ऐसी बातें कम ही होंगी जो स्मॉल-कैप स्टॉक्स से बढ़कर इक्विटी निवेशकों को धड़ों में बांटती हों। और ये स्वाभाविक भी है। इक्विटी मार्केट के सबसे बड़े फ़ायदे और सबसे बड़े नुकसान, छोटी कंपनियों के स्टॉक्स में निवेश से ही मिलते हैं। नुकसान का दुःख तब कई गुना हो जाता है, जब छोटी कंपनियों के स्टॉक्स में निवेश न करना भी भारी अफ़सोस और हाथ-मलने का सबब बन जाता है। हाल ही में, न्यू डिजिटल IPOs पर एक न्यूज़पेपर कॉलम की तैयारी के दौरान, मैं 1993 के इन्फ़ोसेस IPO के बारे में सोचने लगा। उस वक़्त इस इशू को बहुत कम ही निवेशक मिले और इसे बचाने के लिए मर्चेंट बैंकरों को मैदान में उतरना पड़ा था। अफ़सोस की कितनी बड़ी सुनामी उन निवेशकों के मन में उठी होगी, जिन्होंने बैंगलोर में सॉफ़्टवेयर जैसे नए और अनजान बिज़नस से शुरुआत करने वाली इस छोटी सी कंपनी को नज़रअंदाज़ किया था।
इसमें अहम बात है कि ये ज़िंदगी में एक ही बार होने वाली कोई अजीबोग़रीब सी घटना नहीं है। दरअसल, ये तो छोटी कंपनियों में निवेश के मसले का दिल कहा जाएगा। आख़िरकार, कोई भी निवेशक छोटी कंपनियों में थोड़ा सा पैसा ये सोच कर नहीं लगाता कि ये छोटी कंपनी छोटी ही रहेगी और उनका थोड़ा सा पैसा, थोड़ा सा ही रहेगा। इसके अलावा भी कुछ दूसरे बड़े कारणों से छोटी कंपनियों में निवेश, इंडिविज़ुअल निवेशक के लिए ख़ासतौर पर बेहतर रहते हैं। और इस तरह के निवेश अपने-आप में, बड़े और संस्थागत निवेशकों के लिए उपयुक्त नहीं रहते।
पिछले साल, मैंने एक अमरीकी फ़ंड मैनेजर इयन कैसल का एक निबंध पढ़ा जो स्मॉल-स्टॉक में निवेश को लेकर था। इसमें उन्होंने बड़े साफ़ तौर पर कहा, “कई ऐसे स्मॉल-स्टॉक खोजे जाने के इंतज़ार में हैं, जो अगले पांच साल में 10x हो जाएंगे। संस्थाएं उन्हें नहीं ख़रीद सकतीं। केवल आप ले सकते हैं। स्मॉल-स्टॉक्स (माईक्रो-कैप) में अवसर इसलिए होते हैं क्योंकि संस्थाएं उन्हें तब तक नहीं ख़रीद सकतीं, जब तक वो बड़े नहीं हो जाते।” ये छोटे रिटेल निवेशक की ज़िम्मेदारी है कि वो उन्हें तलाशें और इस खोज का पुरस्कार पाएं। स्मॉल-स्टॉक के तौर पर, जब आपको एक विजेता मिल जाएगा, तो लोग आपको ग़लत कहेंगे। जब आप उस विजेता को होल्ड करेगें, तो लोग आपको मूर्ख कहेंगे। जब आप उस विजेता के ज़रिए अमीर हो जाएंगे, तो लोग आपको ख़ुशक़िस्मत कहेंगे। आप उनसे कह दीजिएगा कि आपको ग़लत, मूर्ख और ख़ुशक़िस्मत होने पर नाज़ है।”
ये बातें अतिरेकपूर्ण लग सकती हैं, पर ऐसे निवेशक आपको बहुतायत में मिल जाएंगे जो ग़लत, मूर्ख़ और क़िस्मतवालों की श्रेणी में होंगे, ये वो लोग होंगे जिनका ट्रैक रिकॉर्ड बताएगा कि उन्होंने निवेश को लेकर अपना संतुलन बनाए रखा और एक-दो दशक तक अपने स्टॉक सावधानी से चुनते रहे। मगर हां-ग़लत, मूर्ख और ख़ुशक़िस्मत-तो दूसरे लोग कहते हैं, सच्चाई ये है कि ये निवेशक न तो ग़लत हैं, न मूर्ख, और न ही महज़ ख़ुशक़िस्मत।
जब मैं मुड़ कर देखता हूं कि छोटी कंपनियों के स्टॉक में निवेश के बारे में मैंने क्या कहा और लिखा है, तो लगता है जैसे इसमें विरोधाभास की झलक भी मिल सकती है। कई बार, मैंने कहा है कि छोटी कंपनियों में निवेश जोखिम भरा होता है। और कई बार, मैंने ये कहा कि छोटी कंपनियां ही सही मायने में इक्विटी निवेश हैं क्योंकि ग्रोथ में हिस्सेदारी का मौक़ा और सफलता का मौक़ा इन्हीं में मिलता है। इस हद तक कि बड़ी कंपनियों में ये सब संभव ही नहीं है। सच्चाई तो ये है कि ये दोनों ही बातें एक दूसरे की पूरक हैं, और इस तरह से हैं कि एक दूसरे के बिना इनकी मौजूदगी ही संभव नहीं है। छोटी कंपनियां जोखिम वाली इसलिए होती हैं कि उन्हें बड़ी कंपनियों की तरह अच्छे से समझा नहीं जाता, उन पर रिसर्च कम ही होती है और इसीलिए लोग उनकी संभावनाओं के बारे उतना नहीं जान पाते।
ये सच है। छोटी कंपनियों के भविष्य को लेकर बड़ी अनिश्चितता होती है। इनमें से कई, किसी अच्छे मुक़ाम पर नहीं पहुंच पातीं। कई फ़ेल हो कर ग़ायब हो जाती हैं, फिर चाहे इरादे कितने ही नेक हों, या रिसर्च कितनी ही अच्छी क्यों न हो। यहां तक कि सबसे अच्छे विश्लेषक भी बड़ी कंपनियों के मुक़ाबले इन्हें लेकर ज़्यादा (कहीं ज़्यादा) ग़लतियां करते हैं।
ये सब कुछ, इस खेल का हिस्सा है और कभी बदलने वाला नहीं है। हालांकि, ये रिस्क और अनिश्चितता ही है, जिस वजह से छोटी कंपनियां विजेता साबित होती हैं और बढ़-चढ़ कर रिटर्न दे पाती हैं। दोनों आयाम-बड़ा रिस्क और बड़े रिटर्न-एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनमें रिस्क ज़्यादा है, कोशिशों की ज़रूरत ज़्यादा है और पुरस्कार भी ज़्यादा मिलता है।