग़रीब-के-ग़रीब ही रह गए। कृषि क्षेत्र, 1991 के पॉलिसी रिफॉर्म के दायरे से कमोबेश बाहर ही रहा। जिसका नतीजा हुआ कि खेती से किसान की आमदनी और खेती से इतर काम करने वालों की आमदनी का फ़ासला बढ़ता गया। 1993-94 में ये फ़ासला ₹25,398 का था, जो 1999-2000 में बढ़ कर, ₹54,377 हो गया। उसके अगले 10 साल, यही गैप ₹1.42 लाख का हो गया। खेती करने वालों और दूसरे कामों को करने वालों में ये आर्थिक असंतुलन और बढ़ता जा रहा है।
खेती के उत्पादों को लेकर मार्केट में एक ख़ास तरह की परेशानी भी है, जिसके लिए सरकारी दखल की ज़रूरत होती है। ये परेशानी है, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और सब्सिडी की। मुश्किल ये है कि पॉलिसी के ये टूल ‘बिल्ली-जैसी’ सतर्कता और सटीकता से इस्तेमाल नहीं किए जाते। ये वोट-बैंक पॉलिटिक्स की क़मज़ोरियों और लालफीताशाही की अक्षमताओं से प्रभावित होते हैं। और इसीलिए, सरकार के कई तरह की कृषि सब्सिडी पर हर साल जीडीपी का क़रीब 1 प्रतिशत ख़र्च करने के इसके बावजूद किसानों की ग़रीबी जस-की-तस रहती है। डॉक्टर चंद के कैलकुलेशन के मुताबिक़, 2015-16 में कुल इनपुट सब्सिडी, जैसे - पावर, खाद और कर्ज़ माफ़ी को जोड़ा जाए, तो ये आंकड़ा ₹2.05 खरब बैठता है। ये रक़म किसी लिहाज़ से कम नहीं है। मुश्किल इस बात की है कि इन सब्सिडी के फ़ायदे काफ़ी असंतुलित हैं। सींचाई से खेती करने वालों के मुक़ाबले, बारिश पर आश्रित और सूखा प्रभावित इलाक़ों के किसान, आर्थिक तौर पर क़मज़ोर हैं। मगर फिर भी उन्हें सींचाई के लिए फ़्री या सब्सिडी वाली बिजली, जो कि काफ़ी होती है, नहीं मिलती। इस बात के बवजूद कि ऐसे किसान बहुतायत में हैं। इसी तरह, खाद की सब्सिडी भी देश में हर ज़िले में अलग-अलग है, जो ₹200 से लेकर ₹20,000 प्रति हेक्टेयर तक होती है। यहां होना ये चाहिए कि सब्सिडी, ज़रूरत के मुताबिक़ दी जाए। और होता ये है कि किसानों को कृषि क्षेत्र की हर तरह की कमियों को सब्सिडी के ज़रिए संतुष्ट किया जाता है। ये वित्तीय-स्वास्थ्य और स्थिरता, दोनों के लिए मुश्किल की बात है। सब्सिडी के बढ़ने का गंभीर परिणाम है, कृषि क्षेत्र में पब्लिक इन्वेस्टमेंट का नहीं आना। सब्सिडी का फ़ायदा भी वार्षिक ही रहता है। यही रुपए अगर कृषि क्षेत्र में पब्लिक इन्वेस्टमेंट के ज़रिए आएं, तो उसका फ़ायदा औसतन 25 साल तक मिल सकता है।
हर कोई मानता है कि ये स्थिति यथावत नहीं रहनी चाहिए। मतभेद इस बात को लेकर है कि इसे बदला कैसे जाए। नई पॉलिसियों को लेकर संशय और पुरानी आदतों की पकड़ के चलते, कृषि क़ानूनों को सिरे से नकार दिया गया है। इन क़ानूनों को बनाने का मक़सद था, किसानों के लिए एक ऐसी व्यवस्था बनना, जहां किसानों के लिए मार्केट सेम लने वाले दाम ज़्यादा फ़ायदेमंद हो जाएं। किसान इस बात से डरते हैं कि इन क़ानूनों का असली मक़सद कृषि क्षेत्र में सरकारी मदद से हमेशा के लिए हाथ खींच लेना है। उनका शक़ है कि इनके पीछे, फ़सलों की क़ीमतें तय करने का कंट्रोल प्राईवेट कॉर्पोरेशन्स के हाथों में देने का है और इससे उनकी रोज़ी-रोटी पर संकट खड़ा हो जाएगा। मगर धरातल पर दिखाई देने वाले साक्ष्य, किसानों के इस शक़ से परे दिखाई दे रहे हैं। अब भी फसलों का 85 प्रतिशत से ज़्यादा ट्रेड प्राईवेट सैक्टर ही करता है। फल, सब्ज़ियां, दूध, अंडे और मछली के व्यापार में कहीं ज़्यादा ग्रोथ रेट है, बजाए उन फ़सलों के जिनपर सरकार MSP की घोषित करती है और उन्हें ख़रीदती है। किसानों के लिए मांग-आधारित उत्पाद कहीं ज़्यादा फ़ायदेमंद साबित हो सकता है, बजाए उत्पादन के आधार पर फ़िक्स किए गए MSP के। सफलता की ऐसी कई कहानियां हैं जिसमें कॉर्पोरेट सैक्टर के आने से किसानों और उनकी आमदनी बेहतर हुई है, जैसे पंजाब में नेस्ले जैसी बड़ी ग्लोबल कंपनी के आने से हुआ।
इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि किसानों के भय और शंकाओं का समाधान नहीं होना चाहिए। और हां, सरकार को कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था से पूरी तरह से निकलना भी नहीं चाहिए। आख़िर विकसित अर्थव्यवस्थाएं भी किसानों के बड़ी मात्रा में सब्सिडी देती हैं। मगर सब्सिडी और MSP और दूसरी सरकारी मदद, मार्केट से मिलने वाले फ़ायदे का विकल्प नहीं हो सकती। उप्तादन के क्षेत्र में सरकारी निवेश प्राईवेट सैक्टर की जगह नहीं ले सकता, चाहे वो इंडस्ट्री हो या फिर कृषि।
भारत में खाद्य सुरक्षा इसलिए संभव हो पाई, क्योंकि किसान ने - बिल्लियों की तरह - पारंपरिक खेती को नकारा और बदलाव को स्वीकारा। किसान ग़रीबी से बाहर नहीं निकल पाएंगे, अगर वो पांडा की तरह, बदलाव स्वीकार नहीं करेंगे।
पूजा मेहरा दिल्ली में रहती हैं और एक पत्रकार हैं और ‘द लॉस्ट डेकेड (2008-18): हाऊ इंडियाज़ ग्रोथ स्टोरी डवैलप्ड इनटू ग्रोथ विदाउट ए स्टोरी’ क़िताब की लेखिका हैं।


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