निवेश की दुनिया में, री-बैलेंसिंग वो चीज़ है जो सुनने में जितनी बोरिंग लगती है. असल में वो उतनी ही ज़रूरी है, जैसे आपके लिए Spotify प्लेलिस्ट को अपडेट करना. ठीक वैसे ही अपने पोर्टफ़ोलियो को भी समय-समय पर री-बैलेंस करना ज़रूरी है. अक्सर समय के साथ जैसे-जैसे हमारा निवेश बढ़ता जाता है, हम पोर्टफ़ोलियो को दोबारा बैलेंस करने को लेकर लापरवाह हो सकते हैं. मगर आपको कुछ समय बाद अपने पोर्टफ़ोलियो पर ध्यान देना चाहिए.
क्यों ज़रूरी है री-बैलेंसिंग?
आपका पोर्टफ़ोलियो भी आपको वैसा ही चाहिए जैसा आपके Wardrobe! पहले जो फ़ैशन था, अब वो थोड़ा पुराना लगने लगा है, और कुछ नया चाहिए! जैसे-जैसे आपके निवेश बढ़ते हैं, पोर्टफ़ोलियो का बैलेंस बदल सकता है. अगर आप हर 6 महीने में एक बार पोर्टफ़ोलियो चेक करेंगे तो आपको ये अंदाज़ा हो जाएगा कि क्या आपके निवेश अभी भी आपकी उम्मीदों के हिसाब से चल रहा है.
कैसे करें री-बैलेंस?
एक आसान तरीक़ा: जब भी आपके निवेश का 5-7% का बदलाव हो जाए, तो वो पोर्टफ़ोलियो री-बैलेंस करने का समय होता है. मान लीजिए, आपने 70:30 [इक्विटी:डेट (Debt Fund)] रखा था, लेकिन स्टॉक मार्केट के उछाल से इक्विटी बढ़कर 80% हो गई और डेट (Debt Fund) का हिस्सा कम हो गया, तो क्या करना चाहिए? अपने फ़ायदे का थोड़ा हिस्सा इक्विटी से निकालकर डेट (Debt Fund) में लगा दें.
इस केस में, आपको टैक्स और एग्ज़िट लोड, जो भी लागू होता है वो देना होगा. भले ही ये अतिरिक्त ख़र्च होगा और इसमें आप पूंजी पर मिलने वाला कंपाउंडिंग का फ़ायदा भी गंवा देंगे. पर इन बातों के चलते, आप अपने फ़ंड को दो फ़ाइनेंशियल ईयर में बांट कर निकाल सकते हैं. इससे आप इक्विटी पर लंबे समय के कैपिटल गेन पर ₹1 लाख तक की छूट का फ़ायदा भी उठा सकेंगे.
अगर आप नए निवेशक हैं: नए निवेशक के तौर पर आप अपने बढ़े हुए निवेश को किश्तों में (SIP) या एकमुश्त (lump-sum), ऐसे एसेट क्लास में निवेश करके री-बैलेंस कर सकते हैं, जिसका रेशियो आपके पोर्टफ़ोलियो में कम हो गया हो. इससे री-बैलेंस में होना वाला ख़र्च भी बच सकता है (पैसा, समय और मेहनत के लिहाज़ से) और आपकी पूंजी भी बढ़ती रहेगी.
री-बैलेंस से क्या फ़ायदा होगा?
जब आप मार्केट हाई होने पर री-बैलेंस करते हैं तो आपके मुनाफ़े को सुरक्षित रखते हैं, और गिरावट के दौरान री-बैलेंस करते हुए आप सस्ती क़ीमत पर इक्विटी ख़रीदते हैं, जिससे आपकी औसत लागत कम हो जाती है.
री-बैलेंसिंग एक स्मार्ट तरीक़ा है, जिससे आप 'मार्केट टाइमिंग' के चक्कर में फ़सने से बचते हैं. ध्यान रखें - मार्केट का अंदाज़ा लगाने में कोई भी हमेशा 100% सही नहीं होता. संस्कृत में कहते हैं, "अति सर्वत्र वर्जयेत्" यानि, ज़रूरत से ज़्यादा कभी अच्छा नहीं होता. यही नियम आपके निवेश पर भी लागू होता है!
री-बैलेंस करने का मतलब है कि आप अपने पोर्टफ़ोलियो को हमेशा फ़िट रख रहे हैं, ताकि किसी भी हालात में आपको भारी नुक़सान न हो. अपनी मेहनत की कमाई को स्मार्ट तरीक़े से बढ़ाने का ये तरीक़ा बिल्कुल बढ़िया है!
इस 7-पार्ट की सीरीज़ में म्यूचुअल फ़ंड निवेश के और भी मज़ेदार tips & tricks जानने के लिए जुड़े रहें. और, हमारे बाक़ी पार्ट्स पर नज़र डालना न भूलें.
पार्ट 1 - म्यूचुअल फ़ंड के एक्सपर्ट निवेशक कैसे बनें?
पार्ट 2 - नतीजे की समझ के साथ शुरुआत करें
पार्ट 4 - स्पीड ब्रेकर से बचना है!
पार्ट 5 - रिवर्स गियर को मत भूलिए
पार्ट 6 - फ़ंड के चुनाव कैसे करना चाहिए?
पार्ट 7 - एक संत की तरह शांत रहें
ये लेख पहली बार दिसंबर 28, 2021 को पब्लिश हुआ, और जनवरी 06, 2025 को अपडेट किया गया.