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न रूल, न रेग्युलेशन, न झंझट

भारतीय फ़ाइनेंशियल सैक्टर ने ऐसा अराजक दौर कभी नहीं देखा जैसा क्रिप्टोकरंसी ट्रेडिंग में नज़र आ रहा है। अगर सरकार इसके रेग्युलेशन और ऑडिट की तरफ़ जल्दी क़दम नहीं उठाती, तो नतीजा अच्छा नहीं होगा।

न रूल, न रेग्युलेशन, न झंझटAnand Kumar

आपने एक विज्ञापन देखा होगा। एक अंधेरे से फ़िल्मी से गैरेज में कुछ युवक कैरम खेल रहे हैं। उनमें से एक, दूसरों को बिटक्वाइन के बारे में बताता है, और उन्हें एक ऐप के ज़रिए ख़रीदने पर ज़ोर देता है। दूसरे युवक विरोध में कहते हैं, कि उन्हें बिटक्वाइन समझ नहीं आता। तो वो युवक, अपने फ़ोन का स्क्रीन दिखाता है, जिसमें एक ग्राफ़ ऊपर-नीचे जा रहा है, और कहता है, ‘नो झंझट, नो लोड’।

मुझे ये फ़िल्मी सा दिखने वाला विज्ञापन पूरी तरह से रियलिस्टिक लगता है। ये एक ऐसे शख़्स को दिखा रहा है, जो खुद तो बिटक्वाइन के बारे में कुछ नहीं जानता, पर-दूसरे अनजान युवकों को-पूरे आत्मविश्वास से बिटक्वाइन ख़रीदने के लिए कह रहा है। ठीक यही बात असल ज़िंदगी में भी हो रही है। बिटक्वाइन ख़रीदने की एक ही वजह है, और वो है, इसमें दिखाई दे रही, ऊपर जाती हुई लाईन। ये भी सच है कि ये विज्ञापन, असल में बिटक्वाइन के लिए नहीं, एक ख़ास क्रिप्टोकरंसी एक्सचेंज के लिए है।

थोड़ी देर के लिए, इस तथाकथित करंसी के सही या ग़लत होने के फेर में पड़े बिना, इस मसले को देखेंगे तो पाएंगे कि इन एक्सचेंज की मौजूदगी ही एक बड़ा रेग्युलेटरी गैप है, जिसे तत्काल भरा जाना ज़रूरी है। भारत में हमारे फ़ाइनेंशियल सिस्टम का रेग्युलेशन बड़ा कसा हुआ है। एक आम आदमी का ये उम्मीद करना सही ही है, कि ये संस्थाएं जो खुलेआम फ़ाइनेंशियल इंटरमीडियेरीज़ के तौर पर काम कर रही हैं, उन्हें सरकार का कोई न कोई विभाग मॉनिटर, और रेग्युलेट करे। मगर इन संस्थाओं के केस में-जिन्होंने खुद को क्रिप्टोकरंसी एक्सचेंज घोषित कर रखा है-सरकार, और दूसरे कई फ़ाइनेंशियल रेग्युलेटर निराश ही कर रहे हैं।
मैं जो कह रहा हूं, उसे बुनियादी तौर पर समझाता हूं। जब मैं कोई स्टॉक ख़रीदता हूं, तो मैं एक स्टॉकब्रोकर के पास जाता हूं। मैं अपने बैंक अकाउंट से ब्रोकर को कुछ पैसे ट्रांसफ़र करता हूं, और इसके बदले में, मुझे अपनी स्क्रीन पर, कुछ नंबर दिखाई देते हैं। ये नंबर मुझे बताते हैं कि अब ये स्टॉक मेरे हैं। इन नंबरों की सच्चाई क्या है? मैं ये कैसे जानूं कि जो मुझे दिख रहा है, उसका वास्तिवकता से क्या रिश्ता है? इसकी वास्तिवकता के बारे में मैं जानता हूं, क्योंकि स्टॉक मार्केट, और उससे जुड़ी सभी संस्थाएं इसे बड़ी बारीक़ी से रेग्गुलेट कर रही हैं। ब्रोकर एक एक्सचेंज के सदस्य हैं, और इसके लिए एक अलग संस्था है स्टॉक डिपॉजिटरी, जो इस सबकी मौजूदगी, और जिसके लिए मैंने पैसे दिए हैं, उसे वास्तविकता से जोड़े रखती है।

इसी तरह से बैंकिंग, म्यूचुअल फ़ंड, इंश्योरेंस, बॉंड, और इसी तरह की बाक़ी सभी चीज़ों के लिए रेग्युलेटरी स्ट्रक्चर हैं। मगर इस चीज़, क्रिप्टो के लिए, ऐसा कुछ भी मौजूद नहीं है। ये बिज़नस पूरी तरह से अन-रेग्युलेटेड है। ये संस्थाएं जो खुद को एक्सचेंज कहती हैं, ये क़ानूनी तौर पर ऐसा कुछ भी नहीं हैं। ये बिज़नस हैं, जो आपके पैसे ले लेते हैं, और बदले में आपको स्क्रीन पर कुछ नंबर, और ग्राफ़ दिखाते हैं।

अगर इसकी तुलना स्टॉक ट्रेडिंग से की जाए, तो ये क्रिप्टो एक्सचेंज ब्रोकर हैं, मार्कमेकर हैं, एक्सचेंज हैं, डिपॉज़िटरी, और SEBI, एक साथ सबकुछ हैं। और आपके पास, उनकी कही हुई बात के अलावा, और कोई सुबूत नहीं है, कि वो अपने दावे के मुताबिक़ ही सबकुछ कर रहे हैं। ये है अन-रेग्युलेटेड का असली मतलब। विज्ञापन कहता है, ‘नो झंझट’, और जहां तक इन एक्सचेंज का सवाल है, ये बात सोलह आने सच है। जो लोग ये खुद-मुख़्तार एकस्चेंज चला रहे हैं, उन्हें किसी भी रेग्युलेटरी ‘झंझट’ का सामना नहीं करना पड़ता, जैसा की दूसरे फ़ाइनेंशियल बिज़नस करते हैं। ज़रा सोचिए, ये झंझट एक मक़सद पूरा करता है, ये झंझट निवेशकों को कहीं बड़े झंझटों से बचाता है। इसी साल एक ख़बर थी, कि एक तुर्क़ी क्रिप्टो एक्सचेंज थोडेक्स (Thodex), तब ग़ायब हो गया, जब उसका संस्थापक कस्टमर्स के 2 अरब डॉलर ले उड़ा।

हालांकि, मैं इसके लिए इन एक्सचेंज, या किसी और को, इस बिज़नस के लिए ज़म्मेदार नहीं ठहरा रहा। मगर इस सब को इस हद तक बढ़ने देने के लिए, पूरी ज़िम्मेदारी कई सरकारी विभागों के कई हिस्सों पर आती है। तीन साल पहले RBI ने बैंकों, और दूसरे संस्थान जन्हें RBI रेग्युलेट करती है, उन्हें क्रिप्टोकरंसी ट्रेडिंग से बैन कर दिया था। मार्च 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने वो बैन हटा दिय़ा। अगर आप क्रिप्टो के किसी चैंपयिन से बात करेंगे, तो वो कहेगी कि सुप्रीम कोर्ट ने भारत में क्रिप्टो को लीगल कर दिया है। ये बात आधा सच है।

जिस तरह के नंबरों की चर्चा हो रही है, और जिस तरह की हाईप बनी हुई है, ये काफ़ी संभव है कि कई हज़ार करोड़ रुपए इन तथाकथित करंसियों को ख़रीदने में लगे हुए हैं। एक फ़ाइनेंशियल एक्टिविटी के लिए, रेग्युलेटरी, और ऑडिटिंग सिस्टम के तौर-तरीक़े की ज़रूरत, इससे पहले इतनी ज़्यादा कभी नहीं रही।


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