यूं तो SIP को निवेश का अच्छा विकल्प माना जाता है. लेकिन, अक़्सर लोगों के मन में सवाल उठता है कि ये कैसे काम करती है और कैसे आपको दमदार रिटर्न दिलाती है?
जब कोई निवेशक SIP के ज़रिए निवेश करता है, तो उसके बैंक अकाउंट से हर महीने एक ख़ास तारीख़ को एक ख़ास अमाउंट काट लिया जाता है. इस पैसे से लागू NAV पर फ़ंड की यूनिट्स ख़रीदी जाती हैं.
SIP, फ़ंड के पोर्टफ़ोलियो के आधार पर रिटर्न देती हैं. अगर क़िश्त भरते समय मार्केट में गिरावट है, तो आप ज़्यादा यूनिट्स ख़रीदते हैं. अगर मार्केट हाई पर है, तो कम यूनिट्स ख़रीद पाते हैं.
SIP के ज़रिये निवेश करने पर आपके निवेश के ख़र्च का एवरेज निकल आता है. क्योंकि आप क़िश्तों में निवेश करते हैं इसलिए हाई या महंगे मार्केट में एंट्री करने से बच जाते हैं.
जब SIP क़िश्तें बंद हो जाती हैं, तब भी आपका निवेश फ़ंड के पोर्टफ़ोलियो के परफ़ॉर्मेंस के साथ-साथ बढ़ता रहता है. ये तब तक बढ़ता है, जब तक आप निवेश को रिडीम न कर लें.
SIP निवेश पर हुए मुनाफ़े पर टैक्स सिर्फ़ रिडीम करने पर लगाया जाता है, यानी जब आप अपना निवेश बेचते हैं, तभी टैक्स देते हैं. इस मुनाफ़े पर कैपिटल गेन टैक्स लगाया जाता है.
जब कैपिटल गेन कैलकुलेट किया जाता है, तो हरेक यूनिट के लिए होल्डिंग पीरियड का कैलकुलेशन अलग से किया जाता है. इसमें, पहले ख़रीदी गई यूनिट पहले बेची गई मानी जाती हैं.
इक्विटी फ़ंड वाली SIP में 12 महीने से ज़्यादा वक़्त तक रखी गई हरेक क़िश्त के लिए, ₹1 लाख से ज़्यादा के कैपिटल गेन पर 10% टैक्स लगता है. और अगर एक साल के अंदर ही बेचा जाए, तो उस पर 15% टैक्स लगता है.