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बुनियाद का सही होना

अफ़सोस, ज़्यादातर निवेशकों को अंदाज़ा ही नहीं कि वो क्या काम हैं जो उन्हें सट्टेबाज़ या निवेशक बनाते हैं

बुनियाद का सही होनाAI-generated image

भारत में निवेशकों को शिक्षित करने को लेकर काफ़ी शोर-शराबा है. रेग्युलेटर म्यूचुअल फ़ंड कंपनियों को निवेशकों की शिक्षा पर एक निश्चित रक़म ख़र्च करने के लिए बाध्य करता है. एक तय समय के बाद, दावा न किए जाने वाले पैसे का मुनाफ़ा ज़ब्त करने और निवेशकों की शिक्षा पर ख़र्च करने की इजाज़त भी देता है. इसमें कोई शक नहीं कि दूसरों के पैसे ख़र्च करना काफ़ी मज़ेदार होता है, इसी बात का एहसास मुझे आज एक राजनीतिक पार्टी का घोषणापत्र पढ़ते हुए हुआ. जहां तक निवेशकों की शिक्षा का सवाल है, तो अक्सर लगता है कि उसके लक्ष्य बहुत ऊंचे रखे जाते हैं.

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आमतौर पर, ये लक्ष्य इस सोच पर टिके होते हैं कि निवेशक या तो बहुत कम जानते हैं या उन्हें कुछ भी नहीं आता और इसलिए उन्हें सिखाने की शुरुआत एकदम बुनियादी बातों से होनी चाहिए. असलियत अलग हो सकती है, जो निवेशक शिक्षा में बड़ी मुश्किल खड़ी करती है. दरअसल बचत और निवेश को लेकर ज़्यादातर लोगों को इतनी गलतफ़हमियां हैं कि उन्हें भूलने में मदद करने वाली असली शिक्षा की योजना बनाने की ज़रूरत है. मिसाल के तौर पर, जब इक्विटी या इक्विटी आधारित म्यूचुअल फ़ंड में निवेश की बात आती है, तो बचत करने वालों का सिर्फ़ छोटा सा हिस्सा ही निवेश और सट्टेबाज़ी का अंतर समझता है.

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एक तरफ़, ऐसे लोग हैं जो सबसे स्थिर और रिस्क-फ़्री लंबे अर्से के निवेश को सिर्फ़ इसलिए सट्टा मानते हैं क्योंकि ये इक्विटी है. दूसरी तरफ, ऐसे लोग भी हैं जो कुछ दिनों या घंटों के दौरान डेरिवेटिव ट्रेडिंग करते हैं और ख़ुद को निवेशक समझते हैं.

बेशक़, ये दोनों मामले दो अलग-अलग चरम कहे जाएंगे और इसीलिए इनमें अंतर साफ़ दिखाई देता है. ज़्यादातर निवेश के तरीक़े कहीं बीच में आते हैं, जहां काम वही रहता है मगर व्यक्ति की मानसिकता के चलते उसकी तासीर बदल जाती है. आप एक दशक तक इंडेक्स फ़ंड में लगातार SIP कर सकते हैं. फिर, एक दिन एक बड़ी गिरावट आती है और अचानक आप अपने पैसे निकालकर बाज़ार के नीचे जाने का इंतज़ार करने का फ़ैसला कर लेते हैं. अब आप एक निवेशक से सट्टेबाज़ हो जाते हैं. ये मनःस्थिति की बात है, और एक बंधे-बंधाए फ़ॉर्मूले पर बने निवेशक शिक्षा के पाठ्यक्रम से इसे सिखा पाना काफ़ी मुश्किल है.

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