अब बारी है आपकी निवेश यात्रा के अहम हिस्से की, ये कुछ बोरिंग हो सकता मगर ज़रूरी है, और ये है-समय-समय पर अपने पोर्टफ़ोलियो को री-बैलेंस करना।
समय के साथ जैसे-जैसे हमारा निवेश बढ़ता जाता है, हम पोर्टफ़ोलियो को दोबारा बैलेंस करने को लेकर लापरवाह हो सकते हैं। मगर आपको हर कुछ समय बाद अपने पोर्टफ़ोलियो पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि ये महत्वपूर्ण है। आप हर छः महीने में एक बार अपने निवेश को चैक कर सकते हैं ये देखने के लिए कि पोर्टफ़ोलियों का विभाजन आपके प्लान के अनुसार है या नहीं।
इसके लिए आप कुछ सामान्य से नियम अपना सकते हैं, जैसे - जब भी ऐलोकेशन में रक़म आपके तय किए हुए स्तर से 5-7 प्रतिशत से ज़्यादा हट जाए, तो पोर्टफ़ोलियो को री-बैलेंस कर लेना चाहिए। इसके लिए जिस एसेट क्लास में आपको फ़ायदा मिला है, उससे अपना निवेश निकाल कर, दूसरी एसेट क्लास में निवेश कर देना चाहिए। उदाहरण के लिए - अगर आप अपने पोर्टफ़ोलियो में इक्विटी-डेट का अनुपात 70:30 रखना चाहते हैं। और स्टॉक मार्केट में उछाल की वजह से इक्विटी बढ़ गई है, जिससे आपके कुल पोर्टफ़ोलियो में अब इक्विटी 80 प्रतिशत हो गई है और डेट का अनुपात घट गया है। तो आप अपने इक्विटी निवेश में हुए फ़ायदे के एक हिस्से को बेच सकते हैं, और उसे डेट में डाल सकते हैं। हालांकि इस केस में, आपको टैक्स और एज़िट लोड, जो भी लागू होता है वो देना होगा। ये अतिरिक्त ख़र्च होगा और इसमें आप पूंजी पर मिलने वाला कंपाउंडिंग का फ़ायदा भी गंवा देंगे। इन बातों के चलते, आप अपने फ़ंड को दो वित्त-वर्षों में बांट कर निकाल सकते हैं। इससे आप इक्विटी पर लंबी-अवधि के कैपिटल गेन पर ₹1 लाख तक की छूट का फ़ायदा भी उठा सकेंगे।
इसके विकल्प में, अगर आप नए निवेशक हैं, तो अपने बढ़े हुए निवेश को किश्तों में (SIP) या एकमुश्त (lump-sum), ऐसे एसेट क्लास में निवेश करके री-बैलेंस कर सकते हैं, जिसका अनुपात आपके पोर्टफ़ोलियो में कम हो गया हो। इससे री-बैलेंस में होना वाला ख़र्च भी बच सकता है (पैसा, समय और मेहनत के लिहाज़ से) और आपकी पूंजी भी बढ़ती रहेगी।
दोबारा बैलेंस करने से आपका निवेश मार्केट में उछाल के दौर में मिलने वाले फ़ायदे का ख़याल रखेगा और मार्केट में गिरावट के वक़्त की आपकी चिंता भी नहीं रहेगी। दूसरी तरफ़, अगर आप मार्केट गिरने पर री-बैलेंस करते हैं, तो असल में आप ज़्यादा इक्विटी के शेयर ख़रीद रहे होते हैं, इससे आपकी औसत लागत कम हो जाती है।
निवेश को री-बैलेंस करना, पोर्टफ़ोलियो को बेहतर और अनुशासित ढ़ंग से मैनेज करने का तरीक़ा है, क्योंकि इससे आप ‘मार्केट का पूर्वानुमान’ (timing the market) लगाने से बच जाते हैं, और ये तो आप अच्छी तरह से जानते हैं कि ऐसे अनुमान हमेशा सही होते हों, ये संभव नहीं है। संस्कृत में कहते हैं, 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' (ज़रूरत से ज़्यादा कुछ भी बुरा होता है), इस केस में इससे ज़्यादा सटीक और कोई कुछ नहीं हो सकता।
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