मैंने साल 2005 में न्यूजपेपर ज्वाइन किया था। उस समय मेरे दोस्त और रिश्तेदार अक्सर यह सवाल पूछते हैं कि आपका एडीटर रोज कैसे यह सुनिश्चित करता था कि कैसे न्यूजपेपर को भरने के लिए सही मात्रा में खबरें रहें।
शुरूआत में जब यह सवाल पूछा जाता था तो मुझे नहीं पता होता था कि इसका क्या जवाब दिया जाए। मुझे यह समझने में थोड़ा समय लगा कि सवाल यह पूछा जा रहा था कि उस दिन क्या होता था जब अखबार को भरने लायक खबरें नहीं होती थीं। ऐसे दिनों में एडीटर अखबार के पन्नों को कैसे भरते थे। यह सवाल इस तथ्य की वजह से उभरता था कि कोई भी अखबार कभी भी खाली जगह के साथ प्रकाशित नहीं होता । अखबार कभी नहीं कहता कि जगह इसलिए खाली है क्योंकि आज हमारे पास खबरों की कमी थी। और सिर्फ अखबार ही क्यों ? और कोई भी खबरें चलाने वाला मीडिया इस तरह से काम नहीं करता।
इस सवाल का जवाब यह है कि कभी भी खबरों की कमी नहीं होती है खास कर भारत जैसे देश में। हां, कुछ दिन ऐसे होते थे जिनको खबरों के लिहाज से हल्का कहा जाता था। लेकिन ऐसा कभी कभी ही होता है। ऐसे दिनों में अखबार का एडीटर अखबार के पन्नों की संख्या कम कर देता था या ज्यादा इंटरव्यू, फीचर, बड़ी पिक्चर प्रकाशित की जाती थीं। इसके अलावा पुरानी खबरों को नए सिरे से लिख कर खबरे बनाने और कथित एक्सपर्ट के कोट के हवाले से विश्लेषण चलाने की गुंजाइश हमेशा रहती थी।
एक बड़ी और दिलचस्प बात यह है कि अखबार का पाठक दिन की खबर कभी नहीं पढ़ता है। वह वही खबर पढ़ता है जिसे एडीटर समझता है कि यह आज की खबर है। मैं एडीटर के किसी खास राजनीतिक दल, किसी राजनीतिक नेता को लेकर पूर्वाग्रह या पक्ष लेने या किसी बिजनेस ग्रुप पर नरम रहने के बारे में बात नहीं कर रहा हूं क्योंकि वह एक बड़ा विज्ञापनदाता है। मैं इन तरीकों की बात कर रहा हूं जिनके जरिए खबरें चुनी जाती हैं और अखबार में प्रकाशित की जाती है।
अखबार के एडीटर खबरें चुनतें समय एक बहुत सरल फैक्टर को ध्यान में रखते हैं जो जितना अधिक घातक होगा उसको उतनी ही ज्यादा अहम जगह मिलेगी। एलेन डी बॉटन अपनी किताब द न्यूज: अ यूजर्स मैनुअल में इस बात को और अच्छी तरह से स्पष्ट करते हैं। “ सिक्के का अधिक खुशनुमा पहलू कभी खबर नहीं बनता। किसी भी देश में किसी भी समय इस बात को लेकर विरोधाभास से भरे साक्ष्य उपलब्ध हो सकते हैं कि देश में क्या हो रहा है। किसी देश में बच्चों की हत्या करने वाले हत्यारे बड़े पैमाने पर हो सकते हैं लेकिन उसी देश में लाखों लोग होंगे जो बच्चों के शोषण और उनकी हत्या के खिलाफ होंगे। बहुत से अवसादग्रस्त नागरिक होंगे जो आर्थिक मुश्किलों का सामना कर रहे हैं लेकिन ऐसे लोग भी होंगे जो आर्थिक मुश्किलों का सामना ज्यादा मजबूती के साथ कर रहे हैं।
अहम बात यह है कि इस बात की ज्यादा संभावना है कि आप अखबार में बाद वाली खबर की तुलना में पहले वाली खबर ज्यादा पढ़ेंगे। या जैसा कि मैंने कहा जो ज्यादा घातक होगी उसे ज्यादा अहम जगह मिलेगी। दे बॉटम कहते हैं “ खबर ऐसी होनी चाहिए जो पाठकों को आंदोलित, डरा हुआ और चिंतित महसूस कराए। यह माना जाता है कि नकारात्मक खबरों के बिना कोई देश वापस उस दौर में चला जाएगा जहां समस्याओं पर परदा डाल दिया जाता था और लोग मानते थे कि सब कुछ अच्छा है”।
और यह तभी होगा जब अखबार में अधिक नकारात्मक खबरें हों। इसके अलावा जो नकारात्मक नहीं है वह खबर की तरह महसूस नहीं कराती। आप कार एक्सीडेंट का मामला ही देख लें जिसकी वजह से हाइवे पर कार और ट्रक जाम में फंस गए हैं। यह खबर है। लेकिन तथ्य यह हे कि उसी दिन दूसरे हाइवे पर बहुत सी कारें और ट्रक सुरक्षित तौर पर निकल गए हैं। लेकिन यह साफ तौर पर खबर नहीं है हालांकि यह बड़ी पिक्चर सही परिप्रेक्ष्य में देखने में मदद करती है।
या आप दंगाइयों का मामला ले लें जो दुकानें तोड़ कर जो भी मिल रहा है उसे लेकर भाग रहे हैं। यह खबर है लेकिन आबादी का बड़ा हिस्सा ऐसा कुछ नहीं कर रहा है और वह दंगाइयों को टेलीविजन पर देख रहा है लेकिन यह खबर नहीं है।
या आप हवाई जहाज क्रैश होने का मामला देख लें। दुनिया के किसी हिस्से में हवाई जहाज क्रैश होना दुनिया के दूसरे हिस्से में खबर है। इससे लोगों के दिमाग में डर बैठ जाता है कि हवाई यात्रा असुरक्षित है। जब भी कोई हवाई दुर्घटना होती है तो कोई भी अखबार यह खबर नहीं देता है कि उसी दिन पूरी दुनिया में हजारों हवाई जहाज एयरपोर्ट पर सुरक्षित लैंड हुए हैं। लेकिन एक हवाई जहाज क्रैश होने की खबर से लोगों को लगता है कि हवाई सफर असुरक्षित है।
अखबार और मीडिया जिसे खबर के तौर पर कवर करता है और जिस तरह से कवर करता है उससे लोगों की सोच और उनके दुनिया देखने के तरीके पर असर पड़ता है। जैसा कि दे बॉटन लिखते हैं “ यह ताकत काफी अहम है क्योंकि खबरों में जो कहानियां होती हैं उनका एक खास असर होता है। अगर हमको नियमित तौर पर बताया जाए कि हमारे बहुत से देशवासी सनकी और हिंसक हैं तो हम जब भी बाहर जाएंगे तो एक तरह के डर और अविश्वास से भरे होंगे। अगर हमको इस तरह के संदेश मिल रहे हैं कि पैसा और स्टेटस सबसे ज्यादा मायने रखता है तो हम एक सामान्य जिंदगी को लेकर अपमानित महसूस करेंगे। यह माना जाता है कि सभी राजनीतिज्ञ झूठ बोलते हैं”।
इन सब बातों पर हमको विचार करना चाहिए। ऐसे में जब अगली बार आप पढ़ने के लिए अखबार उठाएं तो यह याद रखें कि खबर जो हो रहा है उन कहानियों का एक सेट है। न इससे ज्यादा। न इससे कम।