हमें पढ़ने वाले जानते हैं कि हम लाईफ़ इन्श्योरेंस की ज़रूरत को कितनी अहमियत देते हैं। और इसके लिए हमारी सलाह रहती है 'टर्म प्लान' का चुनाव करने की। पर इस लेख में हम एक ख़ास सवाल पर बात करेंगे और वो है, इंश्योरेंस क्लेम कैसे किया जाए? दरअसल क्लेम पाना, बहुत से लोगों को एक बड़ी मुश्किल जैसा होता है। क्लेम के लिए लोग आमतौर पर, अपने इन्श्योरेंस एजेंट की मदद लेते हैं। हालांकि, जो ऑनलाईन इन्श्योरेंस ख़रीद रहे हैं, उनके लिए ये विकल्प उपलब्ध नहीं होता। इसलिए, सभी के लिए इस बात को जानना-समझना अच्छा रहेगा कि ज़रूरत पड़ने पर इन्श्योरेंस क्लेम कैसे फ़ाईल किया जाए।
सभी लाईफ़ इन्श्योरेंस कंपनियों की वेबसाइट में 'क्लेम्स' का सेक्शन मौजूद है। इन्श्योर्ड व्यक्ति का देहांत होने पर, इंश्योरेंस क्लेम पाने के लिए नॉमिनी को जो काम करने होते हैं, उसके लिए ज़रूरी सारी जानकारी इस सेक्शन में है। आप लाईफ़ इन्श्योरेंस काउंसिल की वेबसाईट से सभी लाईफ़ इन्श्योरेंस कंपनियों के 'क्लेम्स' सेक्शन के लिंक की लिस्ट हासिल कर सकते हैं।
अलग-अलग इन्श्योरेंस कंपनियों में, इन्श्योरेंस क्लेम करने के तरीक़े में थोड़ा अंतर हो सकता है। लेकिन मोटे तौर पर क्लेम फ़ाईल करने के स्टेप और कागज़ातों की जरूरत एक सी हैं।
इन्श्योरेंस कंपनियों को जानकारी देना
लाईफ़ इन्श्योरेंस क्लेम फ़ाईल करने की कोई तय समय सीमा नहीं है। लेकिन इन्श्योरेंस कंपनी को जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी जानकारी देना बेहतर होता है। लाइफ इन्श्योरेंस की टर्मिनोलॉजी में, इस प्रॉसेस को आमतौर पर 'रेज़िंग-ए-क्लेम' या 'इनीशिएटिंग-ए-क्लेम' कहा जाता है। इसके लिए नॉमिनी को पॉलिसी नंबर के साथ, अपनी और इन्श्योर्ड व्यक्ति की कुछ बेसिक जानकारियां देनी होती हैं, जैसे - नाम, कॉन्टैक्ट-डिटेल, डेट-ऑफ़-बर्थ, डेट-ऑफ़-डेथ आदि। ऑनलाइन के अलावा, आप ई-मेल, मैसेज, या फ़ोन के ज़रिए इन्श्योरेंस कंपनी के कस्टमर केयर से संपर्क कर, क्लेम की जानकारी दे सकते हैं।
डाक्यूमेंट जमा करना
नॉमिनी के लाईफ़ इन्श्योरेंस क्लेम करने के बाद, इन्श्योरेंस कंपनी बताती है कि क्लेम फ़ॉर्म के साथ कौन से डाक्यूमेंट जमा करने की जरूरत है। वैसे तो ये डाक्यूमेंट ऑनलाइन जमा कराए जा सकते हैं, फिर भी इन्श्योरेंस कंपनियां डाक्यूमेंट की कॉपी भी जमा कराने पर ज़ोर देती हैं। आप ये डाक्यूमेंट, कंपनी की नज़दीकी ब्रांच में जमा करा सकते हैं या फिर कुरियर से भी भेज सकते हैं। नज़दीकी ब्रांच का पता लगाने के लिए कंपनी की वेबसाईट पर 'लोकेट-ए-ब्रांच' सेक्शन होता है या फिर इसके लिए आप कंपनी की हेल्पलाइन से मदद ले सकते हैं। यहां हम उन डाक्यूमेंट्स की लिस्ट दे रहे हैं, जिसे नॉमिनी को ओरिजनल पॉलिसी डाक्यूमेंट के साथ देना पड़ सकता है।
क्लेम फ़ॉर्म: यह एक लिखित आवेदन है जिसमें दुर्भाग्यूपर्ण घटना की जानकारी के साथ सम-अश्योर्ड के भुगतान का अनुरोध किया जाता है। ज़्यादातर मामलों में घटना की जानकारी मिलने के बाद इन्श्योरेंस कंपनी क्लेम-फॉर्म ई-मेल करती है। इसके अलावा क्लेम-फॉर्म, कंपनी की वेबसाईट के 'फ़ॉर्म सेक्शन' या 'डाउनलोड' सेक्शन से मिल जाएगा। ये फ़ॉर्म काफ़ी सरल है। इसमें नॉमिनी को बेसिक जानकारी, जैसे - कांटैक्ट-डिटेल, पॉलिसी-नंबर, इन्श्योर्ड की मृत्यु की तारीख़ और वजह आदि की जानकारी देनी होती है।
इन्श्योर्ड का डेथ सर्टिफ़िकेट: इन्श्योरेंस कंपनी, आमतौर पर स्थानीय नगर निगम या नगरपालिका की ओर से जारीकिया गया ओरिजिनल डेथ सर्टिफिकेट मांगती है। कुछ कंपनियां वैध कारण बताने पर अटेस्टेड कॉपी भी स्वीकार कर लेती हैं।
डॉक्टर / अस्पताल का स्टेटमेंट: अगर नॉमिनी की मौत बीमारी में ईलाज के दौरान हुई है, तो नॉमिनी को अस्पताल या इलाज करने वाले डॉक्टर की ओर से जारी किए गए स्टेटमेंट की कॉपी सबमिट करानी होती है।
नॉमिनी का आईडी प्रूफ़, एड्रेस प्रूफ़ और एक फोटो: इसके लिए आधार, पैन, ड्राइविंग लाइसेंस जैसे डॉक्यूमेंट काफ़ी होते हैं।
अकाउंट का कैंसिल्ड-चेक: नॉमिनी को बैंक अकाउंट का कैंसिल्ड-चेक जमा करने की जरूरत है, जहां वो क्लेम की रक़म ट्रांसफ़र करना चाहते हैं। नियम के तहत, बेनिफ़िट अमाउंट को नॉमिनी के बैंक अकाउंट में ऑनलाइन ट्रांसफर करना होता है।
ऊपर बताए गए डाक्यूमेंट के अलावा, अगर इन्श्योर्ड की मृत्यु इन्श्योरेंस पॉलिसी ख़रीदने के तीन महीने के अंदर हो जाती है, तो इन्श्योरेंस कंपनी और ज़्यादा डाक्यूमेंट मांग सकती है।
लाइफ़ इन्श्योरेंस कंपनियां ऐसे मामलों को 'अर्ली-डेथ' के तौर पर लेती हैं और धोखाधड़ी से बचने और क्लेम-प्रॉसेस करने के लिए ज़्यादा जांच पड़ताल कर सकती हैं।
इसके अलावा, अगर मौत दुर्घटना से हुई है या स्वाभाविक नहीं है, तो इन्श्योरेंस कंपनी को FIR की कॉपी और पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की ज़रूरत होती है।
क्लेम-सेटल होने का समय
भारतीय बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण (IRDAI) के मुताबिक़ लाइफ़ इन्श्योरेंस कंपनियों के लिए 30 दिन के अंदर क्लेम सेटल होना चाहिए। हालांकि, अगर कंपनी को धोखाधड़ी का शक़ है और वो इसकी जांच कराना चाहते हैं, तो बेनिफ़िट की रक़म नॉमिनी के अकाउंट में आने में 4 महीने तक लग सकते हैं।
अगर कोई नॉमिनी नहीं है तो
अगर पॉलिसी होल्डर किसी को नॉमिनी नहीं बनाता, तो चीज़ें काफी जटिल हो जाती हैं। ऐसे परिदृश्य में इन्श्योरेंस कंपनी वसीयत ले कर या कोर्ट द्वारा जारी सक्सेशन सर्टिफ़िकेट मांग सकती है। इन दोनों के न होने पर, क्लेम करने वाले को यह साबित करना पड़ेगा कि वही अकेला लाभार्थी है और उसे इसके लिए वकील की सेवाएं लेनी पड़ सकती हैं।
अगर क्लेम ख़ारिज हो जाए?
सामान्य तौर पर, वैध क्लेम को कंपनियां सेटल कर देती हैं। लेकिन क्लेम ख़ारिज होने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों में, आप शिकायत निवारण तंत्र की मदद ले सकते हैं। हम अगली स्टोरी में इस विषय पर विस्तार से बात करेंगे।