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समय, व्यावहारिकता और निराशावाद

पूंजी बनाने के लिए ज़्यादा बचत करना और ज़्यादा लंबे समय तक बचत करना, क्यों बहुत ज़्यादा रिटर्न पाने की उम्मीद से बेहतर है.

समय, व्यावहारिकता और निराशावादAnand Kumar

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आप चाहते हैं कि आपके निवेश से ज़्यादा पैसे बनें? कौन नहीं चाहता? इस समस्या के कई समाधान हैं, लेकिन सिर्फ़ दो ही उपाय पक्के हैं. एक, ज़्यादा निवेश करें; और दूसरा, इसे ज़्यादा समय दें. बेहतर होगा कि दोनों एक साथ करें. कुछ लोगों को ये मज़ाक लगेगा. लेकिन यही 100 फ़ीसदी सच है. ये मेरे समाधान हैं, जो हमेशा काम आएंगे. कई लोग इन्वेस्टमेंट एनेलिस्ट से उम्मीद करते हैं कि वे कोई जादुई तरीक़ा बताएं - जिसमें निवेश के प्रकार और समय का ऐसा मेल हो जिससे मामूली बचत अच्छी ख़ासी पूंजी में बदल जाए - मिसाल के तौर पर, एक दशक में ₹20,000 महीने का निवेश एक करोड़ का हो जाए. निवेशकों के बीच ऐसी ऊंची-ऊंची उम्मीदें आम होती हैं.

हालांकि, ये समझना ज़रूरी है कि पैसों को लेकर कुछ उपलब्धियां हासिल नहीं की जा सकतीं. बात का सार ये है कि निवेश केवल एक सैद्धांतिक अभ्यास ही नहीं बल्कि इससे कहीं ज़्यादा है. आपकी निवेश यात्रा के अंत में, आपकी बचत को आपके जीवन के असली लक्ष्य पूरे करने होते हैं. बहुत ज़्यादा उम्मीदों वाले कैलकुलेशन आपके लिए बुरे हो सकते हैं, और अक्सर लोगों को ज़रूरत से कम बचत करने के लिए उकसाते हैं.

आने वाले समय में बाज़ार में क्या होगा इसका सटीक तौर पर अंदाज़ा लगाना संभव नहीं. हर अनुमान, चाहे वो किसी एक निवेशक का हो, अनुभवी विश्लेषक का या फिर किसी फ़ाइनांस एक्सपर्ट का हो, वो मान्यताओं और ऐतिहासिक रुझानों पर आधारित एक अनुमान मात्र होता है.

ज़्यादा सटीक अंदाज़ा लगाने या हाई-यील्ड इन्वेस्टमेंट तलाशने के बजाय, ये स्वीकार करना ज़्यादा अक्लमंदी है कि फ़ाइनेंशियल मसलों में पहले से अनुमान लगाने में सटीक होना संभव नहीं. बेहतर होगा कि अप्रत्याशित घटनाओं की अपेक्षा की जाए. इसके अलावा, ये समझना भी ज़रूरी है कि फ़ाइनेंस की दुनिया में अचानक होने वाली घटनाएं सकारात्मक के बजाए नकारात्मक ज़्यादा होती हैं.

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फ़ाइनेंस को लेकर अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए सबसे विश्वसनीय रणनीति है, ज़्यादा और लंबे समय की बचत करना. इसमें एक महत्वपूर्ण चुनौती ये होती है कि ज़्यादातर लोग या तो बिल्कुल बचत नहीं करते या उतनी बचत नहीं करते जितनी उनके लिए सही हो. जो बचत करते भी हैं वो अक्सर वास्तविक जागरूकता या दूरदर्शिता के बिना ही करते हैं, और भविष्य में अपनी पैसों की जरूरत पूरा करने में नाक़ाम रहते हैं. इस तरह की प्लानिंग की कमी उन्हें ज़्यादा बचत और ज़्यादा असरदार ढंग से बचत करने की ज़रूरत को समझने नहीं देती.

इस स्थिति के लिए इन्वस्टमेंट मीडिया भी कुछ हद तक ज़िम्मेदार है. इसी बात पर ज़्यादा ध्यान देना कि कहां निवेश करना है, अनजाने में मन को संदेश देता है कि नाकाफ़ी बचत को बढ़ाने का एकमात्र तरीक़ा बेहतर निवेश के मौक़े तलाश कर ही सुधारा जा सकता है. यही कहानी फ़ाइनेंस की चर्चाओं में हावी रहती है और पैसा मैनेज करने को लेकर लोगों की सोच और समझ को आकार देती है. हालांकि, इसका असली समाधान बुनियादी मुद्दे को संबोधित करने में ही छुपा होता है कि लोगों को अक्सर बस ज़्यादा बचत करने की ज़रूरत होती है.

जीवन का लंबा होना इस चुनौती और भी बढ़ा देता है. उदाहरण के लिए, भारत में, 60 साल की उम्र के बाद की जीवन प्रत्याशा 1990 में 14.8 साल से बढ़कर 17.8 साल हो गई है. औसत के बढ़ने का ये अहम बदलाव बताता है कि कुछ व्यक्ति, ख़ासतौर पर बेहतर पोषण और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच रखने वाले लोग, काफ़ी लंबे समय तक जी रहे हैं. आगे भी यही होते रहने की उम्मीद है, जिसका मतलब है कि रिटायरमेंट की बचत करने वालों को अपना पैसा 25 से 30 साल या उससे ज़्यादा समय तक बनाए रखने की ज़रूरत हो सकती है. इस बढ़े हुए समय में पैसों को बनाए रखने के लिए, बचत से बेहतर रिटर्न पाने ज़रूरत होगी - जिस पर बात करते हुए हमने समझा है कि ये काम चुनौती भरा हो सकता है. भले ही ऊंचा रिटर्न पाया जा सकता है, लेकिन ये ज़्यादा बचत करने का विकल्प नहीं है.

मौजूदा समय में, ज़्यादातर लोग कुछ भी बचाना शुरू कर देते हैं या फिर टैक्स बचाने के चलते मनमानी रक़म की बचत करते हैं. एक ज़्यादा असरदार तरीक़ा होगा कि भविष्य में पैसों की ज़रूरत का अनुमान लगाया जाए और इसका बैकवर्ड कैलकुलेशन किया जाए. इस कैलकुलेशन में ये सावधानी बरतनी चाहिए कि भविष्य में ख़र्च को ज़्यादा और निवेश का रिटर्न कम माना जाना चाहिए. ये रूढ़िवादी नज़रिया चुनौती भरा हो सकता है, क्योंकि इंसानी मन (ख़ासतौर पर निवेश के मामले में) आशावाद यानी उम्मीदों की ओर खिंचता है. जबकि आशावाद आमतौर पर एक अच्छा गुण है, ये भविष्य में निवेश के रिटर्न का अनुमान लगाते समय नुक़सानदायक हो सकता है. व्यावहारिक होना बहुत आसान नहीं है, लेकिन व्यावहारिक लोग बेहतर रहते हैं.

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