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कुछ न करके जीतना

टैरिफ़ वॉर से मची मार्केट की उठा-पटक कैसे निवेशक के मनोविज्ञान समझने का एक ज़बरदस्त तरीक़ा हो सकती है.

ट्रम्प टैरिफ: इससे आपकी निवेश योजना पटरी से क्यों नहीं उतरनी चाहिएAI-generated image

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अगर निवेश की उथल-पुथल भरी दुनिया में कोई एक चीज़ नहीं बदलती है, तो वो है वैश्विक घटनाओं की अनोखी क्षमता जो हर बार बाज़ार में दहशत फैला देती है. बार-बार दोहराए जाने वाले इस पैटर्न की सबसे ताज़ा मिसाल अमेरिका और लगभग हर किसी के बीच चल रही ट्रेड वॉर है. जैसे-जैसे टैरिफ़ डिप्लोमेसी के हथगोले की तरह एक दूसरे पर उछाले जा रहे हैं, वैसे-वैसे भारतीय बाज़ार आदतन अपनी घबराहट दिखा रहा है. सेंसेक्स का रवैया उसी तरह का है जिसे फ़ाइनेंशियल पत्रकार 'सिर के बल गोता' लगाना कहते हैं.

इन घटनाओं की जो बात मुझे आकर्षित करती है, वो बड़े आर्थिक विश्लेषण या जियो-पॉलिटिकल तनातनी नहीं, बल्कि हम निवेशकों की एक सी प्रतिक्रिया करने की पुरानी आदत है. जिस पल बाज़ार गिरता है, हमारा लड़-जाओ-या-भाग-चलो वाला स्वभाव हरकत में आ जाता है, जो हमें कथित ख़तरे को लेकर कुछ न करने के बजाय, 'कुछ करने' या कहें, - कुछ भी कर बैठने - के लिए उकसाता है. ये स्वभाव हमारे मानवीय विकास में चाहे बड़े काम का रहा हो, पर मार्केट के उतार-चढ़ाव को नेविगेट करने के मामले में हमारा सबसे बड़ा दुश्मन बन जाता है.

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सोचिए कि हो क्या रहा है: राष्ट्रपति ट्रंप ने बड़े पैमाने पर टैरिफ़ लगाते हैं, बाज़ार गिरते हैं, चीन की जवाबी कार्रवाई होती है, बाज़ार और गिरते हैं, 90-दिन का विराम घोषित हो जाता है (चीन को छोड़कर), बाज़ार कुछ ऊपर चढ़ जाते हैं - और इस सबके बीच, निवेशक जुनूनी तरीक़े से अपना पोर्टफ़ोलियो ऐप रिफ़्रेश करने में जुट जाते हैं, ये सोचते हुए कि क्या सब कुछ बेच दिया जाए या शायद 'गिरावट को ख़रीदा' जाए. इस बीच, फ़ाइनेंशियल मीडिया, अपनी वही पुरानी तर्कों की थाली सजा कर बैठ जाता है, जिसमें एक्सपर्ट पूरे आत्मविश्वास से ट्रंप के ट्रुथसोशल अकाउंट और आपके स्टॉक रिटर्न के बीच सीधे संबंध के तार जोड़ने में लग जाते हैं.

लेकिन एक पल के लिए ज़रा पीछे हटते हैं. और पूछते हैं कि पिछले महीने से अब तक भारतीय अर्थव्यवस्था के मौलिक स्वभाव में क्या बदला है? क्या भारतीय अचानक कम कंज़्यूम कर रहे हैं? क्या हमारी तकनीकी क्षमता रातोंरात हवा हो गई है? क्या टैरिफ़ के कारण हमें घर, हेल्थ या फ़ाइनेंशियल सर्विस की ज़रूरत नहीं होगी? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है. बाज़ार की प्रतिक्रिया अनिश्चितता दिखाती है, न कि बुनियादी आर्थिक पतन को.

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इन बातों का मक़सद ट्रेड वॉर के संभावित असर को कम करना नहीं है. कुछ सेक्टर, ख़ासतौर से आईटी जैसे निर्यात के सेक्टर, असल चुनौतियों का सामना कर सकते हैं. जो कंपनियां ग्लोबल सप्लाई चेन का हिस्सा हैं उन्हें नए सिरे से तालमेल बैठाने की ज़रूरत होगी. लेकिन 'कुछ व्यवसायों को मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा' वाली स्थिति के चलते 'सब कुछ बेच देने' की बातें करना ठीक उसी तरह की शॉर्ट-टर्म सोच को दिखाता है जो पूंजी खड़ी करने के बजाय उसे ख़त्म कर देती है.

इस बारे में इतिहास एक मार्के का नज़रिया पेश करता है. पिछले कुछ दशकों में भारत ने जो कुछ भी झेला है, उसके बारे में सोचिए: युद्ध, कंरसी का संकट, राजनीतिक उथल-पुथल, डिमॉनिटाइज़ेशन, बैंकिंग घोटाले, वैश्विक महामारी और व्यापारिक तनावों के पिछले कई दौर. लेकन फिर भी, इन सबके बावजूद, नियम से निवेश करने और डाइवर्सिफ़ाइड पोर्टफ़ोलियो रखने वाले अनुशासित निवेशकों ने बहुत बढ़िया प्रदर्शन किया है. रोज़ की ख़बरों का शोर अंततः कम हो जाता है, लेकिन अंतर्निहित विकास जारी रहता है.

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अब बात उस सवाल की आती है जो बहुत से निवेशकों का है: "अब मैं क्या करूं?" मेरा जवाब उन लोगों को निराश कर सकता है जो मार्केट को टाइम करने वाली किसी मंझी हुई रणनीति या सेक्टर रोटेशन जैसी सलाह की उम्मीद लगाए हुए हैं: ज़्यादातर लोगों के लिए, कुछ करने का सबसे अच्छा तरीक़ा बिल्कुल कुछ नहीं करना है.

अगर आप पांच या उससे ज़्यादा वर्षों के लक्ष्य के लिए निवेश कर रहे हैं, तो मार्केट की ये अशांति मुड़कर देखने पर शायद एक छोटी सी घटना ही लगेगी. अगर आप नियम से SIP कर रहे हैं, तो इसे गिरावट के दौरान जारी रखना ही वो काम है जो रुपए की लागत के औसत का जादू आपके पक्ष में करेगी. और अगर आपके पास एक्सट्रा कैश है, तो आने वाले महीनों में जब दूसरे लोग घबरा रहे हैं, तब इसे थोड़ा-थोड़ा करके निवेश में लगाना सही फ़ैसला होगा.

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सबसे ख़राब काम अगर हो सकता है तो ये कि टैरिफ़ पर होने वाली बातचीत, राष्ट्रपति के ट्वीट्स या एक्सपर्ट्स की भविष्यवाणियों के आधार पर निवेश से बाहर और भीतर हुआ जाए. इस तरह से मार्केट को टाइम करके फ़ायदा उठा पाना लगभग असंभव है, और ये निवेश को वैल्थ खड़ी करने के तरीक़े से बदल कर तनाव देने वाली अटकलबाज़ी का खेल बना देता है.

विडंबना ये है कि अशांत बाज़ार के दौर में कुछ भी न करने के लिए ज़बरदस्त अनुशासन और भावनाओं पर क़ाबू रखने की ज़रूरत होती है. इसके लिए आपको लगातार ख़तरे की बात करने वाली हेडलाइनों को नकारना होता है और भला चाहने वाले दोस्तों को नज़रअंदाज़ करना होता है कि "इस बार बात अलग है." दरअसल, उतार-चढ़ावों के छोटे दौर की समझ होना ही लंबे अर्से में अच्छा रिटर्न पाने का रास्ता है.

इसलिए जब टैरिफ़ के ख़तरे हेडलाइनों की सुर्खियों में छाए हों, तो याद रखें कि पैसों से जुड़े आपके भविष्य के लिए सबसे बड़ा ख़तरा कोई ट्रेड पॉलिसी नहीं है - ये उसे लेकर आपकी अपनी प्रतिक्रिया है. निवेश में, जीवन की ही तरह, अक्लमंदी हर बात पर हड़बड़ा कर प्रतिक्रिया देने में नहीं, बल्कि इस समझ में है कि किस बात पर प्रतिक्रिया नहीं दी जाए.

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