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हम सभी अति आत्मविश्वास में जीते हैं. हमारे मन का स्वभाव ही ऐसा है कि जब हम ख़ुद कुछ करते हैं तो मान बैठते हैं कि हम इसे किसी भी दूसरे शख़्स से बेहतर कर लेंगे. मनोवैज्ञानिक इसे 'नियंत्रण पूर्वाग्रह' (control bias) कहते हैं, और ये हर तरह के इंसानी व्यवहार पर लागू होता है. मुझे ब्रूस श्नेयर नाम के एक अमेरिकी सुरक्षा विशेषज्ञ के लेख में ये बात मिली.
वो एक क्रिप्टोग्राफ़र और कंप्यूटर सेफ़्टी विशेषज्ञ हैं, जो हर तरह के रिस्क और सिक्योरिटी के एक बड़े चिंतक और लेखक के तौर पर उभरे हैं. मुझे दिलचस्प लगता है कि रिस्क और इस पर मानवीय प्रतिक्रियाओं के उनके कुछ विचार निवेश पर बहुत सटीक बैठते हैं. कुछ साल पहले, मैंने लिखा था कि लोग किस तरह से कभी-कदार होने वाले रिस्क को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं और रोज़मर्रा की घटनाओं से होने वाले रिस्क को कम आंकते हैं.
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इस लेख के अनुसार, हम उन स्थितियों में रिस्क को कम आंकते हैं, जहां हम ख़ुद नियंत्रण में होते हैं और उन स्थितियों में रिस्क को ज़्यादा आंकते हैं, जहां हम नियंत्रण में नहीं होते. इसकी सबसे आम मिसाल है उड़ान भरने का डर बनाम कार चलाने के रिस्क की धारणा. ये जग ज़ाहिर है कि कमर्शियल प्लेन में उड़ान भरना कहीं भी आने-जाने का अब तक का सबसे सुरक्षित तरीक़ा है. इसके विपरीत, हमारी सड़कें काफ़ी असुरक्षित हैं. फिर भी, कई समझदार लोग उड़ान भरने से बुरी तरह डरते हैं, लेकिन गाड़ी चलाते समय बड़े से बड़ा रिस्क लेने में नहीं हिचकिचाते.
इससे भी बुरा ये है कि लोग बिना ज़्यादा सोचे-समझे सुरक्षा को लेकर सड़कों पर दिखने वाली लापरवाही को सामान्य समझते हैं. वे गाड़ी चलाते समय अपने फ़ोन पर चैट करते हैं (टू-व्हीलर चलाते समय कोई SMS टाइप करता आसानी से दिख जाएगा); शराब पी कर गाड़ी चलाते हैं; तब भी गाड़ी चलाते रहते हैं जब उन्हें पता होता है कि उनके ब्रेक या टायर ठीक नहीं हैं; मोड़ पर ओवरटेक करते हैं, वगैरह, वगैरह – ये लिस्ट अंतहीन है. मगर इसके बावजूद सबसे ज़्यादा डर उन्हें उड़ान भरने में लगता है.
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ये सभी 'नियंत्रण पूर्वाग्रह' की मिसालें हो सकती हैं. जब हम ख़ुद कुछ कर रहे होते हैं, तो हमें नियंत्रण का भ्रम होता है, जो सुरक्षा के प्रति पक्षपात भरे नज़रिए को बढ़ावा देता है. हम रिस्क को कम आंकते हैं क्योंकि हमें लगता है कि हमारे पास सभी तथ्य हैं, और हम स्थिति नियंत्रित कर सकते हैं, जबकि असल में ऐसा नहीं किया जा सकता. उड़ान भरते समय, हमें पता नहीं होता कि क्या हो रहा है, इसलिए हमें नियंत्रण का भ्रम नहीं होता.
मुझे लगता है कि नियंत्रण का ये भ्रम ही निवेशकों को निवेश करते समय रिस्क को कम आंकने के लिए प्रेरित करता है. कई निवेशक असल में इतना नहीं जानते कि शेयरों में हाथ आज़माएं. मगर फिर भी वे ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि उनके पास बहुत ज़्यादा जानकारियां होती हैं, जिससे उन्हें लगता है कि नियंत्रण करने के लिए वे काफ़ी जानते हैं. कोई उन्हें किसी शेयर की लुभावनी कहानी बेचता है, और ये कहानी उन्हें नियंत्रण का भ्रम देने के लिए काफ़ी लगती है. अगर कहानी किसी ब्रोकर के कर्मचारी ने रिसर्च के तौर पर पेश की हो, तो ये और भी ज़्यादा भरोसेमंद लगती है.
यही कारण है कि कई जानकार निवेशक, नए निवेशकों को म्यूचुअल फंड में निवेश न करने की सलाह देते हैं. अनुभवी निवेशकों को शेयरों के बारे में काफ़ी जानकारी होती है, लेकिन अगर उनका पैसा म्यूचुअल फ़ंड में लगा हो, तो वे उसके बारे में ज़्यादा नहीं जानते. यहां म्यूचुअल फ़ंड का निवेश प्रबंधक एक पायलट की तरह हो जाता है और आप उस यात्री की तरह जो नहीं जानता कि पायलट क्या कर रहा है, इसलिए स्वाभाविक रूप से आप उस स्थिति को सबसे ख़राब मान लेते हैं.
बदक़िस्मती से, निवेश करना नशे में या अच्छे ब्रेक और टायर के बिना गाड़ी चलाने जैसा है. स्टॉक में निवेश करने वाला क़रीब-क़रीब हर इंसान अपने पोर्टफ़ोलियो पर किसी भी रिस्क को क़ाबू में रखने के तरीक़ों को फ़ॉलो नहीं करता. लोग सही तरीक़े से डाइवर्सिफ़ाई नहीं करते. अपने पोर्टफ़ोलियो को एक या दो स्टॉक या सेक्टर तक ही सीमित रखते हैं और ट्रैक नहीं करते कि उनके स्टॉक के साथ क्या हो रहा है. सच तो ये है कि उनके अपने कामों से उन्हें इस बात का भ्रम होता है कि वे जानते हैं कि क्या हो रहा है, और उन्हें लगने लगता है कि अगर कोई मुश्किल स्थिति आएगी, तो वे इससे बाहर निकलने में कामयाब रहेंगे.
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