Anand Kumar
कुछ दिन पहले, एक मित्र ने विरासत के विवाद में पड़े एक परिवार की मदद करने के लिए हमारी प्रीमियम सर्विस का मेंबरशिप अकाउंट बनाया. वैसे, जल्द ही (कुछ ही दिनों में), वैल्यू रिसर्च प्रीमियम, वैल्यू रिसर्च फ़ंड एडवाइज़र बन जाएगा, लेकिन इस पर ज़्यादा बातें बाद में करेंगे.
आइए विरासत के इस विवाद पर वापस लौटते हैं. उस परिवार के किसी बुज़ुर्ग की 2006 में बिना कोई वसीयत छोड़े मृत्यु हो गई. कई तरह की संपत्तियों के अलावा, मृतक का अच्छा-ख़ासा इक्विटी निवेश भी था. 50 से ज़्यादा शेयरों में बिखरा हुआ ये निवेश ज़्यादातर बिना बहुत सोचे-समझे ख़रीदा गया था. इसे देख कर लगता था इसे पिछले तीन-चार साल के दौरान हासिल किया होगा. साल 2006 से अब तक, इन शेयरों में कोई लेनदेन नहीं हुआ था.
हाल ही में, मेरे मित्र को 2012 से मौजूद इन होल्डिंग्स का पूरा अकाउंट मिल गया और उन्होंने उसे हमारी प्रीमियम सर्विस पर एंटर किया.
पता चला कि इस दौरान, शेयरों ने हर साल 15 प्रतिशत से कुछ ज़्यादा का रिटर्न दिया था, जो क़रीब 4 गुना हो गया था! इसके बावजूद कि उनमें से लगभग एक-तिहाई स्टॉक अब बेकार थे (मिसाल के तौर पर, 2008 के क्रैश से पहले के कुछ जाने-माने इंफ़्रा स्टॉक) और एक तरह से रद्दी हो गए थे. ध्यान दें कि ये 'ख़रीदो और होल्ड करो' की रणनीति भी नहीं है - असल में ये 'ख़रीदो और मर जाओ' की रणनीति है. यहां तक कि सबसे ख़राब स्टॉक भी कभी बेचे नहीं गए थे, और उनका रिटर्न अभी भी बहुत अच्छा था.
इस बात से उस स्टडी की याद आ गई जो फ़िडेलिटी इन्वेस्टमेंट्स ने अमेरिका में ये तय करने के लिए की थी कि किन निवेशक के खातों में सबसे अच्छा रिटर्न था. पता चला, सबसे ज़्यादा रिटर्न उन निवेशकों का था जो कई साल, यहां तक कि कई दशक तक अपने निवेशों को पूरी तरह से भूल गए थे. इतना ही नहीं, बल्कि स्टडी में ये भी पता चला कि इन निवेशकों में से काफ़ी लोग बहुत पहले ही मर चुके थे. जी हां, ये सच है.
अपने निवेश पोर्टफ़ोलियो मैनेजमेंट के संबंध में, सबसे फ़ायदेमंद रणनीति वही हो सकती है जो एक मृत व्यक्ति की होगी - यानी, कुछ भी नहीं करना. कृपया समझें, मैं इस बात की वकालत नहीं कर रहा हूं कि आप इस रणनीति को अपनाएं. हालांकि, इससे निवेशकों को जो सबक़ लेना चाहिए वो बिल्कुल साफ़ है.
म्यूचुअल फ़ंड इनसाइट की हमारी मंथली कवर स्टोरी इसी विषय पर है, और हम इसे काफ़ी व्यावहारिक नज़रिए से देखते हैं. ये निवेश और उनके नतीजों के इन विपरीत दृष्टिकोण को दिखाने के लिए खरगोश और कछुए की प्रसिद्ध कहानी का इस्तेमाल करता है. खरगोश की सभी बाते गति को लेकर हैं, और नज़रिया जोख़िम भरे, स्टॉक, डेरिवेटिव और यहां तक कि IPO जैसे शॉर्ट-टर्म के निवेशों वाला है, जो बड़े नुक़सान का कारण बनता है.
खरगोश के (ओवर) एक्टिव मैनेजमेंट के बावजूद, यानी बार-बार ख़रीदने-बेचने से जल्द मुनाफ़ा बनाने के लोभ और हाई रिस्क वाले निवेशों की वजह से ही अंत में उसके पास ज़्यादा कुछ नहीं बचता.
इसके उलट, कछुआ निवेश को लेकर विवेकपूर्ण और दूर-दृष्टि वाले नज़रिए का प्रतिनिधित्व करता है, जो म्यूचुअल फ़ंड, ज़्यादा बचत और अपने रिस्क प्रोफ़ाइल और टाइमलाइन के मुताबिक़ निवेश पर ध्यान केंद्रित करता है. तुरत-फुरत लाभ कमाने और हाई रिस्क वाले विकल्पों के आकर्षण से बचकर, कछुआ अपने निवेश में स्थिरता और ऊंची बढ़त पाता है. कछुए का नज़रिया अनुशासित और लंबे समय के निवेश के रणनीति फ़ायदों को दिखाता है. म्यूचुअल फ़ंड के डाइवर्स पोर्टफ़ोलियो में नियम से निवेश करके, कछुआ समय के साथ कंपाउंडिंग की ताक़त का फ़ायदा उठाता है.
इसके अलावा, बाज़ार के उतार-चढ़ावों के बावजूद निवेश में बने रहने की कछुए की रणनीति फ़िडेलिटी स्टडी के नतीजों के साथ-साथ मेरे दोस्त की कहानी से भी मेल खाती है. अपने निवेश की लगातार निगरानी और छेड़छाड़ करने के लालच का ख़िलाफ़ जा कर, कछुआ भावनात्मक स्तर पर फ़ैसले लेने के नुक़सान और ग़लत समय पर ख़रीदने-बेचने की संभावनाओं से बच जाता है. ये व्यावहारिक नज़रिया, एक निवेश के सोचे-समझे प्लान के साथ मिलकर, लंबे समय में बड़े फ़ायदे की रणनीति साबित होता है.
दिलचस्प ये है कि एक बार जब कोई निवेशक इस बात को समझ लेता है, तो कछुए वाला नज़रिया अपनाना आसान हो जाता है. जीवन में बहुत कम बातें ऐसी हैं जहां कम करने से ज़्यादा बेहतर नतीजे मिलते हैं, और हमें आभारी होना चाहिए कि निवेश एक ऐसा ही क्षेत्र है.