Anand Kumar
ऐसा लगता है कि ये एक प्राकृतिक नियम है कि नकारात्मक चीज़ें तेज़ी से होती हैं जबकि सकारात्मक चीज़ें धीरे-धीरे और लगातार होती हैं. कोई भी बीमार व्यक्ति अचानक स्वस्थ नहीं हो जाता, लेकिन बहुत से लोग अचानक अच्छा स्वास्थ्य खो देते हैं. कोई भी एक दिन में अमीर नहीं बन जाता, लेकिन बहुत से लोग रातों-रात ग़रीब हो जाते हैं. इसे इस तरह से सोचें. क्या कोई ऐसी घटना हो सकती है जिससे दुनिया का आर्थिक उत्पादन सिर्फ़ एक साल में एक भयावह तरीक़े से गिर जाए, मान लीजिए 10 प्रतिशत तक? हां, बिल्कुल. कोविड एक ऐसी घटना हो सकती थी. हालांकि, क्या इसका उलटा भी हो सकता है? क्या कुछ ऐसा हो सकता है जिससे एक साल में इतनी ही बढ़ोतरी हो जाए? नहीं, कतई नहीं. ऐसे चमत्कार की संभावना शून्य के क़रीब है.
साथ ही, ये विषमता पैमाने पर भी निर्भर करता है. क्या कोई व्यक्ति बहुत जल्दी बेतहाशा अमीर बन सकता है? हां, ये दुनिया भर में कुछ लोगों के साथ हर रोज़ होता है. क्या यही चीज़ किसी छोटे बिज़नस के साथ हो सकती है? बड़े बिज़नस के साथ? पूरे सेक्टर के साथ? एक देश के साथ? पूरी दुनिया के साथ? जैसे-जैसे आप पैमाने पर ऊपर जाते हैं, ऐसे बदलाव की क्षमता कम होती जाती है. हालांकि – और ये एक बड़ा हालांकि है - संभावित नकारात्मक झटके का आकार और गति हमेशा बहुत बड़ी होती है. लॉटरी जीतने जैसे छोटी मिसालों के अलावा, हर पैमाने पर, नकारात्मक आश्चर्य सकारात्मक आश्चर्य की तुलना में बेहद शक्तिशाली और बेहद अचानक हो सकता है. इक्विटी मार्केट इस घटना का एक बेहतरीन उदाहरण है. इक्विटी मार्केट की तबाहियां - बड़े क्रैश - दिमाग पर छाई रहती हैं, जबकि प्रॉफ़िट - चाहे कितने भी बड़े क्यों न हों - महीनों या सालों में मिलते हैं. हम कोड रेड के दौर को याद रखते हैं लेकिन लगातार बढ़ने वाले दौर के आदी हो जाते हैं. नतीजा, अंततः ग्रोथ को हल्के में लिया जाता है जबकि क्रैश दिमाग पर हावी रहते हैं.
सकारात्मक घटनाओं की तुलना में नकारात्मक घटनाओं को ज़्यादा स्पष्ट रूप से याद रखने की इस प्रवृत्ति का निवेशकों के व्यवहार पर बड़ा असर हो सकता है. बाज़ार में गिरावट के दौरान, अक्सर डर और घबराहट से उत्साह हार जाता है, और जल्दबाज़ी में लिए जाने वाले फ़ैसलों की ओर धकेल देता हैं, जैसे कि समय से पहले ही निवेश छोड़ देना. दूसरी ओर, सकारात्मक बढ़ोतरी की धीमी प्रकृति आत्मसंतुष्टि की ओर ले जा सकती है, जिससे निवेशक इसे समझने की अहमियत को अनदेखा कर सकते हैं कि असल में क्या हो रहा है. इस मनोवैज्ञानिक पूर्वाग्रह को समझना ज़रूरी है.
इक्विटी निवेश की तबाहियां - जैसे 2008-09 में – मुनाफ़े की लंबी और सौम्य अवधि की तुलना में कहीं ज़्यादा ध्यान खींचती हैं और दिमाग़ पर छाई रहती हैं. 15-16 साल पहले, संकट से पहले के शिखर पर, BSE सेंसेक्स 21,000 से कुछ ही कम था. मार्च 2009 तक, ये 8,325 के निचले स्तर को छू गया. ये निवेश में सबसे बड़ी आपदा थी जिसे कोई भी इक्विटी निवेशक याद करेगा. BSE सेंसेक्स अब (जब मैं लिख रहा हूं) 74,000+ अंक (उस शिखर से क़रीब 9 गुना) पर है और निवेशक पिछले कई साल से यहां-वहां कुछ रुकावटों के साथ लगातार पैसा कमा रहे हैं. यानी कि ये मुनाफ़े लगातार होते रहे हैं जिनमें कुछ रुकावटें भी शामिल रही हैं, और क्योंकि ये लगातार हो रहे हैं इसलिए किसी घटना के तौर पर ये दिमाग पर कोई छाप नहीं छोड़ते.
इसके अलावा, निवेश करने के तरीक़े को लेकर हमारा मानसिक मॉडल बदला है क्योंकि इक्विटी निवेश में सफलता का स्रोत पिछले कुछ साल में बदला है. एक समय था, जब आपको किसी तरह की सूचना या जानकारी का फ़ायदा चाहिए होता था, तो उसके लिए आपकी पहुंच कुछ लोगों या संस्थानों तक होने की ज़रूरत होती थी जो आम तौर पर उपलब्ध नहीं होते थे. आज, ऐसा बिल्कुल नहीं है. सभी जानकारियां और अनालेसिस की सभी तकनीकें हर किसी के लिए मौजूद हैं. और इसका ज़्यादातर हिस्सा तो मुफ़्त है. अगर कोई सीमा है, तो वो निवेशक की अपनी समझ, ज्ञान और निवेश के लिए समय दे पाने की उसकी क्षमता है. इसके अलावा, इक्विटी म्यूचुअल फ़ंड के ज़रिए निवेश करने से तो समय देने ज़रूरत और रिस्क भी कम हो जाता है, जबकि धीरे-धीरे और लगातार मिलने वाले फ़ायदे की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है.
इस इतिहास को ध्यान में रखते हुए, क्या आप भविष्यवाणी कर सकते हैं कि ये लिस्ट बीस साल में कैसी दिखेगी? या दस साल में भी? हालांकि, एक निवेशक के लिए, ये मायने नहीं रखना चाहिए. कंपनियों की असल पहचान केवल सूचना है, जो लगातार बदलती रहती है. निवेश के लिए गाइड के तौर पर, आज की जानकारी एक दशक बाद उतनी ही अप्रासंगिक होगी जैसे एक दशक पहले का डेटा आज इस्तेमाल करने के लिए बेकार है. हालांकि, जो चीज़ क़ायम रहती है वो है बिज़नस और निवेश के मूल सिद्धांत हैं - वे नियम जिनके ज़रिए कंपनियां अपनी सफलता हासिल करती हैं और उसे बनाए रखती हैं.
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