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एक लंबी, मुश्किल यात्रा

पिछले एक दशक के आर्थिक परिवर्तन पर एक नज़र

एक लंबी, मुश्किल यात्राAI-generated image

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सबसे पहले, मैं कुछ ऐसा कहना चाहता हूं जिसकी उम्मीद मेरे विचारों से परिचित लोग शायद नहीं करेंगे: 4 जून को चुनाव के नतीजों पर शेयर बाज़ार की शुरुआती प्रतिक्रिया सही थी.

आमतौर पर, जब बाज़ार तेज़ी से गिरते हैं, तो मैं अपने पाठकों को बिना सोचे-समझे दी गई प्रतिक्रियाओं के खिलाफ़ चेतावनी देता हूं. अगर आपके निवेश अच्छी तरह से चुने गए हैं और आपने उन पर नज़र बनाए रखी है, तो बाज़ार में अचानक होने वाली ज़्यादातर गिरावटें सिर्फ़ ख़रीदने का मौक़ा होती हैं. ज़्यादातर गिरावटें, हालांकि सभी नहीं. ऐसी भी गिरावटें हो सकती हैं जो किसी बाहरी घटना की सही प्रतिक्रिया हों जो उस मूल आधार को नुक़सान पहुंचा दें जिस पर कई शेयरों की दिशा और स्तर आधारित हों. बेशक़, बिना सोचे-समझे दी गई प्रतिक्रिया एक बात है, लेकिन लंबे समय में ख़राब नतीजे देने वाली घटनाएं भी हो सकती हैं.

सबसे पहले मैं आपको एक दशक पीछे 17 मई, 2014 की सुबह में ले चलता हूं. उस दिन, मैंने "Good Morning, India" शीर्षक से जल्दी-जल्दी में एक लेख लिखा था. लेख में ये पंक्तियां थीं: "...इस समय, ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो उम्मीद कर रहे हैं कि मोदी विफल हो जाएंगे और भारत निराशा के दलदल में वापस चला जाएगा. अब ये कोई रहस्य नहीं है कि इस तरह के लोग दिल्ली के टीवी स्टूडियो और दूसरे मीडिया पर हावी हैं. सौभाग्य से, इस समय, वे जंगल में शेर या बाघ के नज़दीक आने पर चिल्लाने वाले गीदड़ों की तरह दिखते हैं. अगले पांच साल में, भारत को इन लोगों से बड़े विरोध का सामना करना पड़ेगा, लेकिन मुझे यक़ीन है कि समय के साथ, उनकी अहमियत के साथ-साथ उनकी संख्या भी कम हो जाएगी. ये भारत में एक नई सुबह है, ऐसी सरकारों का अंत जिनका एकमात्र काम देश को नुक़सान पहुंचाने के बावजूद बने रहना है. हम एक असली सरकार की ओर बढ़ चुके हैं, एक ऐसा अनुभव जो हममें से कुछ लोगों ने ही किया है..."

ये देखना दिलचस्प है कि ये दस साल मेरी सोच के हिसाब से कैसे रहे. जो अच्छी चीज़ें होने वाली थीं, वे कहीं ज़्यादा बड़ी साबित हुईं. पिछले दस साल एक शानदार यात्रा रही है, जिसमें तमाम उतार-चढ़ाव आए. संदेह के पल भी आए और बहुत ख़ुशी के पल भी. जो लोग गिलास को आधा ख़ाली मानते हैं, वे अर्थव्यवस्था और व्यापार के कई मुद्दों की ओर इशारा कर सकते हैं, जिनमें कुछ चिंताएं सही भी हैं. इक्विटी निवेशकों के तौर पर, हम इन चुनौतियों को अच्छी तरह समझते हैं. हालांकि, जो असल में मायने रखता है वो सिर्फ़ ये नहीं है कि हम इस समय कहां खड़े हैं, बल्कि ये भी कि हम कहां थे और कहां जा रहे हैं.

एक लंबी और मुश्किल यात्रा में, अक्सर समय-समय पर पीछे मुड़कर देखना और इस बात की सराहना करना बहुत फ़ायदेमंद होता है कि हम कितनी दूर आ गए हैं, बजाय इसके कि केवल बाक़ी बची दूरी पर ही ध्यान केंद्रित करें और ख़ुद को थकाते रहें. ये उन लोगों के लिए एक सामान्य अनुभव है जो किसी महत्वपूर्ण वित्तीय लक्ष्य के साथ निवेश करना शुरू करते हैं. कुछ समय बाद, प्रगति पर विचार करने से उपलब्धि की भावना पैदा हो सकती है. यही बात देश की प्रगति के लिए भी कही जा सकती है. एक दशक पहले, मैं शायद ही कभी कल्पना कर सकता था कि अतीत की समस्याओं को हल करने और भविष्य के विकास के लिए आधार तैयार करने के मामले में इतनी प्रगति होगी. GST पर अमल किया जाना और बैंकों के NPS की सफ़ाई से लेकर बैंकरप्सी पर आया क़ानून और टैक्स चोरी को रोकने के उपायों की शुरूआत और सबसे बड़ी बात, अविश्वसनीय बुनियादी ढांचे का निर्माण. अर्थव्यवस्था में हरेक चुनौती को इस तरह से निपटाया गया है जो 2014 के परिप्रेक्ष्य से अविश्वसनीय लगता है.

हालांकि, 2014 में मैंने जो लिखा था उसका दूसरा पहलू भी मेरी अपेक्षा से कहीं ज़्यादा बड़ा साबित हुआ है. राष्ट्र और अर्थव्यवस्था बढ़ी है, और 2004-2014 की लूट को दोहराने की भूख भी हमेशा की तरह संदिग्ध लोगों में बढ़ी है. जैसे-जैसे मुर्गी बड़ी और मोटी होती गई है, उसे काटने का इंतज़ार करने वालों के चाकू भी तेज़ होते गए हैं. भले ही आगे का रास्ता, जितना होना चाहिए था, उससे कहीं ज़्यादा मुश्किल है, लेकिन असंभव नहीं है और इसे मज़बूत इरादे के साथ आगे बढ़ना चाहिए.

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