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इस हफ़्ते अमेरिकी बाज़ारों में आई तेज़ गिरावट ने भारतीय निवेशकों को एक महंगा सबक़ सिखाया—काल्पनिक प्रीमियम का पीछा करना ख़तरनाक होता है. पिछले कुछ महीनों में, अमेरिकी बाज़ारों को ट्रैक करने वाले भारतीय ईटीएफ़ (ETFs) में एक अजीब स्थिति देखी गई. ये फ़ंड अपनी नेट एसेट वैल्यू (NAV) से 20% या उससे भी ज़्यादा प्रीमियम पर ट्रेड कर रहे थे. ये एक ऐसा संकेत था जिससे सोचने-समझने वाले निवेशकों को चौकन्ना हो जाना चाहिए था.
इस प्रीमियम का कारण कुछ रेग्युलेशन रहे. निवेश पर लगी सीमाओं के चलते भारतीय म्यूचुअल फंड्स विदेशी स्टॉक में निवेश नहीं कर पा रहे हैं. इससे एक अजीब स्थिति पैदा हो गई, जहां अमेरिकी मार्केट, ख़ासतौर पर उभरते हुए टेक सेक्टर की ETF यूनिट्स की मांग उनकी सप्लाई से बहुत ज़्यादा हो गई. चूंकि फ़ंड हाउस नई यूनिट नहीं बना सकते थे, इसलिए इन एसेट्स की क़ीमतें काफ़ी चढ़ गईं.
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क़ीमत और वैल्यू का अंतर देख कुछ लोगों को लगा होगा कि ये उनके लिए निवेश का एक मौक़ा है, लेकिन असल में ये एक जाल था. इस हफ़्ते जब अमेरिकी बाज़ार ब्याज दरों और अर्थव्यवस्था की चिंताओं के कारण गिरे, तो इन ETF ने ज़्यादा बड़ा नुक़सान झेला. निवेशकों ने जो प्रीमियम दिया वो तुरंत छू मंतर हो गया, जिससे बाज़ार की गिरावट के साथ उनका नुक़सान और भी ज़्यादा बढ़ गया.
विडंबना ये है कि इन निवेशों की असल वैल्यू हर उस व्यक्ति को दिख रही थी जो इसे देखना चाहता था. बाज़ार की कई ऐसी स्थितियां होती हैं जहां वैल्यू पर बहस की गुंजाइश हो सकती है और जहां अनालेसिस करते हुए सावधानी बरतने की ज़रूरत होती है, पर यहां इस केस में तो ये डेली NAV कैलकुलेशन के ज़रिए साफ़-साफ़ नज़र आ रही थी. लेकिन इसके बावजूद, निवेशकों ने इस वैल्यू को जानते-समझते हुए भी काफ़ी ज़्यादा भुगतान करना चुना, शायद इस शर्त के साथ कि कोई और इससे भी ज़्यादा भुगतान कर देगा-कौन बड़ा मूर्ख वाले खेल की तरह.
ये घटना इसलिए भी अहम है क्योंकि इसमें अनुभवी निवेशकों ने ग़लती की. ये छोटे रिटेल निवेशक नहीं हैं जिन्हें किसी मुश्किल फ़ाइनेंशियल प्रोडक्ट ने भटका दिया हो जो समझ से बाहर हो. इनमें से ज़्यादातर लोग बाज़ार को जानने-समझने वाले थे, जो यक़ीन कर बैठे कि स्थितियां "सही वैल्यू" से ज़्यादा भुगतान के लिए बिल्कुल सही थीं.
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ये हमें एक मूलभूत सिद्धांत की याद दिलाता है कि क़ीमत और वैल्यू अलग-अलग कॉन्सेप्ट हैं, जो कुछ समय के लिए अलग ज़रूर होते हैं लेकिन उन्हें फिर साथ आना ही होता है. और जब ये एक स्तर पर आते हैं, तो बिज़नस के ग़लत पहलू में खड़े लोगों के लिए दर्द भरा समय ला देते हैं. इस केस में, निवेशक सिर्फ़ अपने अमेरिकी टेक निवेश के सामान्य मार्केट रिस्क ही नहीं उठा रहे थे - बल्कि एक उतार-चढ़ाव वाले प्रीमियम पर एक्स्ट्रा रिस्क भी ले रहे थे.
इससे पॉलिसी बनाने वालों को भी कुछ सीखना चाहिए. विदेशी निवेशों पर पाबंदियां कैपिटल फ़्लो और फ़ाइनेंशियल मज़बूती के लिए ज़रूरी हो सकती हैं, लेकिन वे ऐसा असंतुलन भी पैदा कर सकती हैं जो निवेशकों को नुक़सान पहुंचाता हो. जब रेग्युलेटरी सीमाएं झूठी कमी पैदा करती हैं, तो बाज़ार भी आर्टिफ़िशियल तरीक़े से प्रीमियम खड़ा कर देते देते हैं, जो असल रिस्क को छिपा देता है.
निवेशकों के लिए सबक़ स्पष्ट है: इंट्रिंसिक वैल्यू का कोई विकल्प नहीं है. आप कंपनियों के प्रदर्शन, अर्थव्यवस्था की ग्रोथ, या तमाम टेक्नोलॉजी कैसे आगे बढ़ेगी इस सब पर सोच-विचार कर दांव लगा सकते हैं. ये वैल्यू तय करने के बुनियादी तरीक़े हैं. लेकिन टेक्निकल फ़ैक्टर के कारण मूल्य के अस्थाई उतार-चढ़ाव पर दांव लगाना अटकल होता है, निवेश नहीं.
इस तरह की स्थितियों का अंत आमतौर पर बुरा ही होता हैं क्योंकि वे स्वभाव से ही सीमित करने वाली होती हैं. अब या तो रेग्युलेटर पाबंदियां समय के साथ कम होंगी, जिससे प्रीमियम ख़त्म हो जाएगा, या मार्केट दूसरे तरीक़ों से इसी जैसे निवेशों का इंतज़ाम कर लेगा. सवाल सिर्फ़ इतना है कि ऐसा होने से पहले निवेशक कितना पैसा गंवाएंगे.
इस हफ़्ते के मार्केट एक्शन के बाद, ये याद रखना ज़रूरी है कि असली निवेश का मतलब बिज़नस की असल ग्रोथ और वैल्यू बनाने में भागीदारी है न कि बाज़ार के अस्थाई उतार-चढ़ावों से मुनाफ़ा कमाना. चाहे आप अमेरिकी टेक स्टॉक देखें, भारतीय ब्लू-चिप्स, या फिर कुछ और, सिद्धांत वही रहता है: बुनियादी वैल्यू पर ध्यान दें, बाज़ार की तकनीकी पेचीदगियों पर नहीं.
जिन्होंने प्रीमियम चुकाया और नुक़सान उठाया, उनके लिए राहत की बात ये है कि महंगे सबक़ अक्सर सबसे ज़्यादा याद रहते हैं. शायद, सबसे क़ीमती निवेश का ज्ञान हमें मुनाफ़ों के बजाए हमारे नुक़सानों से मिलता है—और उससे भी ज़्यादा इस बात से कि हमने वो नुक़सान कैसे उठाए.
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