A टाइप का निवेश 25 साल में आपके लिए 14.5 गुना पैसा बनाता है, वहीं B टाइप का निवेश इसी दौरान 18.75 गुना फ़ायदा देता है. समझने में ये बात कितनी आसान लगती है. ज़ाहिर है, कोई भी A टाइप का निवेश ही चुनेगा. और चुने भी क्यों न, मुनाफ़े का फ़र्क़ ही इतना ज़्यादा है. पर तब क्या हो, अगर मैं आपको बताऊं कि ये दोनों एक ही निवेश हैं? इनमें कितने पैसे निवेश किए गए हैं इसे लेकर ज़रा सा भी फ़र्क़ नहीं है. सारा फ़र्क़ इस बात का है कि इनसे मिले मुनाफ़े पर कितना टैक्स दिया गया! और सालाना मिलने वाले मुनाफ़े के हिसाब से, पहला केस 10.8 प्रतिशत मुनाफ़ा देता है, वहीं दूसरे केस में 11.9 प्रतिशत मुनाफ़ा मिलता है. लंबे समय में, मुनाफ़े को लेकर एक बड़ा अंतर आ जाता है.
मैं इस आकंड़े पर इस तरह पहुंचा: मैंने एक काल्पनिक स्टडी की, जिसमें म्यूचुअल फ़ंड निवेश को लगातार बदलते रहने के मुक़ाबले, लंबे समय तक म्यूचुअल फ़ंड में निवेश करके निवेश को बनाए रखने के बीच तुलना की गई. मौजूदा समय में, इक्विटी-आधारित निवेश पर लॉन्ग-टर्म कैपिटल गेन्स टैक्स 10 प्रतिशत है, जिसका ₹1 लाख के पहले मुनाफ़े पर कोई टैक्स नहीं लगता. अब, टैक्स का असर समझने के लिए, 25 साल पीछे चलते हैं, और एक ऐसे निवेश की कल्पना करते हैं, जो BSE सेंसेक्स के रेट पर मुनाफ़ा दे रहा हो. फ़िलहाल, टैक्स को जोड़ते समय इस ₹1 लाख को नहीं शामिल करेंगे क्योंकि इसका असर निवेश की पूंजी पर होगा.
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पहले केस में, यानी केस A में हमने ऐसे व्यक्ति का मुनाफ़ा देखा था, जो अपने निवेश को हर दो साल में बदलता (rotate) रहता है. कई निवेशकों के मुताबिक़, ये काफ़ी ठहरा हुआ रवैया हो सकता है. मगर दूसरे केस में, यानी केस B में, हमने उस पूरे मुनाफ़े को देखा जिसमें उस व्यक्ति ने निवेश करने के बाद अपना निवेश बरक़रार रखा, और फिर एक ही बार बेचा. जिसने निवेश ख़रीदकर होल्ड किया, उसे लगातार निवेश बदलते रहने वाले से 30 प्रतिशत ज़्यादा कमाई हुई. अगर कोई अनजान व्यक्ति टैक्स पर ग़ौर करेगा, तो शायद सोचे कि टैक्स तो केवल 10 प्रतिशत ही है. मगर, पोर्टफ़ोलियो की पूरी अवधि के दौरान, अगर आप जल्दी-जल्दी ख़रीदते-बेचते हैं, तो इस 10 प्रतिशत टैक्स का असर कहीं ज़्यादा हो जाता है. हर बार, जब आप टैक्स देते हैं, तो टैक्स में गया पैसा भविष्य में आपको मुनाफ़ा देने के काम नहीं आता. यानी टैक्स को टालना, एक तरह की टैक्स रिबेट या छूट है.
एक लंबे अर्से से, भारत का टैक्स स्ट्रक्चर लगातार ख़रीदने-बेचने के लिए बहुत अच्छा था. जब, एक बार इक्विटी निवेश का पहला साल ख़त्म हो जाता था, तो निवेश को बेचना टैक्स फ़्री हो जाता था. इसने निवेश का (और निवेश की सलाह का) एक ऐसा कल्चर खड़ा कर दिया, जिसमें लोग छोटी-से-छोटी बात पर निवेश स्विच कर देते थे. डेट फ़ंड और दूसरे ग़ैर-इक्विटी फ़ंड के लिए भी, ख़र्च के इंडेक्सेशन ने एक अपेक्षाकृत अच्छा टैक्स स्ट्रक्चर बना दिया था. हालांकि, अब वो दिन गुज़र गए हैं—अब कुछ भी फ़्री नहीं है. असल में, इक्विटी से इतर के निवेशों के टैक्स स्ट्रक्चर में हुए बदलावों ने निवेश का माहौल बदला है जिसमें निवेश प्लान करते हुए मुनाफ़े से जुड़े टैक्स के असर पर काफ़ी ध्यान देने की ज़रूरत है. धनक के "मेरे निवेश" जैसे ऑनलाइन टूल इसे आसान करने में आपकी मदद कर सकते हैं. निवेश पर टैक्स कैसा असर करेंगे इस पहलू को बिना देखे-भाले, निवेशकों को निवेश नहीं करना चाहिए.
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ध्यान दें कि मैं ये नहीं कह रहा हूं कि आप इन निवेशों का फ़ैसला सिर्फ़ टैक्स के फ़ायदे-नुक़सान के आधार पर करें. किसी भी निवेश की टैक्स एफ़िशएंसी का सिर्फ़ इतना ही मतलब है कि इसमें आपकी टैक्स की ज़िम्मेदारी कितनी कम है, क्योंकि इसका असर आपके पूरे निवेश के मुनाफ़े पर पड़ता है. जहां ये बात अहम है, पर निवेश के फ़ैसले लेते हुए यही सबसे बड़ा फ़ोकस नहीं होना चाहिए. इसके बजाए, कोई निवेश आपके लिए कितना सही है, इसे तय करते हुए आपके आर्थिक लक्ष्यों को सबसे ज़्यादा अहमियत दी जानी चाहिए. आपके आर्थिक लक्ष्य तय करने में कई फ़ैक्टर काम करते हैं जिसमें आपकी रिस्क लेने की क्षमता, निवेश की अवधि, और रिटायरमेंट, पढ़ाई-लिखाई का ख़र्च, या पूंजी सुरक्षित रखने जैसी बातें शामिल होती हैं. लंबे समय के दौरान निवेश में सफल होना है तो निवेश करते समय इन बातों का ध्यान रखना ज़रूरी है. अगर आप सिर्फ़ टैक्स कम करने के लिए निवेश करेंगे, तो अनजाने में ऐसे निवेश चुन बैठेंगे जो आपके जीवन के ज़रूरतों से मेल नहीं खाते होंगे. आपके निवेश की कथा में टैक्स का रोल अहम तो है, पर ये सबसे अहम नहीं है. हो सकता है ये बात कुछ विरोधाभासी लगे, पर ऐसा है नहीं.
आप अपने निवेश को अपने आर्थिक लक्ष्यों के मुताबिक़ चुनें, मगर जिस तरह के निवेश आपने चुन लिए हैं, उनके मुनाफ़े पर टैक्स का असर क्या होगा इस बात को नज़रअंदाज़ मत करें.
देखिए ये वीडियो- आपको अगले 10 साल के लिए कहां निवेश करना चाहिए?