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कुछ लोगों को बीमा की दुनिया रहस्यमयी लगती होगी. एक आम बिज़नस माल या सेवाएं देने के बाद पेमेंट पाते हैं, मगर बीमा कंपनियां प्रीमियम एडवांस में हासिल करती हैं और दावे बाद में किए जाते हैं. आमतौर पर बीमा दो तरह का होता है: जीवन बीमा (life insurance), जो आपके परिवार के भविष्य की सुरक्षा करता है, और जनरल इंश्योरेंस (general insurance) या सामान्य बीमा, जो आपके वर्तमान की सुरक्षा करता है - स्वास्थ्य की इमरजेंसी से लेकर संपत्ति को होने वाले नुक़सान तक.
ये लेख, जनरल इंश्योरेंस के बिज़नस की तौर-तरीक़ों को समझने पर है, जो लाइफ़ इंश्योरेंस से काफ़ी अलग तरीक़े से काम करता है. ठीक बैंकों की तरह, जनरल इंश्योरेंस कंपनियों के फ़ाइनेंशियल स्टेटमेंट में कुछ ख़ास बातें होती हैं जिन्हें समझने के लिए गहराई से समझने और पढ़ने की ज़रूरत है. लेकिन नंबरों की बात करने से पहले, आइए समझें कि ये इंडस्ट्री काम कैसे करती है.
इंश्योरेंस का अनोखा बिज़नस और क्या होता है फ़्लोट?
हम जानते हैं, बीमा कंपनियां पॉलिसीधारकों से भविष्य में होने वाली संभावित नुक़सान कवर करने का वादा करने के बदले प्रीमियम का पेमेंट एडवांस में लेती हैं. इसी एडवांस पेमेंट को फ़्लोट कहा जाता है - यानि, वो पूंजी जो दावों के निपटने तक बीमा कंपनियों के पास रहती है.
फ़्लोट का एक ख़ास फ़ायदा ये है कि दावे चुकाने से पहले बीमा कंपनियां इस पूंजी के हिस्से स्टॉक, बांड, और दूसरी तरह के इन्स्ट्रुमेंट में निवेश कर सकती है. इस तरह से कंपनियां ब्याज, डिवडेंड, और पूंजी में बढ़ोतरी के ज़रिए अपनी आमदनी बनाती हैं. बीमा कंपनियों की आमदनी के दो स्रोत होते हैं: कमाया हुआ प्रीमियम और निवेश से मिले रिटर्न.
हालांकि, पूरा का पूरा फ़्लोट निवेश नहीं किया जा सकता; बीमा कंपनियों को भविष्य में होने वाले संभावित दावों (insurance claims) को कवर करने के लिए फ़्लोट का एक हिस्सा अलग रखना पड़ता है. कितना पैसा अलग रखा जाए इसे तय करने के लिए बीमा कंपनियां स्टेटेस्टिकल मॉडल का इस्तेमाल करती हैं और अंदाज़ा लगाती हैं कि उन्हें दावों के लिए कितने पैसों की ज़रूरत होगी. उनके सामने कई सवाल होते हैं जिनमें ये भी है कि ये दावे या क्लेम कब किए जा सकते हैं, और इसके बावजूद वो कितनी रक़म निवेश कर सकती हैं. कामयाब बीमा कंपनियां जानती हैं कि उन्हें कितना निवेश करना है और कितने समय के लिए करना है, और उस हिसाब से वो दावों के पेमेंट के लिए ज़रूरती कैश तैयार रखती हैं.
जीवन बीमा, जो लंबे अरसे का रिस्क कवर करता है, उसके उलट जनरल इंश्योरेंस आमतौर पर थोड़े अर्से की पॉलिसियां होती हैं जो स्वास्थ्य, ऑटोमोबाइल, संपत्ति और बिज़नस से जुड़े रिस्क कवर करती हैं. आमतौर पर इसे हर साल रिन्यू करना पड़ता है. जनरल इंश्योरेंस में दावों का स्वभाव और उनके दायर किए जाने फ़्रीक्वेंसी, संभावित भुगतान का पता लगाने को और निवेश को मैनेज करना ज़्यादा चुनौती भरा बना देती है.
प्रॉफ़िटेबल अंडरराइटिंग
हालांकि, फ़्लोट इंश्योरेंस को कागज़ पर आकर्षक दिखाता है, पर लंबे अरसे के दौरान इसकी कामयाबी बुनियादी बातों, यानि प्रॉफ़िटेबल अंडरराइटिंग पर निर्भर करती है. इंश्योरेंस में अंडरराइटिंग वो प्रक्रिया है जिसमें संभावित पॉलिसीधारकों के रिस्क का पता लगाया जाता है—जैसे उम्र, स्वास्थ्य, और गाड़ी चलाने का इतिहास—ताकि सही प्रीमियम तय किया जा सके.
प्रॉफ़िटेबल अंडरराइटिंग का मतलब है रिस्क को सही तरीक़े से तय करना और सिर्फ़ वही बीमा करना जो फ़ाइनेंस के नज़रिए से सही लगता हो. ऑटो इंश्योरेंस कंपनी गेको (GEICO) के प्रशंसक रहे वॉरेन बफ़े ने 1972 में बर्कशायर हैथवे के शेयरधारकों को लिखे अपने पत्र में इसी बात पर ज़ोर दिया था: "अंडरराइटिंग प्रॉफ़िटेबिलिटी कामयाबी का पैमाना है, और ऑपरेशन सिर्फ़ तभी बढ़ाया जा सकता है जब ये साफ़ हो कि हम अंडरराइटिंग सेक्टर में सही काम कर रहे हैं."
स्मार्ट रिस्क असेसमेंट या रिस्क का सही-सही पता लगाना इंश्योरेंस में बेहद अहम होता है. अफ़सोस की बात है कि बीमा इंडस्ट्री के सफल दौर अक्सर नए-नए प्रतिस्पर्धी आकर्षित होते हैं, जो ग्राहकों को लुभाने और बाज़ार में हिस्सेदारी पाने के लिए सस्ती पॉलिसियां पेश करते हैं. ये दांव उल्टा पड़ सकता है, क्योंकि ये कंपनियां अपने रिस्क का सही तरीक़े से पता लगाने में नाकाम हो सकती हैं या दावों के लिए पर्याप्त धन अलग नहीं रख पातीं. यही वजह है, अच्छी बीमा कंपनियां पॉलिसी की मात्रा पर नहीं, बल्कि सही अंडरराइटिंग पर ध्यान देती हैं, भले ही इसका मतलब धीमी ग्रोथ हो.
बीमा कंपनियों की अंडरराइटिंग क्वालिटी को दिखाने वाले तीन बड़े फ़ैक्टर हैं:
1. लॉस रेशियो (Loss Ratio): नुक़सान बताने वाला ये रेशियो प्रीमियम के मुक़ाबले दावों के भुगतान को दिखाता है. लॉस रेशियो का कम होने का मतलब है, ज़्यादा फ़ायदेमंद अंडरराइटिंग.
2. एक्सपेंस रेशियो (Expense Ratio): ये ऑपरेट करने के ख़र्च का वो रेशियो है जो कमाए गए प्रीमियम के मुक़ाबले देखा जाता है. कम एक्सपेंस रेशियो, ख़र्च के कम होने और काम-काज बेहतर ढ़ंग से किए जाने को दिखाता है.
3. कंबाइंड रेशियो (Combined Ratio): ये लॉस रेशियो और एक्सपेंस रेशियो का योग होता है; एक कंबाइंड रेशियो का 100 प्रतिशत से कम होना ये संकेत देता है कि अंडरराइटिंग मुनाफ़े में है - यानि, बीमा गतिविधियों से शुद्ध रूप से पैसा कमाया जा रहा है. रेशियो का लगातार कम रहना बेहतर और अनुशासित अंडरराइटिंग दिखाता है.
भारतीय चुनौती
भारत में प्रॉफ़िटेबल अंडरराइटिंग हासिल करना चुनौती भरा है. जनरल इंश्योरेंस मार्केट में दामों की होड़ इसकी बड़ी वजह है. ICICI लोम्बार्ड (भारत की सबसे बड़ी प्राइवेट जनरल इंश्योरेंस कंपनी) के पूर्व CEO भार्गव दास गुप्ता ने एक इंटरव्यू में बताया कि इंश्योरेंस के निजी खिलाड़ियों ने 2000-01 में मार्केट में एंट्री की, लेकिन प्रीमियम के दामों का तय किया जाना 2008 तक रेग्युलेटेड ही रहा. टैरिफ़ हटने के बाद, क़ीमतों में क़रीब 30-40 फ़ीसदी की गिरावट आई, और ये आदत क़रीब एक दशक तक बनी रही.
भारत में ग़ैर-जीवन बीमा की पैठ सिर्फ़ 1 फ़ीसदी ही है, जबकि अमेरिका में क़रीब 9 फ़ीसदी है (गो-डिजिट के IPO प्रॉस्पेक्टस के मुताबिक़), जो बढ़ोतरी की अच्छी संभावना दिखाता है. हालांकि, कंपनियां अक्सर बाज़ार में हिस्सेदारी पाने के लिए क़ीमत को लेकर प्रतिस्पर्धा करती हैं, जिससे कम क्वालिटी वाली अंडरराइटिंग और नुक़सान की संख्या ज़्यादा हो सकती है. इसकी भरपाई के लिए, भारत में बीमा कंपनियां, डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क को बढ़ाने के साथ अलग-अलग तरह के प्रोडक्ट की पेशकश, डिजिटल क्षेत्र में पहल और निवेश रिटर्न के ज़रिए से मुनाफ़ा बढ़ाने पर ध्यान दे रही हैं.
इंश्योरेंस इ़ंडस्ट्री का रेग्युलेशन और सॉल्वेंसी की ज़रुरतें
बीमा इंडस्ट्री पॉलिसीधारकों के हितों की रक्षा करने और स्थिर रहने के लिए काफ़ी रेग्युलेट की जाती हैं. बीमाकर्ताओं के लिए एक सॉल्वेंसी मार्जिन का रेग्युलेशन अहम है, जो ये पक्का करता है कि कंपनियों की संपत्ति उनकी देनदारियों से ज़्यादा हो, जिससे मुश्किल हालात में दावों को कवर करने में आसानी होती है. लगातार या अप्रत्याशित दावों वाले मार्केट में अच्छा-ख़ासा सॉल्वेंसी मार्जिन बनाए रखना महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि ये बीमा कंपनी की पॉलिसीधारक के प्रति ज़िम्मेदारियों को पूरा करने की क्षमता को बनाए रखने में मदद करता है. इसके अलावा, बीमा कंपनियों को अपने निवेश पोर्टफ़ोलियो में सावधानी बरतनी चाहिए, बाज़ार के उतार-चढ़ाव के बड़े रिस्क से बचने के लिए रिस्क और रिटर्न का बैलेंस बनाए रखना चाहिए.
निवेशकों के लिए सलाह
जनरल इंश्योरेंस कंपनियां फ़ाइनेंस के सेक्टर में ख़ास भूमिका निभाती हैं, जो फ़्लोट, अंडरराइटिंग और निवेश की अनूठी गतिशीलता को मैनेज करते हुए व्यक्तियों और बिज़नस के लिए सुरक्षा का कवर देती हैं. वैल्यू की ओर झुकाव रखने वाले निवेशकों के लिए, इस गतिशीलता को समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इससे ये पता किया जा सकता है कि कौन सी बीमा कंपनियां अपने मुनाफ़े को स्थायी तौर पर बढ़ा सकती हैं. निगरानी करने के ख़ास संकेतों में कंबाइन्ड रेशियो, इक्विटी पर रिटर्न (ROE), और बुक वैल्यू ग्रोथ शामिल हैं - ये पैमाने, बीमा कंपनियों की ऑपरेट करने की दक्षता और लम्बे अरसे में वैल्यू बनाने की क्षमता दिखाते हैं.
भारत में जनरल इंश्योरेंस इंडस्ट्री की लगातार ग्रोथ के साथ, प्रॉफ़िट के साथ ग्रोथ (जिसमें अनुशासित अंडरराइटिंग पर ज़ोर हो), सही तरह का फ़्लोट मैनेजमेंट और रेग्युलेशन को अपनाना और प्रतिस्पर्धी बदलावों के लिए रणनीति को एडजस्ट करने पर निर्भर करेगा. लंबे अर्से के नज़रिए वाले निवेशकों के लिए, प्रॉफ़िटेबल अंडरराइटिंग, सही कैपिटल मैनेजमेंट और असरदार निवेश रणनीतियों के ट्रैक रिकॉर्ड वाली बीमा कंपनी बेहतर अवसर पेश करती हैं.
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